अन्नदाता के दुख की अकथ कहानी

—जय प्रकाश पाण्डेय

नहीं हुआ है अभी सवेरा,
नहीं रात की मिटी थकान।
चिड़ियों के जगने से पहले,
खाट छोड़ उठ गया किसान।

राष्ट्रकवि दिनकर ने ग्राम्य सभ्यता वाले भारत के अपराजेय कर्म योद्धा किसान की कठिन दिनचर्या का यशगान उपर्युक्त काव्य पंक्तियों में किया है। खुले आसमान तले खेत की कर्मभूमि में देश के नौ करोड़ किसान परिवारोंमें अपने खून पसीने से आज 28 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पादन का गौरवपूर्ण स्तर हासिल कर लिया है। हमारे हलधरो ने देश को खाद्यान्न के स्तर पर आत्मनिर्भरता तो हरित-क्रांति के दशक में ही प्रदान करा दी थी। आज अधिशेष खाद्यान्न के विशाल भंडारण ने आपदा के समय देश को खाद्य- सुरक्षा का रक्षा कवच भी प्रदान कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी देश के लबालब भरे अन्नागारो के लिए किसानों का आभार जताया। कोरोना त्रासदी में आठ करोड़ प्रवासी मजदूरों को मुफ्त राशन उपलब्ध कराने के लिए सरकार ने आत्मनिर्भर भारत पैकेज के तहत महत्वाकांक्षी योजना शुरू की है। देश को खाद्यान्न सुरक्षा देने वाला किसान आज खुद संकटग्रस्त है। दुख इस बात का है कि किसान अपनी हाड़ तोड़ मेहनत के बावजूद व्यवस्था की विसंगतियों के कारण प्रतिफल से वंचित है। यही कारण है कि बाढ़ और अकाल की हालात में भी नियति के साथ गैर बराबरी की लड़ाई में उत्साह से संघर्षरत रहने वाला किसान आज निराश है। उसके आक्रोश, आंदोलन एवं आत्महत्या जैसे आत्मघाती कदम के लिए व्यवस्था द्वारा सृजित कृषि के लिए प्रतिकूल परिवेश बहुत हद तक जिम्मेदार है। किसान गरीब क्यों है? किसान परिवार में आत्महत्या क्यों? क्या सचमुच हम किसानों की समस्या का सही कारण खोज नहीं पा रहे हैं या खोजना ही नहीं चाहते।

अभिशाप और नियित की टकराहट के मध्य किसान संकट के कारण की सही खोज एवं उसके हल पर सबके अपने-अपने तर्क हैं। उपनिवेशवादी विचारधारा का परंपरागत तर्क है कि बच्चों की शादी ब्याह पर कर्ज लेकर खर्च करना किसानों की बदहाली का कारण है। नव उदारवादी चिंतक खेती की पद्धति में परिवर्तन करने, जैविक खेती पर बल देने, सिंचाई क्षेत्र में विस्तार करने एवं निर्यातोन्मुखी फसलों पर जोर देने का तर्क देते हैं। किसानों को सीधी आर्थिक मदद जैसे-प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि आदि एवं कर्ज योजनाओं के विस्तार की भी चर्चा होती रहती है। इन उदारवादी सुझावों का कार्यान्वयन देश में जहां-जहां हुए हैं, वहां भी किसानों की तुलना में बैंकों, बीमा कंपनियों एवं समृद्ध व्यापारियों को ही अधिक लाभ हुआ है। सीएसआर फंड प्राप्त एनजीओ एवं अपने आपको किसान का बेटा कहने वाले नौकरशाहों और नेताओं ने भी अपने बाप से बेईमानी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। खेती की आधुनिक पद्धति से एक ओर फसल की लागत बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर अच्छी फसल होने पर मांग से अधिक आपूर्ति होने के कारण फसलों के दाम घट जाते हैं। फसल के मौसम में किसान मंडी में 50 पैसे प्रति किग्रा टमाटर बेचता है उपभोक्ता को 25 रूपये किग्रा की दर से प्राप्त होता है। इसलिए किसान द्वारा अपनी फसलों को स्वयं ही खेतों में नष्ट करने की खबरें सुर्खियों में रहती हैं।

वर्तमान में किसान परिवार की मासिक आय 8,931/- रूपये है प्रत्येक परिवार में औसतन 4.9 सदस्य होते हैं अर्थात प्रति सदस्य पर यह आय इकसठ रूपये बैठती है। किसान अपनी कृषि आवश्यकताओं, बच्चों की शिक्षा, इलाज और उनके शादी ब्याह में उधार लेकर कर्ज -जाल में फंसने के लिए अभिशप्त है। कुल किसान आबादी का सत्तर प्रतिशत किसान सीमांत है, जो अपना कर्ज गैर संस्थागत स्रोतों (सूदखोरों से) ऊंची ब्याज दर(25 से 35 प्रतिशत) पर लेता है। आर्थिक तंगी एवं कर्ज के दबाव से किसान आत्महत्या कर रहा है।केवल पिछले दो दशकों में लगभग तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है।आधिकारिक आंकड़ों में प्रति तीस मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है इस तरह प्रतिदिन अपने लगभग 50 किसानोंको यह देश खो रहा है। प्रतिदिन दो हजार पाॅच सौ किसान पुत्र अपने पुरखों के पेशे(खेती) को अलविदा कर रहे हैं। विश्व बैंक ने 1996 एवं2008 में भारत की विशाल ग्रामीण आबादी में से 40 करोड़ को नगरों की ओर खदेड़ने का स्पष्ट निर्देश प्रस्तुत किया था। भारत सरकार भी सर्वोच्च न्यायालय को बाजार में विकृति ना पैदा होने, विश्व व्यापार संगठन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता आदि का बहाना लेकर फसल के उचित दाम देने में असमर्थता जता चुकी है।

उदारवाद के समकालीन दौर में बाजार व्यवस्था खुद प्रतिस्पर्धा के नाम पर बलवान को दुर्बल की लूट के स्वीकृत सिद्धांत पर खड़ी है। किसान इस बाजार में सबके लिए नरम चारा है। एक साथ लगभग पूरे कृषि उपज का बाजार में आना, मांग से अधिक उपज, स्टोरेज का अभाव, कर्ज का दबाव एवं जीविका के लिए धन की आवश्यकता आदि कारणों से किसान बाजार में कमजोर हैंसियत में खड़ा होता है। शांता कुमार संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट 2014 में स्पष्ट किया था कि मात्र 6 प्रतिशत किसान ही अपनी उपज कोसरकारी एजेंसियों में बेचते हैं। शेष 94 प्रतिशत किसान अपनी उपज फसल बाजार में कम दाम पर बेचने के लिए विवश है। इस बाजार व्यवस्था में उदारवाद के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी शामिल हो गई हैं। किसान के संकट की इस घड़ी में भी कंपनियों ने भारी मुनाफा कमाया है जैसे वर्ष 2016-17 में खाद- उत्पादक एवं कीटनाशक उत्पादक शीर्ष तीन कंपनियों ने क्रमशः 37 और 30 प्रतिशत लाभ अर्जित किया है। बीज उत्पादक एवं ट्रैक्टर उत्पादक कंपनियों ने भी इसी तर्ज पर भारी लाभ कमाया।

जब तक सत्ता में बैठे लोग किसान को मनुष्य नहीं सस्ते मजदूर के तौर पर देखते रहेंगे और विश्व बैंक या विश्व व्यापार संगठन के दबाव में किसान विरोधी नीति बनाते रहेंगे,तब तक वह अपने पैर पर खड़ा नहीं हो पाएगा।किसान को स्वावलंबी बनाने के लिए कृषि के साथ-साथ पशुपालन एवं कृषि आधारित कुटीर उद्योगों पर भी बल देना होगा। भारत सरकार ने 1977 में 807 वस्तुओं को लघु एवं कुटीर उद्योग के लिए संरक्षित किया थाजिसे आर्थिक सुधारों के क्रम में पूर्णतः हटा दिया गया।किसानो की आत्मनिर्भरता के लिए उन्हें फिर से आरक्षित करने की आवश्यकता है। कृषि उपज एवं कृषि पर आधारित उद्योगों के समूची आर्थिक प्रक्रिया के स्तर पर सहकारिता को मजबूत करना होगा।संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार घोषणा पत्र 1948में ऐसी पारिश्रमिक की कल्पना की गई है जो कर्मी और उसके परिवार को गरिमा के साथ जीवन जीने का भरोसा दिलाती है, भारत ने भी इस पर हस्ताक्षर किए हैं।इसलिए किसानों को भी काम के बदले न्याय संगत मूल्य का नैसर्गिक अधिकार मिलना चाहिए है।

एम एस स्वामीनाथन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करते समय लागत का डेढ़ गुना मूल्य निर्धारित करना चाहिए। सरकारी दावा है कि इक्कीस प्रमुख फसलों के लिए इस नीति का निर्वाह किया जा रहा है। लेकिन सरकारी लागत में समस्त सहभागियों के श्रम की कीमत, जमीन के संभावित किराए की कीमत और अध्यारोपित निवेश का समावेश नहीं होता।जबकि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों में इनका समावेश किया जाना भी प्रस्तावित था। 2022 तक किसानों की आय को दोगुना किए जाने के लिए जमीन पर ठोस पहल अभी भी अमूर्त है। समस्या नीति निमार्ण के स्तर पर नहीं बल्कि कार्यान्यवन के स्तर पर है। किसानों की समस्याओं के निस्तारण के लिए दृढ राजनीतिक इच्छा-शक्ति प्रदर्शित करनी होगी। किसान के भविष्य की उज्जवलता को समकालीनता से मुठभेड़ करके ही हासिल किया जा सकता है।

(लेखक कृषि एवं लोक संस्कृति के अध्येता है)

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