अथ योग शिक्षक व्यथा कथा : तमाम उपायों के बाद भी योग विद्या अभिशप्त क्यों है?

अंर्तराष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष

 

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अनुपम तिवारी, लखनऊ 

आज अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस है. इस बार यह इसलिए भी खास है कि कोरोना के इस काल मे हर जगह इम्युनिटी बढ़ाने के उपायों को खोजा जा रहा है और यह बात प्रमाणित है कि योग, शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में बहुत सहायक है. हालाँकि कोरोना के चलते देश भर के योग केंद्र बंद पड़े हैं, फिर भी टेलीविजन व ऑनलाइन माध्यमों से योग शिक्षा की बाढ़ सी आयी हुई है. परन्तु वास्तव में वर्षों से सरकारी उपेक्षा का दंश झेल रही यह विद्या तमाम उपायों के बाद भी अभिशप्त ही है और इससे जुड़े हुए लोग खुश नहीं हैं. तालाबंदी के तीन महीनों ने इनका जीवन तहस नहस कर दिया है.

उदहारण के तौर पर महाराष्ट्र के योग शिक्षक पंकज खजबजे कहते हैं कि “एक आम समझ है कि योग, फिटनेस इंडस्ट्री का ही एक भाग है. कोविड-19 के चलते आज ‘जिम’ के साथ-साथ योग केंद्र भी बंद हैं. हालाँकि दोनों में मूलभूत अंतर है. योग क्रियाओं में सोशल दूरी आराम से बनी रहती है. जिम की भांति एक ही उपकरण से कई लोग अभ्यास नहीं करते, यह वायरस के फैलाव को किसी तरह बढ़ावा नहीं देगा. सरकार को यह चीज समझ भी तो आनी चाहिए.  जो शिक्षक अपनी जीविका के लिए इन्ही केंद्रों पर आश्रित हैं, उनको किस बात की सज़ा दी जा रही है?” 

योग का व्यवसायीकरण 

यह कहना गलत न होगा कि पिछले कई वर्षों से योग के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है. इसका व्यवसायीकरण भी जबरदस्त तरीके से हुआ है. हालांकि पूंजीवाद के कुप्रभाव योग के विषय मे भी जल्दी ही दिखने लग गए.  परंपरागत योग शिक्षा में विश्वास करने वाले शिक्षक इस पश्चिमी करण से आहत हैं. पश्चिमीकरण, योग को उसकी मूल भावना से दूर कर रहा है. यह बहुत खर्चीला हो चुका है जबकि योग हर व्यक्ति को सहजता से उपलब्ध होना चाहिए. 

माना जाता है कि योग दुनिया भर में 1 बिलियन डॉलर की इंडस्ट्री बन चुका है. इसका  इस तरह से व्यवसायीकरण किया गया है कि योगा मैट, योगा प्रॉप्स, योगा ट्रैक्स से लेकर आयुर्वेदिक दवाओं  जैसे उत्पाद भी योग के नाम पर धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं. परंतु दुखद पहलू यह है कि यह भी कुछ हाथों तक ही सीमित है. यदि आपके पास पैसे हैं तो आप तथाकथित योगाचार्यों के आलीशान आश्रम की सदस्यता लीजिए, वहां एक मोटी रकम की एवज में आपको आपकी हैसियत के अनुसार योग की शिक्षा दी जाएगी. मध्यमवर्गीय लोग टीवी या मोबाइल पर उनके वीडियो देख देख खुद ही योग में पारंगत हो जाने का भ्रम पाल लेते हैं.  कुछ व्यायाम करवा कर धीरे धीरे वह अपने असली खेल को सामने लाते हैं और तमाम तरह के उत्पाद बेचना शुरू कर देते हैं, जिनकी उपयोगिता तब तक दर्शक के मन मे अच्छी तरह बैठा दी गयी होती है.

प्रधानमंत्री की पहल के बाद भी योग की स्थिति दयनीय

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहल करके योग को वैश्विक मान्यता दिलाई. और 21 जून का दिन पूरे विश्व मे योग को समर्पित कर दिया गया. होना तो यह चाहिए था कि अब तक इस पहल के अच्छे परिणाम दिखने लग जाते, परन्तु असल में  21 जून का महत्व सिर्फ योग के पोज़ में फ़ोटो खिंचवाने और फ़र्ज़ अदायगी से ज्यादा कुछ न हो पाया. हम साल में एक दिन उत्सव की तरह योग करते हैं, फोटो खिचवा कर सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं और अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं. 

विभिन्न लोगों के लिए योग के अलग अलग मतलब हैं. किसी के लिए यह अध्यात्म का मार्ग है, किसी के लिए शौक तो किसी के लिए पेट पालने का ज़रिया. बहुत से विद्यार्थी योग को सिर्फ इसी तीसरे कारण के लिए चुनते हैं. योग शिक्षक बन, वह अपनी और परिवार की जरूरतों को पूरा करने का सपना देखते हैं परंतु धरातल पर हकीकत भयावह दिखती है.

शिक्षा के रूप में योग की दिक्कतें 

दिल्ली के योगाचार्य प्रणव का मानना है कि ज्यादातर विद्यालय योग को शारीरिक शिक्षा के साथ मिला कर गड्डमड्ड कर देते हैं. चूंकि योग के लिए न अलग से विभाग है और न ही शिक्षक, व्यायाम शिक्षक (पीटीआई) को ही योग सिखाने का जिम्मा दे दिया जाता है. इससे स्कूल मैनेजमेंट को एक बड़ा फायदा ये होता है कि योग के लिए अलग से एक शिक्षक नही रखना पड़ता. पैसे की बचत होती है. योग को सिर्फ एरोबिक्स बना कर पीटीआई शिक्षक से उसकी पढ़ाई करवाना बच्चों के साथ छल है. क्योंकि योग अपने आप मे सिर्फ व्यायाम न हो कर, अध्यात्म, इतिहास, मनोविज्ञान, पर्यावरण विज्ञान आदि का संयुक्त उपक्रम है.

प्रणव के बयान से स्पष्ट है कि लोग तो जागरूक हुए हैं, किन्तु जिन पर योग सिखाने की जिम्मेदारी थी, वही खुद को सिस्टम से पीड़ित बता रहे हैं. एक व्यवहारिक विषय के रूप में योग की पढ़ाई अब तक फलदायी साबित नही हो पाई है. मास्टर्स और शोध का हाल और भी बुरा है. हमारे विश्वविद्यालय न शोध की सामग्री देने में समर्थ हैं, न दिशा और न ही वातावरण.

योग के कोर्सों में व्यवहारिकता की कमी 

योग के पाठ्यक्रम और डिग्रियों में  एकरूपता का अभाव है. नियम प्रायः अतार्किक हैं. सेना में महिलाओं को निजी तौर पर योग सिखाने वाली योगाचार्य अनुपमा तोमर ने योग विषय से एमए की पढ़ाई की है. उनके अनुसार इस डिग्री को हासिल करने में उन्हें कुल 21 विषय, योग के अंतर्गत पढ़ने पड़े जिनमे अवचेतन मन से लेकर शारीरिक संरचना और वेद उपनिषद आदि भी शामिल थे. अब इतना पढ़ने और योगाचार्य की डिग्री लेने के बाद भी वह कमोबेश वही काम करने को बाध्य हैं जो 12 वी पास करके 100 घंटे का कोर्स कर सर्टिफिकेट पाने वाला करता है. एक ऐसी विधा जो समाज के साथ साथ पूरी प्रकृति के हित में है, शिक्षकों का पेट तक भरने में असमर्थ है. 

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योगाचार्य अनुपमा तोमर

भारत सरकार का आयुष मंत्रालय, योग और उससे संबंधित विषयों के लिए उत्तरदायी बनाया गया था. उसमें भी व्यवहारिक रूप से कई खामियां देखी गयी हैं. बहुचर्चित आयुष्मान भारत योजना के अंतर्गत आयुष हेल्थ एंड वैलनेस सेन्टर (AWHC) की बात भी कही गयी थी. योगाचार्य विश्वा गुप्ता इसकी सार्थकता पर ही प्रश्न चिन्ह लगाते हैं, “किसी भी विधा में पारंगत बारहवीं पास अभ्यर्थी को मात्र 3 माह की योग ट्रेनिंग देकर कैसे आयुष डिस्पेंसरी या उप स्वास्थ्य केंद्र पर योग ट्रेनर/ योग इंस्ट्रक्टर तैनात किया जा सकता है? यह योग के उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों से एमएससी योग/ एमए योग/ पीजी डिप्लोमा योग या अन्य वैधानिक कोर्स कर चुके युवाओं के साथ धोखा  है. जब इस तरह से भर्ती करनी है, तो समस्त विश्वविद्यालयों में चल रहे योग पाठ्यक्रम को बंद कर देना चाहिए कम से युवाओं का भविष्य तो खराब नहीं होगा”.

समाधान कठिन नहीं है 

ब्रिज फाउंडेशन के नाम से निजी तौर पर योग के प्रचार प्रसार में जुटे और साथ ही योग में PHD कर रहे अनुपम कोठारी इन समस्याओं के प्रति सजग हैं. वह तार्किक सुझाव सामने लाते हैं “सरकार को सबसे पहले योग शिक्षकों के रजिस्ट्रेशन की कुछ योजना बनानी पड़ेगी. ठीक वैसे ही जैसे BAMS या MBBS डॉक्टर के लिए होता है. एक डेटा बेस बन जाने से सरकार को हमेशा पता रहेगा कि उनके पास किस दर्जे के कितने योग्य शिक्षक हैं और सुविधानुसार उनकी तैनाती भी की जा सके”

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अनुपम कोठारी, ब्रिज फाउंडेशन

व्यावहारिक रूप से योग, चरित्र निर्माण का एक अच्छा साधन है सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार को कम करने के लिए जिस चरित्र निर्माण की जरूरत होती है उसके लिए योग में पारंगत लोग उपयुक्त साबित होंगे. जरूरत है कि समय और समाज की जरूरत के अनुसार नीतियां बनायीं जाएं. योग प्राथमिक कक्षाओं में अनिवार्य विषय के रूप में लागु हो और उच्च शिक्षा में रिसर्च विंग बनायीं जाएं जिससे पौराणिक विधाओं के साथ आधुनिकता से योग को जोड़ा जा सके. योग वैलनेस सेन्टर में स्नातक/परास्नातक छात्रों को नियुक्त किया जाए जिससे समाज को योग का उचित लाभ मिल सके. सभी हस्पतालों में कम से कम एक योग शिक्षक नियुक्त किये जा सकते हैं, जो बीमारों को उनकी आवश्यकतानुसार मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य लाभ भी करवा सके. योग शिक्षा जब तक रोजगार उन्मुख और समाज परक नहीं होती, योग दिवस महज एक खानापूर्ति ही रहेगा. 

(लेखक भारतीय वायु सेना से सेवानिवृत्त अधिकारी और स्वतंत्र लेखक हैं)

4 Comments

  1. Bahut hi acha lekh hai. Aaj k samay jab Yog ki sasbe adhik jarurat hai sabhi Yog center band hai.
    Yog ka niyam hai yog karte hue pura dhyan khud par hona chahiye lekin online class me ye niyam pura nahi hota. Lekin aaj Yog teacher majbur hai yog k sabse bade niyam ko todne k liye.

  2. Sarkar un bacho ki guhar sune jinhone apna jeevan yog ko samarpit kiya. Jabki is samay kayi Adhunik course he lekin unhone yog ko chuna agar aaj humari baat nahi suni jayegi to yog ki ye virasat Keval upari tor par hi reh jayegi or dharatal par khatam ho jayegi phir vidoso me milege yoga teacher hum khud hi apne talent ko barbad kar rahe he.

  3. OM Ji bilkul sahi bat hai aj is mahamari kal me jab yog ki awashyakta sabse adhik hai fir yog ko awashyak rup se kahi bhi lagu nahi kiya gaya aise me yog shikshako ki problems aur bad gayi hai.
    Yah bahut hi sahi samay hai yog sikshako ki problems ko sabke samne lane ka aur unhe unka uchit sthan dilane ka.
    Jai Hind 🙏🏻🌼🌼🌼

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