‘पिंक’ से तुलना न करें तो देखने लायक है ‘रश्मि रॉकेट’

“नो मिन्स नो…” सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की बुलंद आवाज में जब दर्शकों ने फिल्म ‘पिंक’ में उनका यह डायलॉग सुना तो अवाक रह गए. आज भी उनका यह डायलॉग किसी के लिए भी भूल पाना मुश्किल हो चुका है. फिल्म में तापसी पन्नू के अभिनय की भी खूब तारीफ हुई थी. अगर ‘पिंक’ को याद करते हुए आप तापसी पन्नू की ‘रश्मि रॉकेट’ देखने जा रहे हों, शायद आपको फिल्म कुछ हल्की लगे, लेकिन महानायक और ‘पिंक’ को भूलकर ‘रश्मि रॉकेट’ देखने जाएं तो फिल्म आपको मनोरंजक लगेगी. फिल्म के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए पढ़ें यह लेख...

समीक्षक- हिमांशु जोशी
@Himanshu28may

‘सूर्यवंशम’ जैसी फ़िल्म की शुरुआत में एक महिला के लिए जिस तरह के शब्दों का इस्तेमाल किया गया, वह अमर्यादित थे.
संचार के साधनों में महिलाओं को उत्पाद की तरह पेश किया जाता रहा है और इस पर नियंत्रण रखने के लिए बनाई गई संस्थाएं सोती रही हैं.

बॉलीवुड में महिलाओं के अधिकारों पर बहुत कम फिल्में बनी हैं, उनमें से एक फ़िल्म ‘पिंक’ की दमदार अभिनेत्री तापसी पन्नू की ही फ़िल्म होने की वजह से मैंने ‘रश्मि रॉकेट’ को देखने के लिए चुना.

फ़िल्म उद्योग में बिताए अपने 15 सालों के दौरान आकर्ष खुराना का दम मारो दम, कृष 3, काइट्स जैसी फिल्मों में काम करने का अनुभव है और रश्मि रॉकेट के निर्देशन में उन्होंने उसी को झोंका है.

फ़िल्म अपने कौतूहल वाले नाम की तरह ही शुरुआत से सोचने पर मजबूर कर देती है. पुलिस का थप्पड़ खाती रश्मि रॉकेट बनी तापसी पन्नू को देखने के बाद दर्शक 14 साल पहले की कहानी में पहुंच जाते हैं.

गुजरात की रश्मि रॉकेट के पिता की भूमिका में अपने छोटे से रोल में मनोज जोशी प्रभावित करते हैं तो रश्मि की मां बनी सुप्रिया पाठक ने अपना किरदार बखूबी निभाया है.

गुजरात भूकम्प के फ्लैशबैक में पहुंच कहानी फौजी ट्रेनर बने प्रियांशु पैन्यूली के प्रोत्साहन पर रॉकेट के दौड़ने पर पहुंचती है.

रॉकेट बनी तापसी बहुत जल्द अपनी दौड़ से नाम कमा लेती है.

इसी बीच गुजराती संगीत तो अच्छा लगता है पर बिन हेल्मेट के गाड़ी चलाती तापसी सही सन्देश नहीं देती.

प्रियांशु पैन्यूली की पहचान वेब सीरीज़ मिर्जापुर से होती थी. फ़िल्म में वह तापसी के साथ जोड़ी बना जंचे हैं.

हल्की मूछों में फौजी बने प्रियांशु अपने सादे अभिनय से प्रभावित करते हैं. उम्मीद है फ़िल्म से उन्हें नई पहचान मिलेगी.

फ़िल्म जैसे आगे बढ़ती है, हम उसमें भारतीय महिला खिलाड़ियों के साथ होने वाले गलत व्यवहार के बारे में जानकारी पाते हैं.
खेलों में होने वाली राजनीति पर भी फ़िल्म प्रकाश डालती है, तापसी उसे जीती हुई लगती हैं.

फ़िल्म का असली मुद्दा वहां से पता चलता है जब थप्पड़ वाला शुरुआती दृश्य वापस आता है.

जेंडर टेस्ट नाम का एक ऐसा नाजुक मुद्दा जिस पर शायद ही हिंदी फिल्म जगत में कभी बात हुई हो और भारतीय खेल प्रशंसकों ने भी शायद इस मुद्दे पर कभी अपने खिलाड़ियों का साथ दिया हो.

अभिषेक बनर्जी ने वकील के तौर पर फ़िल्म में एंट्री मारी है, जिसमें वह जेंडर टेस्ट के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रश्मि के साथ-साथ जेंडर टेस्ट के शिकार अन्य खिलाड़ियों को भी न्याय दिलाना चाहते हैं. अभिषेक बनर्जी को देख यह महसूस होता है कि फ़िल्म रंग दे बसंती से शुरू हुआ उनका फ़िल्मी सफ़र अब ट्रैक पर आ जाएगा.

वह पहले घण्टे के बाद फ़िल्म की जान हैं पर कोर्टरूम की गम्भीरता वैसी नहीं लगती, जैसी होनी चाहिए थी जबकि फ़िल्म के अंतिम 40-50 मिनट कोर्टरूम के ही हैं.

पिंक में अमिताभ बच्चन ने वकील की भूमिका के साथ जो न्याय किया था, किसी अन्य अभिनेता से उसकी बराबरी की उम्मीद रखना बेमानी ही है.

जज के रूप में सुप्रिया पिलगांवकर ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है.

फ़िल्म के संवाद और गीतों के बोल ऐसे नहीं हैं, जो लंबे समय तक याद रखे जाएं.

गुजरात, रांची के दृश्य खूबसूरत दिखे हैं तो शादी के जोड़े में तापसी भी उतनी ही अच्छी लगी हैं.

जेंडर टेस्ट के समय तापसी को दी गई प्रताड़ना और फ़िल्म के अंतिम क्षणों में अपने होने वाले बच्चे से तापसी की बातचीत वाले दृश्य उनके दमदार अभिनय के हिस्से हैं.

अगर आप पिंक से तुलना न कर इस फ़िल्म को देखने का मूड बनाते हैं तो आप रश्मि रॉकेट से निराश नहीं होंगे.

जेंडर टेस्ट इन स्पोर्ट्स के बारे में गूगल सर्च करने पर आपके सामने बहुत सी जानकारियां सामने आएंगी और इस वज़ह से शायद कभी आप जेंडर टेस्ट की वजह से परेशान किसी खिलाड़ी का साथ देने आगे आएंगे, यही तो फ़िल्म का उद्देश्य है.

फ़िल्म- रश्मि रॉकेट
रिलीज़- जी5 ओटीटी प्लेटफॉर्म
निर्देशक- आकर्ष खुराना
निर्माता- रोनी स्क्रूवाला
संगीत- अमित त्रिवेदी
अभिनय- तापसी पन्नू, अभिषेक बनर्जी, प्रियांशु पैन्यूली, सुप्रिया पाठक, मनोज जोशी, सुप्रिया पिलगांवकर

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