बूढ़ा माई का दो रुपए का नोट और पुलिस कप्तान

महेश चंद्र द्विवेदी , लेखक
महेश चंद्र द्विवेदी

 वर्ष 1972 की बात है। मैं एस. पी. बस्ती नियुक्त था | लगभग 10 बजे दिन का समय था और मैं अपने निवास के कार्यालय कक्ष में बैठा हुआ था। नौ बजे से मुलाकातियों से मिल रहा था। एक सज्जन अपनी बात कहकर बाहर जाने लगे, तब मैंने मेज़ पर रखी घंटी ऊपर से हथेली मारकर बजाई। बाहर खड़े टेलीफोन अर्दली ने घंटी की ध्वनि सुनी और अगले मुलाकाती को अंदर जाने को कहा। दरवाज़े पर पड़ी चिक का पर्दा एक तरफ़ से थोड़ा उठा। एक 70-80 वर्ष की आयु की स्त्री, जो कृशकाय थी और जिसके पूरे बदन पर झुर्रियां थीं, अंदर आकर खड़ी हो गई। वह गांव की रहने वाली कोई निर्धन महिला थी क्योंकि उसने अपनी सस्ती सी धोती ग्रामीण शैली (सीधे पल्ले की) में पहन रखी थी। मेरे कुर्सी की ओर इशारा करने पर वह बैठी नहीं, वरन गांव की बोली में बड़ी तेज़ी से अपनी समस्या बताने लगी। मैं अवधी भाषा से पूर्व परिचित था, अतः उसके तेज़ी से बोलने पर भी मैं उसकी बात का सार समझ गया। वह यह कह रही थी कि उसकी ज़मीन पर उसके पट्टीदार (खानदान वाले) अपने जानवर जबरदस्ती बांधने लगे हैं और वह चाहती है कि मैं चलकर उन्हें हटवा दूं।

              वह कोई लिखित प्रार्थना पत्र नहीं लाई थी। अतः मैने उससे उसका नाम और पता तथा पट्टीदार का नाम पूछकर मेज़ पर रखे पैड पर नोट कर लिया। फिर मैंने कहा कि मैं उसके थाने पर जांच और आवश्यक कार्यवाही हेतु आदेश लिखकर भेज दूंगा; अब वह जाये। परंतु वह टस से मस न हुई, वरन अपनी धोती के छोर के एक कोने में लगी गांठ खोलने लगी। मैं भौचक्का होकर उसे देख रहा था। गांठ इतनी मज़बूती से लगी थी कि मुश्किल से खुली। उसमें से दो रुपये का एक तुड़ा-मुड़ा नोट था। उसने उसे निकाल कर उसकी सिलवटें कुछ कम कीं और आगे बढ़कर मेरी ओर बढ़ाते हुए कहने लगी, 

                “बिटवा, अबहीं हमरे संग चले चलौ।“

            मैंने उससे कहा कि वह रुपये अपने पास रखे और जाये। मैं थानाध्यक्ष को आदेश लिख दूंगा और यदि उसकी शिकायत सही होगी, तो अवश्य उसकी सहायता की जायेगी। पर वह मेरे द्वारा दो रुपये ले लेने हेतु आग्रह करने लगी; और न लेने के कारण आश्वस्त नहीं हो रही थी। बाहर खड़ा अरदली इस दृश्य का मज़ा ले रहा होगा, क्योंकि वह बिना बुलाये ही अंदर आ गया और बूढ़ा माई को समझा-बुझा कर बाहर ले गया। 

            वह वृद्ध महिला हम भारतीयों की इस सर्वव्यापी आस्था का जीवंत प्रमाण थी कि इस देश में बिना उत्कोच के कोई सरकारी काम नहीं हो सकता है और उत्कोच द्वारा किसी से भी कोई काम कराया जा सकता है।    

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