इतनी ज़्यादा डरी-सहमी क्यों दिख रही है BJP?

पिछले साढ़े सात साल में पहली बार लोगों को पार्टी के नेताओं के चेहरों पर इस तरह का डर दिखाई दे रहा है।

श्रवण गर्ग

उत्तर प्रदेश को लेकर भाजपा इतनी डरी हुई क्यों नज़र आ रही है? उसकी आक्रामकता के पीछे छुपा भय आत्म-विश्वास के मुखौटे को चीर कर बाहर क्यों झांक रहा है? पिछले साढ़े सात साल में पहली बार लोगों को पार्टी के नेताओं के चेहरों पर इस तरह का डर दिखाई दे रहा है। पार्टी अपनी सत्ता को लेकर उस समय भी इतनी डरी-सहमी नहीं थी, जब पश्चिम बंगाल की चुनावी मुहिम में योगी को हिंदुत्व का चेहरा बनाने के बावजूद उसे नाकामी मिली थी।

इस समय तो योगी अपने ही राज्य में हैं! लगता है कि उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों (पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर) में होने वाले चुनावों के ठीक पहले हिमाचल प्रदेश और राजस्थान सहित तेरह राज्यों की 29 विधान सभा और तीन लोक सभा सीटों के लिए हुए उप-चुनावों के परिणामों ने भाजपा को भीतर से हिला दिया है।

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के गृह प्रदेश हिमाचल में विधान सभा की तीनों और लोक सभा की मंडी सीट जिस तरह कांग्रेस की जेब में चली गईं उसके बाद तो पूरी संभावना थी कि रविवार को नई दिल्ली में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की समापन बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा हमला ‘एक परिवार’ पर ही होगा। ऐसा ही हुआ भी। कांग्रेस द्वारा जीती गई मंडी सीट तो भाजपा ने ढाई साल पहले ही चार लाख मतों से जीती थी। इन उप-चुनावों के पहले तक कांग्रेस भाजपा के एजेंडे से लगभग ग़ायब हो चुकी थी। उसका भूत फिर सामने है।

प्रधानमंत्री जिस समय कार्यकारिणी को सम्बोधित कर रहे थे, उनकी पार्टी की चिंताओं के मुख्य केंद्र उत्तर प्रदेश को लेकर एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा था। वीडियो में दिखाया गया था कि दीपावली पर हजारों-हज़ार लीटर सरसों का तेल खर्च कर जिन बारह लाख दीयों से अयोध्या में सरयू नदी के तट को रोशन किया गया था, उनमें अधिकांश के तेज हवा में बुझते ही इलाक़े के सैंकड़ों गरीब बच्चे अपनी ख़ाली बोतलें दीयों के तेल से भरने के लिए उमड़ पड़े। सरसों का तेल इस समय दो सौ से दो सौ पैंसठ रुपए प्रति लीटर बिक रहा है। उसे खरीद पाना प्रदेश की तीस प्रतिशत जनता के बूते में नहीं है।

भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश का महत्व इस तथ्य से समझा जा सकता है कि चुनाव तो पाँच राज्यों में होने जा रहे हैं पर दिल्ली बैठक में सिर्फ़ योगी ही उपस्थित/आमंत्रित थे। शेष शीर्ष पार्टी नेता वीडियो सम्पर्क के ज़रिए बैठक से जुड़े थे। इतना ही नहीं, कार्यकारिणी में पार्टी के राजनीतिक प्रस्ताव को पेश करने का दायित्व भी योगी को ही सौंपा गया।

वर्ष 2017 और 2018 की कार्यकारिणी बैठकों में राजनीतिक प्रस्ताव पार्टी के वरिष्ठ नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने पेश किए थे। जब इस बाबत निर्मला सीतारमन से सवाल किया गया तो उनका जवाब था : वे (योगी) भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं। देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री हैं। वे संसद सदस्य रह चुके हैं। योगी ने कोरोना महामारी के दौरान लोगों की मदद करने में महती भूमिका निभाई है। अतः उनसे राजनीतिक प्रस्ताव क्यों नहीं पेश करवाया जाए?

पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में योगी को दिए गए अतिरिक्त सम्मान को दो नज़रियों से देखा जा सकता है। एक तो इन अटकलों के परिप्रेक्ष्य में कि केंद्र और योगी के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है और दूसरा अमित शाह की हाल की लखनऊ यात्रा के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री द्वारा चुनाव परिणामों को मोदी की सत्ता में वापसी के साथ जोड़कर दिए गए वक्तव्य से।

अमित शाह ने कहा था : मोदी जी के नेतृत्व में अगला जो लोकसभा का चुनाव जीतना है 24 (2024) में, उसकी नींव डालने का काम उत्तर प्रदेश का 22(2022) का विधान सभा (चुनाव) करने वाला है। यह मैं यूपी की जनता को बताने आया हूँ कि मोदी जी को फिर से एक बार 24(2024) में प्रधानमंत्री बनाना है तो 22(2022) में फिर एक बार योगी जी को मुख्यमंत्री बनाना पड़ेगा। तब जाकर ये देश का विकास आगे बढ़ सकता है।’

चुनाव-परिणामों को लेकर पार्टी में व्याप्त शंकाओं-आशंकाओं को अमित शाह की चिंता में भी पढ़ा जा सकता है और कार्यकारिणी में मोदी द्वारा किए गए कार्यकर्ताओं के आह्वान में भी। प्रधानमंत्री ने कार्यकर्ताओं से कहा कि वे आम आदमी और पार्टी के बीच विश्वास का पुल बनें। आलोचक चाहें तो इसका अर्थ यह भी निकाल सकते हैं कि आम आदमी और पार्टी के बीच विश्वास में शायद दरार पड़ गई है और मोदी ने उसे भांप लिया है।

तीन साल बाद होने वाले लोक सभा चुनावों में मोदी को सत्ता में फिर लाने को लेकर जैसी चिंता भाजपा में अभी से व्याप्त हो गई है वैसी आम जनता के बीच क़तई नहीं है। उन राज्यों की जनता में भी नहीं, जहां इस वक्त भाजपा सत्ता में है और उनमें से अधिकांश को 2024 के पहले विधान सभा चुनावों का सामना करना है।

ऐसे राज्यों की संख्या सोलह है, जहां लोक सभा के पहले विधान सभा चुनाव होने हैं। इन राज्यों में लोक सभा की कोई ढाई सौ सीटें हैं। इन राज्यों में केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र आदि शामिल नहीं हैं। पार्टी को यह आशंका भी हो सकती है कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड (जहां एक-एक करके दो मुख्यमंत्री हाल के महीनों में हटा दिए गए) के विपरीत नतीजों का असर आगे के चुनावों और पार्टी के कार्यकर्ताओं के मनोबल पर पड़ सकता है।

शेयर मार्केट की बात और भी अलग है। हिमाचल और राजस्थान के हाल के उप-चुनावों के नतीजों के परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री के ‘एक परिवार’ के प्रति कोप को यूँ भी समझा जा सकता है कि कम से कम दो सौ लोक सभा सीटें ऐसी हैं जहां कांग्रेस या तो सत्ता में है या वह मुख्य विपक्षी राष्ट्रीय दल है।

इस हक़ीक़त को भाजपा की बड़ी चिंता के रूप में गिना जा सकता है कि अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद वह 2017 की तरह उत्तर प्रदेश में मंदिर और हिंदुत्व को मुख्य चुनावी मुद्दा नहीं बना पा रही है।

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धर्म के नाम पर अयोध्या में जलवाए गए दीयों के करोड़ों रुपये के तेल को गरीब मतदाताओं ने अपने भूखे पेटों में समा लिया और दिल्ली दरबार को संदेश भी दे दिया। तो क्या योगी जीत सुनिश्चित करने के लिए हिंदुत्व के अपने एजेंडे पर ही क़ायम रहेंगे (जैसे कि संकेत उनकी हाल की पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कैराना की यात्रा से मिलते हैं) या अन्य विकल्पों पर भी प्रयोग कर सकते हैं? वे विकल्प क्या हो सकते हैं?

चुनाव और युद्ध में अब सब कुछ जायज़ हो गया है। आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए, अगर सम्भावित विकल्पों पर दबे पाँव काम शुरू भी हो गया हो। दांव पर जो लगने वाला है, उसे देखते हुए क्या यह ज़रूरी नहीं होगा कि आने वाले तीन महीनों के दौरान उत्तर प्रदेश के हरेक घटनाक्रम पर जनता अपनी पैनी नज़र रखे? ऐसा इसलिए कि भाजपा द्वारा उत्तर प्रदेश में आज़माए जाने वाले नुस्ख़ों/विकल्पों की सफलता-असफलता की फ़ोटो कापियाँ ही आगे के सारे चुनावों में भी इस्तेमाल होने वालीं हैं!

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