सर सैय्यद खाँ का सपना पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ता जायेगा!

उमर पीरज़ादा

आज के दौर में अपने अतीत को देखते हैं तो हैरत होती है कि जो बातें आज के आधुनिक युग में भी समझ से परे लगती हैं वह एक-डेढ़ सदी पूर्व के लोगों ने कैसे समझ ली और और उसके अनुसार काम करके आने वाली नस्लों और युग को लाभान्वित करते रहने का पूर्ण बन्दोबस्त किया। इसी कड़ी में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और उसके संस्थापक सर सैय्यद अहमद खाँ सर्वोपरि नज़र आते हैं। जिन्होंने इंकलाब 1857 (हालांकि उसे भी अंगे्रज़ों गद्दारी बताते हुए गदर 1857 के नाम से चर्चित किया) को भी देखा और उसमें हुए कौम व मुल्क के नुकसान को भी। साथ आने वाले नस्लों पर उसके नकारात्मक प्रभाव को भी भलि भांति महसूस कर लिया। उच्च शिक्षा प्राप्त सर सैय्यद ने अंग्रेज सरकार में जज के पद पर सेवा रहते हुए देश वासियों की सेवा की। लेकिन उसका दायरा बहुत सीमित था। सर सैय्यद के दिल व दिमाग मे तो इससे बहुत आगे की सोच थी कि किस तरह अपने कौम और देश को इन अंगे्रज़ों की गुलामी से आज़ाद कराया जाए। कैसे उनसे मुकाबला किया जाए। मुकाबले के लिए कैसे मुकाबला करने वालों को कैसे तैयार किया जाए। इसके लिए उनकी निगाह शिक्षा पर टिकी रही। शिक्षा में प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा, और पारम्परिक से लेकर आधुनिक शिक्षा पर उनका पूरा जोर रहा। यूं तो देश भर में मदरसे, मकतब, प्राइमरी, माध्यमिक स्कूल थे। कुछ विश्वविद्यालय भी थे। लेकिन जरूरत से उससे भी आगे की थी। इसके लिए सर सैय्यद ने पहले गाज़ीपुर और मुर्शिदाबाद में मदरसे शुरू किए। फिर उन्होंने भविष्य की योजनाओं पर अमल करते हुए अलीगढ़ में मोहम्डन-एंग्लो ओरियन्टल कालेज (एमएओ कालेज) की स्थापना की। जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना और एएमयू के नाम से मशहूर हुआ।

एएमयू की स्थापना का उद्देश्य सिर्फ क़ौम के नौनिहालों को आधुनिक शिक्षा से परिचित कराके उनके भविष्श को रोशन बनाना ही नहीं था बल्कि उसके पीछे हिन्दुस्तान को अंगे्रज़ों की गुलामी से आज़ाद कराने का नेक मक़सद भी छिपा था। हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए अंग्रेज़ों से लोहा लेने और उनकी साज़िशों को समझने के लिए उनकी ज़बान को समझना भी बहुत ज़रूरी था। इस मक़सद के लिए शिक्षा की नई शमां रोशन करने वाले बुज़ुर्ग, क़ौमी व समाजी लीडर, स्वतंत्रता सेनानी, इतिहासकार, साहित्यकार, पत्रकार और इंसान को समझने व परखने का कुदरती गुण रखने वाले सर सैय्यद अहमद खां ने एक सदी पूर्व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की बुनियाद रखी थी। एक छोटे से मदरसे से शुरू होकर न सिर्फ मुल्क बल्कि पूरी दुनिया का मशहूर विश्वविद्यालय बनने तक अलीगढ़ स्वतंत्रता आंदोलन से भी जुड़ा रहा। मुस्लिम विश्वविद्यालय ने बड़ी संख्या में स्वतंत्रता सेनानी देश को दिए। मशहूर समाज सुधारक सर सैय्यद अहमद खां को आधुनिक शैक्षिक संस्था खोलने में तरह-तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा। जनता की टिप्पणियां ने सुनना पड़ी। विरोध करने और हौसलों के तोड़ने वालों का सामना हुआ। मगर सर सैय्यद ने क़ौम और देश की तरक्की व रोशन भविष्य के वलिए अपने सिर को झुकाना मंज़ूर कर लिया। हर रोड़े को हंस कर हटाया। यहां तक कि जब वह संस्था के लिए चंदा मांगने निकले तो लोगों ने हार-फूल के बजाए जूते पेश किए। फिर भी वह मायूस नहीं हुए। उन्होंने उन जूतों का भी स्वागत किया और उन्हें बेच कर उस रक़म को संस्था के खर्च में लगाया।

सर सैय्यद का मानना था कि उस समय दुनिया का इतिहास , भूगौल, सांस्कृति और सभ्यता सभी कुछ अंगे्रज़ी ज़बान में मौजूद है। इस लिए उसे समझना और पर पकड़ मज़बूत करना ज़रूरी है। हमें उस वक्त तक अंगे्रज़ों से मुकाबले में कामयाबी नहीं मिलेगी जब तक हमें अपने आपको मज़लूम साबित करने, अपनी बात कहने और उसे मनवाने का मौकाा नहीं मिलता, और यह उस वक्त तक मुमकिन नहीं जब तक हम उनकी ज़बान यानी अंगे्रज़ी व अन्य आधुनिक ज्ञान को न समझें। यह ख्याल भी सर सैय्यद को इंग्लैण्ड का दौरा करने के बाद आया था। हालांकि उस मिशन का जनता ने गलत मतलब निकाला। जनता ने इस शैक्षिक संस्था को अंगे्रज़ों के इशारे पर स्थापित की जाने वाली संस्था समझा जिसका काम सिर्फ अंगे्रज़ सरकार के वफादारों की एक पढ़ी-लिखी और प्रशिक्षित टीम तैयार करना था। इसी बुनियाद पर अवाम ने सर सैय्यद के इस मिशन का विरोध किया लेकिन सच्चाई इसके विपरीत थी।

सर सैय्यद का मानना था कि जो क़ौम अपने बुज़ुर्गों के कारनामों और कुर्बानियों को भुला देती है वह बड़ी बदनसीब है। इसके लिए हमें अपने बुज़ुर्गों की कुर्बानी व सेवाओं को याद करके उसी के अनुसार कदम आगे बढ़ाना चाहिए। सर सैय्यद हमेशा हिन्दू-मुसलमानों की एकता के समर्थक रहे। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के महत्व और देश की तरक्की के लिए उसे आवश्यक बताते हुए कहा था कि हमारा देश भारत एक खूबसूरत दुल्हन की तरह है और हिन्दू-मुसलमान उसकी दो खूबसूरत आंखें हैं। अगर इसकी एक आंख बिगाड़ दी जाए तो दुल्हन कानी कहलाएगी, फिर क्या कोई कानी दुल्हन को पंसद करेगा।

सर सैय्यद को जैसे आने वाले समय का अंदाज़ा लग गया था, उन्होंने समझ लिया था कि अंगे्रज़ों से मुकाबला करने के लिए बल से ज्यादा अक्ल से काम लेना चाहिए। क़ौम को हर उस मैदान में आगे बढ़ाया जाए जहां अंगे्रज़ कब्ज़ा जमाए बैठे हैं। इसके लिए ज़रूरी है कि आज के नौनिहालों और कल के लीडरों को शिक्षा के मैदान में आगे बढ़ाया जाए, क्योंकि शिक्षा हासिल करके ही इंसान किसी भी मैदान में दूसरों के मुकाबले में आसानी से अपनी पहचान और पकड़ बना सकता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए सर सैय्यद ने हर विरोध और परेशानी को हँस कर बर्दाश्त किया। आज वही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय है जहां से शिक्षा पूरी करके निकलने वाले लाखों डाक्टर्स, इंजीनियर, वकील, अधिकारी, वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ, प्रोफेसर और बुद्धिजीवि न सिर्फ देश में कामयाबी की मंजिलों का छू रहे हैं बल्कि विदेशों में भी हिन्दुस्तान का नाम रोशन कर रहे हैं।

शायद ही कोई ऐसा देश हो जहां अलीगढ़ के पूर्व छात्रा अपनी सेवाएं न दे रहे हों। स्वतंत्रता आंदोलन को भी बड़ी संख्या में सेनानी अलीगढ़ ने दिए। जंगे आज़ादी के महान सिपाही मौलाना मुहम्मद अली जौहर, पूर्व राष्ट्रपति डाक्टर ज़ाकिर हुसैन, सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान, डाक्टर ज़फर अली, जलियानवाला बाग विरोध रैली के हीरो डाक्टर सैफउद्दीन किचलू, पूर्व केन्द्रीय मंत्री रफी अहमद किदवई, सैय्यद महमूद, लियाकत अली, चौधरी खलीकुज़्ज़मा आदि प्रसिद्ध सेनानी भी अलीगढ़ आंदोलन से जुड़े रहे। स्वतंत्रता आंदोलन की शमां को रोशन रखने वाले महान सुपूतों में से ये कुछ नाम हैं इनमें से भी अधिकतर को आज भुला दिया गया है।

सर सैय्यद ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की बुनियाद 1875  में मदरसातुल उलूम के तौर पर रखी थी और 2 वर्ष बाद यह मदरसा आधुनिक शिक्षा के केन्द्र के तौर पर ‘मोमडन एंग्लो ओरियन्टल कालेज’ के रूप में सामने आया। फिर 1920 में उसे मुस्लिम विश्वविद्यालय का दर्जा मिला। इससे पहले सर सैय्यद मुर्शिदाबाद और गाज़ीपुर में भी शैक्षिक संस्थान स्थापित कर चुके थे। अलीगढ़ विश्वविद्यालय से बी0ए की डिग्री हासिल करने वाले पहले छात्र ईश्वरी प्रसाद थे, इस तरह शुरू से ही यह संस्थान सर सैय्यद के मिशन के अनुसार हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल रहा।

अलीगढ़ के इस संस्थान में अंगे्रज़ों की तरफ से कोई रुकावट न पैदा हो इस लिए उन्होंने शुरू से ही अंगे्रज़ विशेषकर आक्सफोर्ड के प्रशिक्षित शिक्षकों भी जोड़़ा। इस तरह दो क़ौमों की सभ्यताओं और ज़बानों के मिलन से एक नई क़ौम ने जन्म लिया। जिसने अंगे्रज़ों को हिन्दुस्तान छोड़ने पर मजबूर कर दिया। याद करें अली बिरादरान के मौलाना मुहम्मद अली जौहर का लंदन में हुई गोल मेज़ कांफ्रेंस का वह भाषण ‘‘ या तो हमें पूरी तरह आज़ादी दो या फिर कब्र के लिए दो गज़ ज़मीन, अब हम गुलाम भारत में वापस नहीं जाएंगे’’ इस भाषण ने आज़ादी के मतवालों में एक नई जान पैदा कर दी।

सर सैय्यद सिर्फ एक नेता, इतिहासकार, साहित्यकार ही नहीं बल्कि क़ौम के एक ऐसे लीडर थे जिनसे अंगे्रज़ भी बहुत प्रभावित हुए। अक्सर अंगे्रज़ उन्हें बड़ी इज़्जत व सम्मान से याद करते थे। अंगे्रज़ प्रोफेसर आर्नाल्ड के मुताबिक ‘‘इतिहास से मालूम होता है कि दुनिया में बड़े आदमी तो अक्सर गुज़रे हैं लेकिन उनमें बहुत कम ऐसे होंगे जिनमें हैरत कर देने वाले गुण और विशेषताएं हों। सर सैय्यद एक ही समय में इस्लाम के शोध शास्त्री, शिक्षा के पैरोकार, समाज सुधारक, साहित्यकार और राजनीतिज्ञ थे। भारत में ऐसे व्यक्ति की मिसाल कहां मिल सकती है कि न दौलत न ओहदा व पद उसके बाद भी वह क़ौम के हीरो बनकर उभरे। थोर्डर बुक के अनुसार ‘‘सर सैय्यद में यूं तो बहुत सी विशेषताएं थीं लेकिन उनमें सबसे ज्यादा अच्छा उनका व्यवहार था। पूरे इंग्लैण्ड और भारत में ऐसा कोई नहीं मिला जिसने मेरे अंदर अपना सम्मान और इज्ज़त पैदा की हो।’’

गैर मुस्लिम लीडरों की नज़र में भी सर सैय्यद के जैसी मिसाल नहीं मिलती। दादाभाई नोरेजी के अनुसार ‘‘सर सैय्यद पूरी तरह क़ौम परस्त थे। मुझे कई सूत्रों से मालूम हुआ है कि उनका दिल एक क़ौम की हैसियत से पूरे भारत की तरक्की और कामयाबी चाहता है। वह दूरदृष्टि रखने वाले एक देशभक्त और नरमदिल इंसान थे।’’ डाक्टर तारा चन्द्र के अनुसार ‘‘सर सैय्यद हिन्दू-मुस्लिम एकता के पैरोकार थे, उनकी नज़र में, इस एकता की राह में मज़हब कोई रुकावट नहीं था और न ही वह किसी आस्था के विरोधी थे।’’

मौलाना मोहिउद्दीन अबुकलाम आज़ाद के शब्दों में ‘‘ सर सैय्यद और उनके साथियों ने अलीगढ़ में सिर्फ एक कालेज ही नहीं स्थापित किया बल्कि समय की तमाम शैक्षिक व साहित्यिक गतिविधियों का एक तरक्की पसंद क्षेत्र बनाया था। इस का केन्द्र खुद उनका अपना व्यक्तित्व था, जिसके चारों तरफ देश के बेहतरीन दिमाग जमा हो गए थे। हिन्दुस्तान की शायद ही किसी पत्रिका ने मेरे दिमाग को इतना प्रभावित किया हो जितना सर सैय्यद की पत्रिका ‘‘तहज़ीब-उल-अख़लाक’’ ने किया।

अलीगढ़ आंदोलन से मौलाना हसरत मोहानी, राजा महेन्द्र प्रताप सिंह जैसे स्वंतत्रा सेनानी भी जुडे़ रहे। कहने का मतलब यह है कि हर क़ौम और हर धर्म के लोग सर सैय्यद के मिशन से जुड़ते गए और कामयाबी का ज़ीना बनता गया। आज क़ौम उनको याद कर रही है। अगर सही मायनों में सर सैय्यद की याद को उनके मिशन से जोड़ना है तो व्यवहारिक तौर पर शिक्षा के मैदान में आगे बढ़ने पर ज़ोर दिया जाए। इससे न सिर्फ आज की नस्ल बल्कि आने वाली नस्ल को भी फायदा होगा।

आज अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का शताब्ती वर्ष मनाया जा रहा है। यहां यह बताना भी बहुत आवश्यक है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का भी एएमयू से अटूट रिश्ता बन गया था। चूंकि राष्ट्रपिता भी सर सैय्यद के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहे थे अतः जब उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का दौरा किया और वहां छात्रों का सम्बोधित किया तो वहां के छात्रों ने स्वयं ही गांधी जी को पूर्व छात्रों (ओल्ड ब्वाएज़) की श्रेणी में आजीवन सदस्य बना लिया। यह रिश्ता आज भी कायम है और अलीगढ़ के पास आउट सर सैय्यद अहमद खाँ और बापू के सपनों का साकार करने में लगे है। वास्तव में सर सैय्यद का एक मकसद देश की आज़ादी का तो पूरा हो गया लेकिन आने वाली पीढ़ियों को उच्च शिक्षा से अंगीकृत करने का सपना चलता रहेगा। हर मौजूदा पीढ़ी की ज़िम्मेदारी है कि वह अपने बाद आने वाली पीढ़ी की शिक्षा के कार्यरत रहे।

विश्वविद्यालय के शताब्दी वर्ष में मौजूदा कुलपति प्रो. तारिक मन्सूर भी इसी में व्यस्त हैं और विश्वविद्यालय में नई तकनीक और आवश्यकताओं के अनुसार बंदोबस्त में लगे हुए हैं। विश्वविद्यालय में नए विभागों के साथ साथ सरकार की मन्शा के अनुरूप प्रशिक्षा और कौशल को संवारने निखारने, पर्यावरण को स्वच्छ बनाए रखने, युवा शक्ति को देश व समाज के लिए उपयोगी बनाने, खेल-कूद को बढ़ावा देने, उन्हें किताबी शिक्षा के साथ-साथ व्यवहारिक और समाजिक शिक्षा से भी जोड़ने का काम कर रहे हैं।

(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जनसंपर्क अधिकारी हैं।)

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