‘‘माँ की पहचान‘‘

गाँव और संयुक्त परिवार भारत की  विशेषता रहे हैं, जहां की पीढ़ियाँ  एक साथ रहती थीं. लेकिन ग्लोबलाइज़ेशन की  अर्थ व्यवस्था में बच्चे प्रोइशनल या उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाते हैं और फिर अपने गाँव या शहर से दूर नौकरी या व्यापार के लिए चले जाते हैं. कई परिवार तो दो या तीन देशों में बाँट कर रह रहे हैं. फिर वहीं रह जाते हैं. यहाँ माँ – बाप अकेले रहते हैं. परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि रिटायरमेंट के बाद  चाहकर भी माँ बाप  के पास नहीं रह पाते. उधर माँ – बाप अपने सामाजिक परिवेश को छोड़कर दूसरे शहर या देश नहीं जाना चाहते. कई बार तो अंतिम समय में भी बच्चे दूर विदेश से नहीं आ पाते. लेकिन प्रयाग राज में ओम प्रकाश ने सब कुछ छोड़कर माँ के साथ समय बिताया. उन्होंने माँ के साथ इन अंतिम तीन वर्षों  की अनुभूतियों  को इस लेख में लिपिबद्ध किया है.

 

ओम प्रकाश

​ओमप्रकाश मिश्र, प्रयागराज 

​​‘‘माता‘‘ शब्द स्वतः में ही अत्यन्त प्रभावशाली, शक्तिदाता व प्रेरणास्पद होता हैं। मातृभक्ति स्वतः ईश्वर की भक्ति हैं। ‘मातृऋण‘ का कोई शोधन नहीं हो सकता। संभवतः माँ ही एक मात्र ऐसी होती हैं, जो अपनी सभी सन्तानों से निःस्वार्थ स्नेह करती हैं। पुत्र चाहे मूर्ख हो, या विद्वान, धनी हो या निर्धन, यानी पुत्र/पुत्री चाहे जैसे भी हो, माँ का प्यार व आर्शीवाद सतत प्रवाहित होता रहता है।

​मातृभूमि, मातृभाषा व जन्मदात्री माँ की कोई तुलना या बराबरी क्रमशः किसी भी स्थान, भाषा या अन्य प्राणी से हो ही नहीं सकती। जो मातृभूमि है , वह हमें खींचती है , हम संसार के किसी भी कोने में हों, चाहे रोजी-रोटी के लिए या किसी भी कार्य से। आदमी जब कष्ट में हो तो सबसे पहले माँ याद आती है। जब आदमी एकाएक तकलीफ में आ जाये तो उसके भाव मातृभाषा में ही निकलते हैं। अतएव मातृभूमि , मातृभाषा एवं जन्मदात्री माता अतुलनीय हैं, पूज्य हैं।

​मातृभूमि की  सेवा तो सभी करते हैं, परन्तु मातृभमि की रक्षा का महत्वपूर्ण दायित्व सेना उठाती हैं। मातृभूमि की सेवा व समर्पण का भाव स्वाभाविक रूप से सैनिक के हृदय में होता है। मातृभाषा में तो सभी सोचते हैं, विचार करते हैं परन्तु मातृभाषा की सेवा सर्वाधिक मातृभाषा में रचने वाले लेखक/कवि/साहित्यकार होते हैं। इस तथ्य में कोई भी शंका/संदेह नहीं कि अपनी मातृभाषा में ही, कवि/लेखक/साहित्यकार की प्रतिभा का सर्वोत्तम रूप देखने को मिलता हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘‘गीतांजलि‘‘ व मुंशी प्रेमचन्द की सारी हिन्दी रचनायें इसका प्रबल प्रमाण हैं।

​जन्मदात्री-माँ के बारे में जो भी कहा/लिखा जाये कम हैं। माँ की ममता, इस संसार में ऐसी भावनात्मक शक्ति हैं जो माता व सन्तानों के मध्य ही नहीं, वरन् समस्त जगत के लिए प्रेरणास्पद हैं।

लेखक डा ओम् प्रकाश अपनी माँ के साथ

​अभी मेरी माता जी ने 16 मार्च 2020 को इस भौतिक जगत से विदा ली। मेरे सरकारी दायित्यों से रिटायरमेन्ट के बाद मैने कई महत्वपूर्ण दायित्यों का निर्वहन विनम्रता पूर्वक त्याग दिया, क्योंकि मैं अपनी माता जी मी सेवा के लिए पर्याप्त समय नहीं दे पा रहा था। यह कालखण्ड तीन वर्ष से थोड़ा अधिक रहा। इस दरम्यान मेरी माता जी ने मेरे बचपन की छोटी-छोटी मार्मिक बातें मुझे बतायीं। उन्हें लगभग 70 वर्ष पुरानी घटनायें ऐसे याद थी, जैसे कल की ही घटना हो। कभी-कभी वे छोटे बच्चे की तरह हो जाती थी। जैसे मुंशी प्रेमचन्द की अमर कहानी ‘ईदगाह‘ की दादी अमीना हो जाती थी।

पता नहीं बचपन का लौटना, बुढ़ापे में कैसा होता हैं? यह कहानियों/उपन्यासों व साहित्य में पढ़ा था, परन्तु बुढ़ापे में बचपन का लौट आना, अपनी माँ के पास, वृद्धावस्था में खासकर रहकर मैंने प्रत्यक्षतः देखा। बच्चों के तरीके से बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाना, बालसुलभ हँसी, मैंने माँ के मुख मंडल पर स्वयं अक्सर पिछले दो-तीन वर्षों  में देखा था।

​पता नहीं बचपन का लौटना, बुढ़ापे में कैसा होता हैं? यह कहानियों/उपन्यासों व साहित्य में पढ़ा था, परन्तु बुढ़ापे में बचपन का लौट आना, अपनी माँ के पास, वृद्धावस्था में खासकर रहकर मैंने प्रत्यक्षतः देखा। बच्चों के तरीके से बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाना, बालसुलभ हँसी, मैंने माँ के मुख मंडल पर स्वयं अक्सर पिछले दो-तीन वर्षों  में देखा था।

​एक काव्यात्मक दृष्टि, संगीतमय जीवन की झाँकी, अम्मा के पास थी, जिसका प्रत्यक्ष अनुभव उनके जीवन के अन्तिम समय में मैं करता था, शायद यदि मैं सरकारी दायित्वों  से मुक्ति प्राप्त न कर सका होता या जो अन्य महत्वपूर्ण दायित्व, जिन्हें  मैंने स्वतः त्याग न दिया होता तो वह जीवन सम्पदा मुझे न मिलती।

​व्यक्तिगत अनुभव, समष्टि के लिए भी उपयोगी होते हैं, ऐसा मुझे निराला की ‘‘सरोज स्मृति‘‘ में स्पष्टतः दिखती है। निज जीवन में, जो व्यक्ति सीखता हैं, अनुभव करता हैं, वह सार्वजनीन भी हो सकता हैं। इसे कहने में मुझे कोई संकोच नहीं हैं।

​माँ! माँ ही होती है,  उसका स्थान अन्य कोई नहीं ले सकता हैं। माँ के पास जो सुलभ निःस्वार्थ प्रेम अपने बच्चों के लिए उपलब्ध रहता है , वह अन्य कोई नहीं दे सकता हैं। उसका बेटा चाहे कितना भी उम्र दराज क्यों न हो जाए, उसके लिए छोटा बच्चा ही रहता है । इसीलिए कहा गया है 

​‘‘कुपुत्रो जायेत  क्वचिदपि माता कुमाता न भवति‘‘

​अर्थात पुत्र कुपुत्र हो सकता हैं परन्तु माता कुमाता नहीं हो सकती हैं। माँ त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति होती हैं। उसकी गोद में जो बाल-सुलभ प्यार मिलता है , वह किसी और के पास नहीं मिल सकता। उसके कर्ज को चुकाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन हैं। लगभग नौ महीने अपने गर्भ में अनन्य पीड़ा सहते हुए पालना  और प्रसव पीड़ा को सहन करने की क्षमता शायद उस जननी के अतिरिक्त किसी अन्य में नहीं। मैने जीवन की साँध्य बेला में नौकरी पेशा से कार्यमुक्त होने के बाद जो माँ के संसर्ग में रहकर उनका प्यार दुलार पाया , वह शायद बहुत कम लोगों को सुलभ होती हैं। उसके साथ-साथ माँ की सेवा का लाभ उठाने का मौका जो मुझे सुलभ हुआ हैं। उस माँ को कोटि-कोटि प्रणाम, नमन, वंदन।

​माँ वात्सल्यमयी, ममतामयी, कल्याणमयी, शक्तिदायिनी होती है । महाबली बाली और निशिचर पति रावण जैसे असुरों को मारकर जब भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ चैदह वर्ष बाद अयोध्या लौटकर अपनी माँ से मिलते हैं, तो माँ सोचती है कि इतने सुकुमार एवम् कोमल शरीर वाले दोनो बच्चे हैं, भला बड़े-बड़े राक्षसों को कैसे मारा होगा- ऐसा माँ बारम्बार सोच रहीं है । जीवन पर्यन्त माँ आखिर माँ ही होती है ।

​अति सुकुमार जुगल मोरे बारे।

​निसिचर सुभट महाबल भारे।।

​हृदय सराहत बार हीं बारा ।

​कौन भाँति लंकापति मारा ।।

​जन्म के बाद माँ को बच्चा सबसे पहले पहचानता हैं। फिर जीवन भर शिक्षा प्राप्ति, दायित्व निर्वहन आदि में माँ से थोड़ी बनावटी दूरी हो सकती हैं, किन्तु जीवन के अन्तिम वर्षों में माँ के पास रहने से, अपने आपको छोटा बच्चा समझना भी एक बहुत बड़ी पहचान हैं। यह पहचान ही जीवन की अत्यन्त कीमती निधि हैं, जिसे सभी को, यदि संभव हो तो प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।

जैसे भक्त व भगवान के मध्य पहचान पुरानी होने पर एकात्मक होती जाती हैं, वैसे ही माँ के साथ वृद्धावस्था के समय, समय गुजारना बचपन का लौटना होता हैं। जहाँ पद-प्रतिष्ठा सब समाप्त हो जाती हैं, बचपन माँ से पहचान कराता हैं, एक बार फिर।।

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लेखक ​पूर्व रेल अधिकारी एवं पूर्व प्रवक्ता, अर्थशास्त्र विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय , प्रयागराज 

​66, इरवो संगम वाटिका, देव प्रयागम, ​झलवा, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश

​पिन-211015 ​मोबाइल-7376582525

2 Comments

  1. मां ,मातृभूमि और मातृभाषा का कोई विकल्प नही।उपरोक्त लेख में मिश्र जी ने मार्कण्डेय पुराण ,मैथली गुप्त रचित साकेत आदि।ग्रंथों में जो मां की।महिमा का।वर्णन है उसका निचोड़ प्रस्तुत किया है ।मिश्र जी एक अच्छे प्रशासक रहे है और अब एक अच्छे लेखक के।रूप।में अपनी प्रतिभा बिखेर रहे है ।सबसे बड़ी बात है कि।मिश्र।जी एक।अच्छे इंसान है ।मानवता के पुजारी है और तभी संवेदन शील विषयों पर अच्छा लिखते है।

  2. मां सर्वोच्च सत्ता है। मां का आशीर्वाद काल के निर्णय को भी बदलने की शक्ति रखता है।

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