प्रयागराज जनपद के यमुनापार की संस्कृति —एक 

डा चंद्र्विजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज 

चंद्रविजय चतुर्वेदी प्रयागराज
चंद्रविजय चतुर्वेदी प्रयागराज

     युगों से प्रयागराज की सांस्कृतिक चेतना सम्पूर्ण भारत की सांस्कृतिक चेतना का केंद्र बिंदु रहा है |मुद मंगलमय संत समाजू –से परिभाषित प्रयागराज का सारा समाज ही संतत्व का समाज था ,,जहाँ राम भक्ति की अविरल धारा गंगा की अविरल धारा के रूप में प्रवाहमान रही |,विधि निषेध की कर्म कथा से सभी प्रकार की व्याधियों से मुक्ति प्रदान करने वाली यमुना ,ज्ञान विद्या की सरस्वती के साथ भक्ति की गंगा में एकाकार हो प्रयाग के पुण्यभूमि को स्थापित करती  है |अक्षयवट का अक्षय स्थल प्रयाग स्वयं में वेणीमाधव है |वेणी ,अर्थात अन्यान्य संप्रदाय, माधव -प्रेम में पिरोये हुए |प्रयाग का त्रिवेणी तट उस अमृतत्व का साक्षी है जो परस्पर विरोधी  मत मतान्तरों के मंथन से उत्पन्न हुआ | इसी अमृतमयी संस्कृति से नियंत्रित कर्म और मान्यताएं ही व्यक्ति समाज और राष्ट्र को धारण करती है |यही धारण शक्ति धर्म बन जाता है |सांस्कृतिक चेतना के कुंठित होने पर जब धर्म ग्लानिग्रस्त होता है तो व्यक्ति समाज और राष्ट्र संशय और संभ्रम से उत्पन्न अन्यान्य व्याधियों के दंश को झेलता है |

प्रयागराज

 प्रयाग जनपद की सांस्कृतिक चेतना इसके भौगोलिक स्थिति से भी जुड़ाहै नदियाँ ,पर्वत तथा वन प्रयाग जनपद के स्थाई भाव युगों से रहे हैं | कौशाम्बी जनपद बनने से पूर्व प्रयागराज जनपद चार भागों में बंटताथा |एक -गंगा नदी के उत्तर का क्षेत्र ,दूसरा –गंगा यमुना के बीच का द्वाबा क्षेत्र जो अब कौशाम्बी है |तीसरा यमुना नदी के पूर्व का भाग जिसे यमुनापार कहा जाता है |

       यमुनापार को तमसा –टोंस नदी दो भागों में बाँट देती है ,एक तमसा नदी के पश्चिम और यमुना नदी के पूर्व का क्षेत्र तथा दूसरा तमसा नदी के पूर्व तथा विन्ध्य के दक्षिण पूर्व का पर्वतीय और अरण्य क्षेत्र् |गंगा यमुना नदी की प्रतिष्ठा के साथ साथ यमुना पार की  तमसा -टोंस नदी की भी पौराणिक प्रतिष्ठा है जिसके तट पर महर्षि वाल्मीकि ने आदि महाकाव्य –रामायण की रचना की और जिनके निर्देश पर राम ,सीता और लक्ष्मण के साथ अपने वनवास अवधि का अधिकांश काल चित्रकूट में बिताया  तथा वनवासी सीता ने जिस तमसा तट पर रघुकुल के लव -कुश को जन्म दिया |वाल्मीकि आश्रम के रूप में विद्वानों द्वारा कई स्थानों को मान्य किया जाता है |भदोही जनपद में जंगीगंज धन्तुलासी मार्ग पर गंगा के किनारे स्थित सीतामढ़ीको वाल्मीकि आश्रम माना जाता है | रामायणकालीन युग में सीतामढ़ी तमसा तट पर हो सकता है स्थित रहा हो जो तमसा आज सीतामढ़ी से बीस किमी दूर सिरसा के समीप गंगा से मिलती है |कई विद्वान वाल्मीकि आश्रम सिरसा के समीप ही मानते हैं |करछना तहसील में भी किसी स्थान को वाल्मीकि आश्रम कहा जाता है |चित्रकूट के समीप भी एक वाल्मीकि आश्रम का उल्लेख मिलता है |

          वाल्मीकि आश्रम के स्थान निर्धारण में  कतिपय तथ्यों पर ध्यान देना आवश्यक है –आज से पांच हजार वर्ष गंगा ,यमुना ,तमसा जैसी नदियों के प्रवाह का मार्ग आज के प्रवाह मार्ग से बहुत भिन्न रहा होगा |इन नदियों के मार्ग परिवर्तन का भौगोलिक अध्ययन बहुत आवश्यक है |गंगा की धारा धीरे धीरे पश्चिम दक्षिण से पूर्व उत्तर की और परिवर्तित हुई है ,यमुना की धारा दक्षिण पूर्व से पश्चिम उत्तर की और विचलित हुई ,तमसा की धारा दक्षिण पूर्व से पश्चिम उत्तर की और परवर्तित करती प्रतीत होती है |

        कालिदास के रघुवंश के अनुसार निर्वासित सीता को लेकर गंगा पारकर के तमसा तटपर वाल्मीकि आश्रम पहुंचते हैं |वाल्मीकि रामायण में भी उल्लेख है की वाल्मीकि आश्रम गंगा तमसा के संगम पर स्थित नहीं था वरन गंगा वहां से थोड़ी दूर पर थी |वाल्मीकि अपने युग के प्रसिद्द ऋषियों में से रहे हैं महर्षि भारद्वाज जैसे कुलगुरु कुलपति उनके शिष्य रहे |वस्तुतः वाल्मीकि आश्रम गुरुकुलों का गुरुकुल था |निश्चित रूप से अयोध्या ,काशी जैसे राज्यों की राजधानी से वाल्मीकि आश्रम तक पहुँचने के सुगम  मार्ग होते रहे होंगे |कालिदास के रघुवंश से ज्ञात होता है की राजा कुश की राजधानी कुशावती से अयोध्या तक जाने का मार्ग यमुनापार के क्षेत्र से ही होकर जाता है |वाल्मीकि आश्रम के स्थान निर्धारण में यह भी ध्यान रखना होगा की वाल्मीकि आश्रम निश्चित रूप से चित्रकूट के समीप रहा होगा |

         राम वनवास और राक्षस संस्कृति के उन्मूलन के अभियान में चित्रकूट की महत्वपूर्ण भूमिका रही है |जन धारणा है की राम के वनवास का ग्यारह वर्ष चित्रकूट में ही बीता |इन ग्यारह वर्षों में राम नेविश्वामित्र ,अत्रि , वाल्मीकि और भारद्वाज जैसे ऋषियों से विचार विमर्श करते हुए –सामान्य जनों के साथ मानवेतर आरण्यक जनजातियों को संगठित किया .,उत्तर से दक्षिण तक को राक्षसी शक्ति के विरुद्ध एक जुट किया |मानवेतर संस्कृतियों को मानव संस्कृति में विलीन किया तथा ऋषि संस्कृति को प्रतिष्ठित किया |—क्रमशः 

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