गाय को ‘राष्ट्रीय पशु’ घोषित करने का अदालती सुझाव

Dr Matsyendra Prabhakar
डॉ० मत्स्येन्द्र प्रभाकर

गाय को ‘राष्ट्रीय पशु’ घोषित करने का अदालती सुझाव कई मायनों में ऐतिहासिक है। यह सलाह इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उस दिन बुधवार (पहली सितम्बर) दी है जो सनातन मान्यता में शुभ के देवता ‘गणेशजी’ की विशेष पूजा का माना जाता है। ऐसे में स्वाभाविक सवाल है कि ‘क्या इससे लोकतांत्रिक भारत की सामाजिक व्यवस्था में एक नयी संस्कृति का श्रीगणेश हो सकेगा?’

भारत प्रारम्भ से एक बहुवर्णी संस्कृति वाला देश रहा है। यह बहुलतावादी जीवन-शैली ही यहाँ समाज में स्वाभाविक सामञ्जस्य व समन्वय का सम्बल रही आयी है। इसने सरोकार, सहकार सँग सदाचार के अनेक अध्याय रचते हुए सदा से नये-नये आयाम बनाये। यही विशेषता रही है कि यहाँ आने वालों और रहने वाले लोगों ने हमेशा से अपना कोई कार्य करते हुए दूसरों की सुविधा-असुविधा का ध्यान दिया। फ़िर क्या हुआ कि वह सद्भाव टूटा जिससे सहस्राब्दियों से बुना गया सामाजिकता का ताना-बाना बिखर गया? इस पर चर्चा फ़िर कभी, आज तो उच्च न्यायालय के सन्दर्भगत सुझाव तथा आदेश को ही देखना मौज़ूँ होगा।

हाईकोर्ट के सुझाव तथा टिप्पणी


हाईकोर्ट के सुझाव तथा टिप्पणी में गाय के वैदिक, पौराणिक और सांस्कृतिक महत्त्व का विस्तार से हवाला दिया गया है, साथ ही कहा गया है कि भारत में सभी सनातनधर्मी हैं और गाय को ‘माता’ मानते हैं। यह हिन्दुओं की आस्था का विषय है। आस्था पर चोट से देश कमज़ोर होता है। “गोमांस खाना किसी का मौलिक अधिकार नहीं है। जीभ के स्वाद के लिए जीवन का अधिकार नहीं छीना जा सकता। बूढ़ी गाय भी कृषि के लिए उपयोगी है। इसके क़त्ल की इज़ाज़त देना ठीक नहीं है। गाय भारत में कृषि व्यवस्था की रीढ़ है।”

Allahabad High Court
इलाहाबाद हाईकोर्ट


उच्च अदालत के इस सुझाव जैसे अभिमत में कुछ भी ऐसा नहीं दिखता है जो आपतिजनक हो। बावज़ूद इसके, संशय है कि यह शान्तिपूर्वक कार्यान्वित हो सकेगा! मुख्य वज़ह यह कि लोक सरोकारी मुद्दों के प्रति बेपरवाह अधिकतर दलों को न जन की चिन्ता है, और न ही उसके मन की। ऐसे में जन-मन की मान्यताओं की फ़िक्र कोई करेगा, यह सोचना फ़िलहाल अतार्किक जान पड़ता है।

हाँ! यह सम्भव है कि इसे लेकर नये बवाल होने शुरू हो जाएँ और अगले साल के शुरुआती महीनों में ही उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के ठीक पहले आये इस ‘संवैधानिक सुझावात्मक आदेश’ को लेकर लोग अपने-अपने हित-लाभ के मददेनज़र मामले को गरमाने की कोशिश करें।

यों, अभी इस मत के ही स्थायी रहने पर सन्देह है। कारण यह कि यह न्यायालय की एकल पीठ का अभिमत है। यह अभी तो इसी अदालत की फाँस में फँस सकता है! मामला गोहत्या में पकड़े गये व्यक्ति (सम्भल के ज़ावेद) की ज़मानत अर्ज़ी का है जिसे न्यायमूर्ति ने ठुकरा दिया। इसको उच्च न्यायालय में चुनौती देने का विकल्प है। उसके बाद उच्चतम न्यायालय में तो और भी चक्कर हो सकते हैं।

गोहत्या पर देश के 29 में से 24 राज्यों में पाबन्दी


गोहत्या पर देश के 29 में से 24 राज्यों में पाबन्दी है। बावज़ूद इसके, थोड़ी-बहुत कमी के साथ गोमांस का कारोबार बदस्तूर ज़ारी है। उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार के कुछ एक असरदार तरीक़ों से अवश्य ही शहरों से लेकर गाँवों तक गायें सड़कों पर छुट्टा घूमती दिखती हैं। अन्य राज्यों में भी कमोवेश यही स्थिति है जबकि राजस्थान, हरियाणा और मध्य प्रदेश में इनके समूहों के पीछे कोई न कोई नज़र आता है। उत्तर प्रदेश में गायों की ख़रीद-बिक्री कम से कम खुलेआम तो बड़े पैमाने पर रुकी है लेकिन आये दिन ऐसी ख़बरें आती हैं कि गायें गायब हो गयीं। प्रदेश सहित अन्य राज्यों में दूध न देने वाली गायों, गोधन (अर्थात् बैल, साँड़, बछड़े, बछियों) की आये दिन चोरी हो जाना आम बात है। यह किसी एक क्षेत्र विशेष में बड़े पैमाने पर जानबूझ कर नहीं किया जाता बल्कि चालाकी से अलग-अलग स्थानों से छुट्टा गायों और उनके वंशजों को इक्का-दुक्का पकड़कर उन्हें किसी एकान्त में एकत्रित किया जाता है और फ़िर रातोंरात उन्हें पार कर दिया जाता है।

बेकार जानवरों को पालना-पोसना बहुत महँगा


बेकार जानवरों को पालना-पोसना बहुत महँगा पड़ता है। इनके लिए चारा उगाना बेकार का काम समझा जाने लगा है। खेती में यंत्रों का प्रयोग बढ़ते जाने से भूसे की कमी होती जा रही है। धान की पुआल, और अब तो ज्वार-बाजरे तथा मकाई की डांठ खेतों में ही जला दी जाती है। कुल मिलाकर ठांठ (बेकार) हो चुकी गायों तथा अनुपयोगी गोधन को पालना महँगा के साथ बहुत श्रम-साध्य हो गया है। सरकारों की योजनाओं से (अपवादों को छोड़कर) अमूमन निम्न और गरीब वर्ग के लोगों को खाने-पीने की कमी रह नहीं गयी है। नतीज़तन पशुओं को पालने के काम को तो मजदूर वर्ग के भी अधिकतर लोग ‘हेय’ (नीचा कार्य) समझने लगे हैं। ये सब कारण और ज़मीनी हकीक़त तो अपनी जगह है किन्तु प्रश्न है कि क्या इसी बिना पर गायों और गोवंश को मारने-काटने के लिए छोड़ दिया जाए जिसने शुरू से देश की अर्थव्यवस्था में अमूल्य योगदान दिया है और आज भी यह किसी स्तर पर ज़ारी है।


इलाहाबाद हाईकोर्ट के विद्वान न्यायाधीश ने अपने सुझाव के साथ यह टिप्पणी भी की है कि “एक गाय अपने जीवन में 410 से 440 लोगों का पेट भरती है जबकि उसका वधकर मिलने वाले मांस से अधिकतम 80 लोगों का पेट भरता है। गाय के महत्त्व को देखते हुए महाराजा रणजीत सिंह ने गोवध करने वाले को मृत्युदण्ड का प्रावधान किया था। अनेक हिन्दू राजाओं के साथ मुस्लिम शासकों ने भी गोहत्या को समय-समय पर प्रतिबन्धित किया। गाय का मल (गोबर) तथा मूत्र अनेक असाध्य रोगों में लाभकारी है।

गाय की महिमा का वेदों, पुराणों में वर्णन मिलता है। कवि रसखान ने तो अपना अगला जन्म नन्द की गायों के बीच होने की कल्पना सँजोयी। गाय की चर्बी का कारतूसों में प्रयोग किये जाने से आहत होकर ही बलिया के मङ्गल पाण्डे ने क्रान्ति का बिगुल फूँका था। संविधान में भी गाय के संरक्षण पर ज़ोर दिया गया है।” मुमकिन है कि कोई इन टिप्पणियों को व्यक्ति विशेष की भावना तथा निजी मान्यता से जोड़कर देखे लेकिन इन सब बातों से अलग उच्च न्यायालय का यह कथन भविष्य में होने वाले अन्य न्यायिक मामलों के लिए ‘मील का पत्थर’ (लैण्डमार्क) सरीखा हो सकता है कि “मौलिक अधिकार केवल गोमांस खाने वालों का नहीं है। अलबत्ता जो गाय की पूजा करते हैं एवं जो आर्थिक रूप से गायों पर आश्रित हैं उन्हें भी सार्थक ज़िन्दगी जीने का हक़ है।” (ध्यातव्य है कि ज़मानत के याचिकाकर्ता की तरफ़ से उसके अधिवक्ता ने तर्क रखा था कि अपनी इच्छा अनुसार खाना (उसका) मौलिक अधिकार है।)


अदालत ने टिप्पणी की है कि “जीवन का अधिकार मरने के अधिकार से ऊपर है। गोमांस भक्षण के अधिकार को कभी बुनियादी हक़ (मौलिक अधिकार) नहीं माना जा सकता। किसी को गाय के वध का अधिकार नहीं दिया जा सकता भले ही वह (गाय) बूढ़ी या, बीमार ही क्यों न हो।” ऐसा नहीं कि सिर्फ़ हिन्दू ही गायों की अहमियत समझते हों, मुसलमानों ने भी अपने शासनकाल में गाय को ‘संस्कृतिधर्मी भारत’ की तहज़ीब का अहम हिस्सा माना। गोवध पर पाँच मुस्लिम शासकों ने पाबन्दी आयद की थी और बाबर, हुमायूँ तथा अकबर तक ने अपने धार्मिक उत्सवों में गायों की बलि दिया जाना रोक दिया था। मैसूर के नवाब हैदर अली ने तो गोवध को ‘दण्डनीय अपराध’ तक घोषित कर दिया था।


समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय तथा देश की विभिन्न अदालतों ने अपने निर्णयों एवं टिप्पणियों में गाय के महत्त्व को रेखांकित किया है। गाय के संरक्षण, संवर्द्धन के लिए प्रचार पर ज़ोर दिये हैं और जनता की आस्था तथा संसद, विधानमण्डलों को दृष्टिगत रखते हुए अनेक निर्णय दिये हैं।

उत्तर प्रदेश विधानसभा ने गायों के हितों की रक्षा के लिए समय-समय पर नये नियम बनाये हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का गायों की सुरक्षा को लेकर टिप्पणी रूप में किया गया ‘सुझावात्मक आदेश’ काफी विस्तृत है जो इस सम्बन्ध में राज्य सरकार, केन्द्र तथा अन्य सरकारों के लिए व्यापक मार्गदर्शक (गाइड लाइन) बन सकता है

परन्तु सवाल है कि क्या गायों के प्रति ‘न्याय’ के रूप में उसे ‘राष्ट्रीय पशु’ घोषित करने के लिए आये सुझाव और मात्र एक न्यायाधीश की टिप्पणी से गायों पर अन्याय रुक जाएगा? बूढ़ी और बीमार गायों की तरह अन्य गोवंश भी तो कम से कम ‘गोबर’ के कारण ही कृषि के लिए मूल्यवर्द्धक हैं। देखना होगा कि कितनी सरकारों तथा राजनीतिक नेताओं में इसके लिए उत्कट अभिलाषा पैदा होती है? बहरहाल, यह आने वाला समय बताएगा।

नोट : ये लेखक के निजी विचार हैं. मीडिया स्वराज़ का लेख में व्यक्त विचारों से सहमत होना आवश्यक नहीं.

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