14 जनवरी से विपक्ष और जनता शुरू करें अख़बार फाड़ो और चैनल सुधारो आंदोलन

नागरिक समाज से रवीश कुमार का आह्वान


रवीश कुमार

रवीश कुमार
रवीश कुमार

जब तक विपक्ष अपनी सभाओं के मंच से अख़बार फाड़ो और चैनल सुधारो आंदोलन शुरू नहीं करेगा तब तक जनता नहीं समझ पाएगी कि चुनाव के समय अख़बार और न्यूज़ चैनल किस तरह से लोकतंत्र का गला घोंट रहे हैं। यह लोकतंत्र जनता का है। उसने बनाया है। इसलिए आप जनता पर ज़िम्मेदारी है कि चुनाव के समय अख़बारों और सभी न्यूज़ चैनलों के कवरेज को ध्यान से देखें।

अख़बारों और न्यूज़ चैनलों के ख़िलाफ़ विपक्ष इसलिए आंदोलन नहीं कर रहा है क्योंकि सत्ता मिलने पर वह भी अख़बारों का इस्तमाल इसी तरह करता है या करना चाहता है। इसलिए विपक्ष के नेता आराम से गोदी मीडिया में इंटरव्यू देने जाते हैं। विपक्ष के नेता को हर दिन का अख़बार रैली में भाषण शुरू करने से पहले फाड़ना चाहिए। रैली में आई जनता को बताना चाहिए कि कैसे पैसे के दम पर ये अख़बार बिक गए हैं।

इनमें विपक्ष का कवरेज नहीं है। एक दिन आप जनता को भी ये अख़बार ग़ायब कर देंगे। इसका बड़ा असर होगा। लेकिन विपक्ष डरपोक हो चुका है। उसमें नैतिक बल नहीं बचा है।इससे नुक़सान आप जनता और पाठकों का होता है। क्योंकि इनके कूड़ा को पढ़ने और देखने में आपका समय और पैसा ख़र्च होता है।

मीडिया के ज़रिए जनता को ग़ुलाम बनाने का खेल


हज़ारों करोड़ रुपये के इस मीडिया के ज़रिए जनता को ग़ुलाम बनाने का जो खेल चल रहा है, उसके चक्रव्यूह को जनता ही तोड़ेगी लेकिन उसके पहले उसे पूरा खेल समझना होगा। यूपी चुनावों के दौरान हिन्दी के अख़बार और न्यूज़ चैनल गंध फैलाने जा रहे हैं।
इसलिए जनता से अपील है कि वह लोकतांत्रिक और अहिंसक तरीक़े से अपने अपने घरों में अख़बार फाड़ो आंदोलन शुरू करे। बालकनी में जाकर अख़बार फाड़ दे। चौराहे पर जाकर अख़बार फाड़ दे और चुनावों के दौरान अख़बार बंद करा दे। ये सब गिरोह बन गए हैं। आपके विश्वास का सौदा कर रहे हैं। आप सावधान नहीं होंगे तो फिर मीडिया मीडिया को लेकर रोना मत रोइयेगा।


सबसे पहले आप पाठक और दर्शक अख़बार पढ़ने और टीवी देखने का तरीक़ा और नज़रिया बदलें। ग़ौर से देखिए कि कवरेज के नाम पर केवल रैलियों का सीधा प्रसारण हो रहा है या उनमें कही गई बातों का अपने रिपोर्टर के सहारे तथ्य जुटाकर परीक्षण भी किया जा रहा है। यह भी देखिए कि क्या केवल प्रधानमंत्री की रैली कवर हो रही है? यह भी देखिए कि रैलियों के कवरेज में विपक्ष को कितनी जगह मिल रही है। यह भी देखिए कि प्रधानमंत्री और बीजेपी की रैली के सीधा प्रसारण में लगातार कवरेज़ हो रहा है, कितनी देर तक कवरेज़ हो रहा है और विपक्ष की रैली का कवरेज शुरु होते ही कैसे ब्रेक आ जाता है। क्या गाँव गाँव भ्रमण करने के नाम पर निकले टीवी के ऐंकर या रिपोर्टर हालात का जायज़ा ले रहे हैं या आकर्षक मंच सज़ा कर बहस करा रहे हैं। जिनसे कुछ निकलता नहीं है। मार-पीट, हंगामा और किसी प्रवक्ता के ग़ुस्से या लतीफ़े का भाषण लोकप्रिय हो जाता है। जिसमें आपको मज़ा तो आता है मगर मिलता कुछ नहीं है। डिबेट शो से सावधान रहें। यह चुनाव के समय जनता की आँखों में धूल झोंकने का कार्यक्रम होता है। मेरा काम है समय पर बता देना। बाक़ी आप इस उस चैनल के बीच फ़र्क़ करते रहें।


इन पैमानों में आप दर्शक भी अपनी तरफ़ से कुछ जोड़ सकते हैं। मेरे इन पैमानों से आप देखेंगे कि न्यूज़ चैनल और यू ट्यूबर अस्पताल या किसी सरकारी संस्थान के पास नहीं जाते, जिससे आप उन जगहों का हाल समझें।पता चले कि मरीज़ किस स्थिति से गुज़र रहा है। शहर में कूड़े की हालत से लेकर रद्दी हो चुके सरकारी स्कूल और कालेज का हाल बताने नहीं जाएँगे। बस चौराहे पर कुछ वक्ता क़िस्म के लोगों को पकड़ लेंगे जो बहस को शानदार बना देते हैं। इससे वीडियो तो वायरल होता है मगर दर्शक को दूसरा वायरल हो जाता है। अंधकार का वायरल। उन बहसों में कुछ नहीं होता है। बस यही कि यूपी होगी किसकी। जबकि पत्रकारों को हर दावों की रिपोर्टिंग करनी चाहिए। पड़ताल करनी चाहिए। मगर मीडिया हर चुनाव को एक मौक़े के रुप में इस्तमाल करता है। चुनाव के नाम पर खूब कमाता है और चुनाव के बहाने जनता को और अधिक अंधकार में धकेल देता है।

टीवी मीडिया
टीवी मीडिया : साभार इंटरनेट


मैंने भी पब्लिक के बीच जाकर रिपोर्टिंग की है। लेकिन अब नहीं करता। पाँच साल से मीडिया क्या जनता को सूचनाओं की जानकारी दे रहा था? एक पाठक और दर्शक के तौर पर आप याद करें। कितनी खोजी ख़बरें देखी हैं आपने? जिसमें अख़बार या टीवी के दर्शक ख़बर को सरकारी दावों से अलग खोज कर लाते हों?जब ऐसी रिपोर्टिंग होती ही नहीं है तो इसका मतलब है कि आपको भी कुछ नहीं पता। तो ये मॉडल क्या है? ये मॉडल है कि पहले आपको अंधकार में रखना, फिर आपको चुनाव के समय जागरुक घोषित कर आपकी प्रतिक्रियाओं से उस अंधेरे का विस्तार करना। अभी नहीं तो बीस साल बात ज़रूर समझ आएगा। आप चुनाव के बहाने फिल्ड में बहुत से पत्रकारों को घूमते तो देखेंगे लेकिन उनसे रिपोर्टिंग नहीं दिखेगी। बहुत कम मात्रा में दिखेगी।


इसी तरह आप सभी चैनलों के कार्यक्रम देखते हुए सख़्त मानक बनाएँ। देखें कि टीवी का रिपोर्टर चौराहे पर खड़ा होकर केवल पब्लिक से बयान ले रहा है या अपनी तरफ़ से जनता को बता भी रहा है। अख़बारों के कवरेज को भी ध्यान से पढ़िए। पैसे का बड़ा खेल वहाँ भी होता है। अख़बार अपनी तरफ़ से पड़ताल कर रहे हैं या केवल रैलियों का कवरेज हो रहा है। भाषणों के आधार पर हेडलाइन बनाई जा रही है। एक अख़बार में कितनी ख़बर बीजेपी की छप रही है और कितनी ख़बर विपक्ष की। उस ख़बर के भीतर बीजेपी की ख़बर की कैसी डिटेल है और विपक्ष की कैसे। जैसे मुमकिन है कि विपक्ष की ख़बर में डिटेल न हो। उसके मूल सवाल ग़ायब कर दिए जाएँ और विपक्ष के नेता के बयान को कभी पहले नंबर की प्राथमिकता नहीं दी जाएगी। उनके बयानों को हल्के अक्षरों में छापा जाएगा जबकि बीजेपी के अख़बारों को मोटे अक्षरों में प्रमुखता से छापा जाएगा।


हिन्दी के अख़बार बड़े धूर्त हैं। चुनावी कवरेज के नाम पर अपनी पुरानी फाइल निकाल कर इतिहास बताने के नाम पर पन्ना भर देते हैं। जाति की गिनती बता देते हैं मगर नेता के काम को लेकर रिपोर्टिंग नहीं करते हैं। आपको लगेगा कि चुनावी कवरेज पढ़ रहे हैं लेकिन इतिहास के नाम पर उसमें कुछ नहीं होता है। बोगस है। हर चुनाव नया होना चाहिए और पिछले चुनाव में किए गए वादों की समीक्षा के नाम पर होना चाहिए। उनका कवरेज होना चाहिए।
चुनाव को लेकर जो असली खेल चलता है, चंदे का, खर्चे का, बूथ मैनेजमेंट का इन सबकी गहराई से रिपोर्टिंग नहीं होती है।

प्रेस का काम है कि वह चुनाव आयोग की भूमिका पर भी नज़र रखे

प्रेस का काम है कि वह चुनाव आयोग की भूमिका पर भी नज़र रखे। केवल आयोग की प्रेस कांफ्रेंस कवर न करे। बल्कि देखे कि आयोग निष्पक्ष वातावरण बना रहा है या नहीं। सभी के लिए बराबर से फ़ैसले हो रहे हैं या नहीं। चंदे का खेल पकड़े। केवल इल्केटोरल रोल ही चंदे का सोर्स नहीं है। स्थानीय स्तर पर भी दुकानदारों और व्यापारियों से भारी मात्रा में अघोषित चंदा वसूला जाता है। क्या किसी अख़बार या चैनल में दम बचा है कि इन सबको उजागर कर दे। इसलिए आप मीडिया के ज़रिए हर दिन मारे जा रहे हैं। आप मृत मतदाता होते जा रहे हैं। मृत मतदाताओं से वोट दिलवा कर इस लोकतंत्र को कृत्रिम रुप से लोकतंत्र बनाया जा रहा है। मेरी इस बात को लिख कर पर्स में रख लें। बाद में अफ़सोस के वक़्त काम आएगा।
पाठकों से अपील है कि पहले तो अख़बारों को लेना बंद करें। इनसे आप प्रोपेगैंडा के अलावा कुछ नहीं जाते हैं। लेकिन कुछ हज़ार की संख्या में पाठक अख़बार लें मगर उनकी समीक्षा के लिए। उनकी ख़बरों की एक एक बात को गहराई से देखें और हर दिन ट्विटर से लेकर इंस्टाग्राम पर उनकी तस्वीर लगाकर समीक्षा करें। पाठक और दर्शक का अपना आंदोलन चलना चाहिए।


हर दिन कुछ पाठक दैनिक जागरण तो कुछ अमर उजाला, कुछ दैनिक हिन्दुस्तान तो कुछ भास्कर का अध्ययन करें। यह काम विपक्ष के नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी करना चाहिए। बीजेपी और विपक्ष की ख़बरों की हर मामले में तुलना करें। आपस में चर्चा करें और सोशल मीडिया पर बताएँ कि कैसे एक अख़बार किसी एक के पक्ष में धार्मिक बयान को मोटे अक्षरों में छाप रहा है। कैसे सभी अख़बारों में किसी एक दल के फ़ायदे के लिए सभी धार्मिक बयानों को प्रमुखता से छापा जा रहा है। कैसे इन बयानों को छापने के लिए तरह तरह के नए संगठन और धर्म गुरु सामने लाए जा रहे हैं।


इसी तरह। राजनीतिक विज्ञापनों की भी तुलना करें। बीजेपी से लेकर सपा और कांग्रेस सबके विज्ञापन की। उनमें क्या है और उनकी संख्या कितनी है। अख़बार में छपने वाली रैलियों की तस्वीर की भी तुलना करें।अगर इस तरह की समीक्षा आप पाठकों ने कर दी तो जनता यूपी चुनाव के बहाने मीडिया को और बेहतर तरीक़े से समझेगी।


ऐसा कर आप हम पत्रकारों की बहुत मदद करेंगे। न्यूज़ रुम का माहौल बदलेगा कि जनता समझदार हो गई है। इस मीडिया पर बिल्कुल भरोसा न करें। बल्कि इस लाइन को गाँव गाँव की दीवारों पर लिख दें मगर लिखने से पहले चुनाव आयोग से इजाज़त ले लें क्योंकि नारे लिखने पर कार्रवाई हो सकती है। लेकिन सोशल मीडिया पर आप लिख सकते हैं। अगर ये आंदोलन चल पड़ा तो फिर से पत्रकारों के हाथ में कलम आ जाएगी और जनता के हाथ में अधिकार। मृत मतदाता जीवित हो उठेगा और लोकतंत्र जीवंत।

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