सर पर सूर्य खड़ा है , सामने कंकाल पड़ा है

बीएचयू के छात्र, गोलेन्द्र पटेल की कविताएँ :-

गोलेंद्र पटेल

1.
थ्रेसर••••••
थ्रेसर में कटा मजदूर का दायाँ हाथ देखकर ट्रैक्टर का मालिक मौन हैऔर अन्यात्मा दुखी उसके साथियों की संवेदना समझा रही हैकिसान कोकि रक्त तो भूसा सोख गया हैकिंतु गेहूँ में हड्डियों के बुरादे और माँस के लोथड़ेसाफ दिखाई दे रहे हैं.


कराहता हुआ मन कुछ कहेतो बुरा मत माननाबातों के बोझ से दबा दिमागबोलता है / और बोल रहा हैन तर्क , न तत्थसिर्फ भावना हैदो के संवादों के बीच का सेतुसत्य के सागर मेंनौकाविहार करना कठिन हैकिंतु हम कर रहे हैंथ्रेसर पर पुनः चढ़ कर –
बुजुर्ग कहते हैंकि दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता हैतो फिर कुछ लोग रोटी से खेलते क्यों हैंक्या उनके नाम भी रोटी पर लिखे होते हैंजो हलक में उतरने से पहले ही छिन लेते हैंखेलने के लिए
बताओ न दिल्ली के दादागेहूँ की कटाई कब दोगे?

2.
गुढ़ी•••••
लौनी गेहूँ का हो या धान काबोझा बाँधने के लिए – गुढ़ीबूढ़ी ही पुरवाती हैबहू बाँकी से ऐंठती है पुवालऔर पीड़ा उसकी कलाई !
(पुवाल = पुआल)

3.
घिरनी•••••••
फोन पर शहर की काकी ने कहा हैकल से कल में पानी नहीं आ रहा है उनके यहाँ
अम्माँ! आँखों का पानी सूख गया हैभरकुंडी में है कीचड़खाली बाल्टी रो रही हैजगत पर असहाय पड़ी डोरी क्या करे?
आह! जनता की तरह मौन है घिरनीऔर तुम हँस रही हो। 

4.

“जोंक”———–
रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान ;तब रक्त चूसते हैं जोंक!चूहे फसल नहीं चरतेफसल चरते हैंसाँड और नीलगाय…..चूहे तो बस संग्रह करते हैंगहरे गोदामीय बिल में!टिड्डे पत्तियों के साथपुरुषार्थ को चाट जाते हैंआपस में युद्ध करकाले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!प्यासी धूपपसीना पीती है खेत मेंजोंक की भाँति!अंत में अक्सर हीकर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैंसिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसानसड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में! 

5.

ठेले पर ठोकरें•••••••••••••••••

तीसी चना सरसों रहर आदि काटते वक्तउनके डंठल के ठूँठ चुभ जाते हैं पाँव में
फसलें जब जाती हैं मंडीतब अनगिनत असहनीय ठोकरें लगती हैंएक किसान को – उसकी उम्मीदों के छाँव में
उसकी आँखों के सामने ठेले पर ठोकरें बिकने लगती हैं -घाव के भाव
और उसके आँसुओं के मूल्य तय करती हैउस बाजार की बोली
खेत की खूँटियाँ कह रही हैंउसके घाव की जननी वे नहीं हैंवे सड़कें हैं जिससे वह गया है उस मंडी !

6.

ईर्ष्या की खेती••••••••••••••••
मिट्टी के मिठास को सोखजिद के ज़मीन परउगी हैइच्छाओं के ईख
खेत मेंचुपचाप चेफा छिल रही हैचरित्रऔर चुह रही हैईर्ष्या
छिलके पर  मक्खियाँ भिनभिना रही हैंऔर द्वेष देख रहा हैमचान से दूरबहुत दूरचरती हुई निंदा की नीलगाय !

7.
किसान है क्रोध•••••••••••••••••
निंदा की नज़रतेज हैइच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैंबाज़ार की मक्खियाँ
अभिमान की आवाज़ है
एक दिन स्पर्द्धा के साथचरित्र चखती हैइमली और इमरती का स्वादद्वेष के दुकान पर
और घृणा के घड़े से पीती है पानी
गर्व के गिलास मेंईर्ष्या अपनेइब्न के लिए लेकर खड़ी हैराजनीति का रस
प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर
कुढ़न की खेती काकिसान है क्रोध !

8.

ऊख••••••

(१)प्रजा कोप्रजातंत्र की मशीन में पेरने सेरस नहीं रक्त निकलता है साहब
रस तोहड्डियों को तोड़नेनसों को निचोड़ने सेप्राप्त होता है(२)बार बार कई बारबंजर को जोतने-कोड़ने सेज़मीन हो जाती है उर्वर
मिट्टी में धँसी जड़ेंश्रम की गंध सोखती हैंखेत मेंउम्मीदें उपजाती हैं ऊख(३)कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसानतब खाँड़ खाती है दुनियाऔर आपके दोनों हाथों में होता है गुड़!

9.

उम्मीद की उपज•••••••••••••••••
उठो वत्स!भोर से हीजिंदगी का बोझ ढोनाकिसान होने की पहली शर्त हैधान उगाप्राण उगामुस्कान उगीपहचान उगीऔर उग रहीउम्मीद की किरणसुबह सुबहहमारे छोटे हो रहेखेत से….!

10.

मेरे मुल्क की मीडिया•••••••••••••••••••••

बिच्छू के बिल मेंनेवला और सर्प की सलाह परचूहों के केस की सुनवाई कर रहे हैं-गोहटा!
गिरगिट और गोजर सभा के सम्मानित सदस्य हैंकाने कुत्ते अंगरक्षक हैंबहरी बिल्लियाँ बिल के बाहर बंदूक लेकर खड़ी हैं
टिड्डे पिला रहे हैं चाय-पानी
गुप्तचर कौएं कुछ कह रहे हैंसाँड़ समर्थन में सिर हिला रहे हैंनीलगाय नृत्य कर रही हैं
छिपकलियाँ सुन रही हैं संवाद-सेनापति सर्प कीमंत्री नेवला कीराजा गोहटा की….
अंत में केंचुआ किसान को देता है श्रधांजलिखेत में
और मुर्गा मौन हो जाता हैजिसे प्रजातंत्र कहता है मेरा प्यारा पुत्रमेरे मुल्क की मीडिया!

11.

कविता की जमीन•••••••••••••••••••

कविता के लिएअज्ञेय आकाश से शब्द उठाते हैंकेदारनाथ धूल सेश्रीप्रकाश शुक्ल रेत से
पहला – निर्वात हैकह नहीं सकताताकना तुमतर्क के तह में सत्य दिखेगा
दूसरी – गुलाब हैगंध आ रही हैनाक में
तीसरी – नदी हैजिसमें एक नाव हैजो औंधे मुंह लेटी पड़ी है !

12.

गड़ेरिया•••••••••
१)एक गड़ेरिये केइशारे परखेत की फ़सलेंचर रही हैंभेड़ेंभेड़ों के साथ
मेंड़ परवह भयभीत हैपर उसकी आँखें खुली ताक रही हैंदूरबहुत दूरदिल्ली की ओर
२)घर पर बैठेखेतिहर के मन मेंएक ही प्रश्न हैइस बार क्या होगा?
हर वर्षमेरी मचान उड़ जाती हैआँधियों मेंबिजूकों का पता नहीं चलताऔरमेरे हिस्से का हर्षनहीं रहतामेरे हृदय मेंक्याइसलिए कि मैं हलधर हूँ
३)भेड़ हाँकना आसान नहीं हैहलधरहीरे हिर्य होरनाबाँ..बाँ..बायें…दायेंचिल्लाते क्यों होतुम्हारे नाधेबैलेंसमझदार हैं
४)मेरी भेड़ें भूल जाती हैंअपनी राहमैं हाँक रहा हूँसही दिशा मेंमुझे चलने दोगुरुमैं गड़ेरिया हूँभारत का !

13.

देह विमर्श————–
जबस्त्री ढोती हैगर्भ में सृष्टितबपरिवार का पुरुषत्वउसे श्रद्धा के पलकों परधरधरती का सारा सुख देना चाहता हैघर ; 
एक कविताजो बंजर जमीन और सूखी नदी का हैसमय की समीक्षा– ‘शरीर-विमर्श’सतीत्व के संकेतसत्य को भूलउसे बाँझ की संज्ञा दी।(“कवि के भीतर स्त्री” से)

14.

चिहुँकती चिट्ठी•••••••••••••••••

बर्फ़ का कोहरिया साड़ी
ठंड का देह ढंक
लहरा रही है लहरों-सी
स्मृतियों के डार पर

हिमालय की हवा
नदी में चलती नाव का घाव
सहलाती हुई
होंठ चूमती है चुपचाप
क्षितिज
वासना के वैश्विक वृक्ष पर
वसंत का वस्त्र
हटाता हुआ देखता है
बात बात में
चेतन से निकलती है
चेतना की भाप
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
रूह काँपने लगती है

खड़खड़ाहट खत रचती है
सूर्योदयी सरसराहट के नाम
समुद्री तट पर

एक सफेद चिड़िया उड़ान भरी है
संसद की ओर
गिद्ध-चील ऊपर ही
छिनना चाहते हैं
खून का खत

मंत्री बाज का कहना है
गरुड़ का आदेश आकाश में
विष्णु का आदेश है

आकाशीय प्रजा सह रही है
शिकारी पक्षियों का अत्याचार
चिड़िया का गला काट दिया राजा
रक्त के छींटे गिर रहे हैं
रेगिस्तानी धरा पर
अन्य खुश हैं
विष्णु के आदेश सुन कर

मौसम कोई भी हो
कमजोर….
सदैव कराहते हैं
कर्ज के चोट से

इससे मुक्ति का एक ही उपाय है
अपने एक वोट से
बदल दो लोकतंत्र का राजा
शिक्षित शिक्षा से
शर्मनाक व्यवस्था

पर वास्तव में
आकाशीय सत्ता तानाशाही सत्ता है
इसमें वोट और नोट का संबंध धरती-सा नहीं है
चिट्ठी चिहुँक रही है
चहचहाहट के स्वर में सुबह सुबह
मैं क्या करूँ?

15.

मुसहरिन माँ•••••••••••••••

धूप में सूप से
धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते
महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा
और सूँघा मूसकइल मिट्टी में गेहूँ की गंध
जिसमें जिंदगी का स्वाद है

चूहा बड़ी मशक्कत से चुराया है
(जिसे चुराने के चक्कर में अनेक चूहों को खाना पड़ा जहर)
अपने और अपनों के लिए

आह! न उसका गेह रहा न गेहूँ
अब उसके भूख का क्या होगा?
उस माँ का आँसू पूछ रहा है स्वात्मा से
यह मैंने क्या किया?

मैं कितना निष्ठुर हूँ
दूसरे के भूखे बच्चों का अन्न खा रही हूँ
और खिला रही हूँ अपने चारों बच्चियों को

सर पर सूर्य खड़ा है
सामने कंकाल पड़ा है
उन चूहों का
जो विष युक्त स्वाद चखे हैं
बिल के बाहर
अपने बच्चों से पहले

आज मेरी बारी है साहब!

16.

लकड़हारिन(बचपन से बुढ़ापे तक बाँस)
••••••••••••••••••••••••••••••
तवा तटस्थ है चूल्हा उदासपटरियों पर बिखर गया है भातकूड़ादान में रोती है रोटीभूख नोचती है आँतपेट ताक रहा है गैर का पैर
खैर जनतंत्र के जंगल मेंएक लड़की बिन रही है लकड़ीजहाँ अक्सर भूखे होते हैंहिंसक और खूँखार जानवरयहाँ तक कि राष्ट्रीय पशु बाघ भी हवा तेज चलती हैपत्तियाँ गिरती हैं नीचेजिसमें छुपे होते हैं साँप बिच्छू गोजरजरा सी खड़खड़ाहट से काँप जाती है रूहहाथ से जब जब उठाती है वह लड़की लकड़ीमैं डर जाता हूँ…!

17.

मूर्तिकारिन•••••••••••••
राजमंदिरों के महात्माओंमौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ
समय की छेनी-हथौड़ी सेस्वयं को गढ़ रही हूँ
चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी!
सूरज को लगा है गरहनलालटेनों के तेल खत्म हो गए हैं
चारो ओर अंधेरा हैकहर रहे हैं हर शहर
समुद्र की तूफानी हवा आ गई है गाँवदीये बुझ रहे हैं तेजी सेमणि निगल रहे हैं साँप
और आम चीख चली -दिल्ली!

18.

श्रम का स्वाद••••••••••••••
गाँव से शहर के गोदाम में गेहूँ?गरीबों के पक्ष में बोलने वाला गेहूँएक दिन गोदाम से कहाऐसा क्यों होता हैकि अक्सर अकेले में अनाजसम्पन्न से पूछता हैजो तुम खा रहे होक्या तुम्हें पता हैकि वह किस जमीन का उपज हैउसमें किसके श्रम की स्वाद हैइतनी ख़ुशबू कहाँ से आई?तुम हो किठूँसे जा रहे हो रोटीनिःशब्द!

19.
👁️आँख👁️••••••••••••••
1.सिर्फ और सिर्फ देखने के लिए नहीं होती है आँखफिर भी देखो तो ऐसे जैसे देखता है कोई रचनाकार2.दृष्टि होती है तो उसकी अपनी दुनिया भी होती हैजब भी दिखते हैं तारे दिन में, वह गुनगुनाती है आशा-गीत3.दोपहरी में रेगिस्तानी राहों पर दौड़ती हैं प्यासी नजरेंपुरवाई पछुआ से पूछती है, ऐसा क्यों?4.धूल-धक्कड़ के बवंडर में बचानी है आँखवक्त पर धूपिया चश्मा लेना अच्छा होगायही कहेगी हर अनुभव भरी, पकी उम्र5.आम आँखों की तरह नहीं होती है दिल्ली की आँखवह बिल्ली की तरह होती है हर आँख का रास्ता काटती6.अलग-अलग आँखों के लिए अलग-अलगपरिभाषाएँ हैं देखने की क्रिया कीकभी आँखें नीचे होती हैं, कभी ऊपरकभी सफेद होती हैं तो कभी लाल !

20.

गोड़िन•••••••

कुओं की भरकुंडी प्यास रही हैं
चोर खोल ले जा रहे हैं चपाकलनलकूपों को नगद चाहिए पैसे ;
गोड़िन का गोड़ भारी हैगला सूख रहा है!
निःशुल्क है नदी का पानी
भरसाँय झोंक रही है भूखआग पी रही हैं आँखें
कउरनी कउर रही है कविता ;
जो दाने ममत्व पाना चाहते हैंउछल उछल कर जा रहे हैं आँचल में
और जो उचक उचक कर देख रहे हैं माथे पर पसीनावे गिर रहे हैं कर्ज़ की कड़ाही में
मेरा मक्का मटर भून गयाचना चावल बाकी है!
कोयरी टोला में कोई टेघर गया हैअर्थी का पाथेय -लाई भून रही हैं
जिसे छिड़कने हैं अंतिम सफ़र मेंभूख के विरुद्ध!
सभी दाना भुनाने वाले जा रहे हैं कोयरीटोलाआदमी जवान हैडेढ़ बरस और तीन बरस की बच्चियाँ देह से लिपट कर रो रही हैंचीख रही हैं चिल्ला रही हैं कह रही हैं उठा पापा जागा पापा…..
उसकी औरत को एक वर्ष पहले ही डँस लिया था साँपहे देवी-देवताओं!देहात की देहांत दृश्य देख दिल दहल गया
आह विधवा व्यथा!गोड़ भी छोड़ गया है गर्भ में प्यार की निशानीगोड़िन के नयन से निकली है गंगाप्यासी पथराई उम्मीदों के विरुद्ध!
©गोलेन्द्र पटेल

गोलेन्द्र पटेलजन्म स्थान : ग्राम-खजूरगाँव , पोस्ट-साहुपुरी , जिला-चंदौली , उत्तर प्रदेश , भारत , 221009,शिक्षा : काशी हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र(हिंदी आनर्स),माता-उत्तम देवी ,पिता-नंदलाल , मो.नं. : 8429249326,ईमेल : corojivi@gmail.co

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