कोरोना महामारी में आयुर्वेद का पूरा उपयोग क्यों नहीं किया जा रहा है!

कोरोना महामारी में आयुर्वेद का पूरा उपयोग क्यों नहीं किया जा रहा है! कोरोनावायरस से उत्पन्न कोविड 19 महामारी में लोगों की प्राण रक्षा के लिए देश भर में अनेक संस्थान और सैकड़ों आयुर्वेद चिकित्सक अपने स्तर पर बड़ी निष्ठा से सेवा कर कर रहे हैं. इनके पास महामारियों से निबटने के लिए भारत की सदियों से संजोई हुई धरोहर और संचित ज्ञान है, जिसे सरकार और उच्च मध्यम वर्ग महत्व नही दे रहा है. इनमें एक प्रमुख वैद्य हैं चित्रकूट के डा मदन गोपाल वाजपेयी. मीडिया स्वराज़ के अनुरोध पर डा वाजपेयी ने आयुर्वेद के सिद्धांत और अपने अनुभव पर यह लेख लिखा है.

डा मदन गोपाल वाजपेयी

कोरोना वायरस के भयानक संक्रमण काल में एक बार फिर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान (एलोपैथी) की विवशता दुनिया के सामने आ गयी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) ने भी (Quarantine) यानी संगरोध के कड़ाई से पालन का उपाय स्वीकार किया जिसे भारतीय चिकित्सा विज्ञान आयुर्वेद के ऋषि चरक ने जनपदोध्वंस और संक्रमण फैलाने के दौरान जोरदार ढंग से उपदिष्ट किया है। इतिहास, आंकलन और प्रमाण साक्षी है चाहे एवियन इंफ्लूएंजा हो या चिकन पॉक्स, स्मॉल पॉक्स, स्वाइन फ्लू हो या वर्ड फ्लू या डेंगू, प्लेग या सार्स ऐसी जनपदध्वांसिक किसी भी बीमारी का आधुनिक चिकित्सा विज्ञान सफलता पूर्वक निरोध नहीं कर पाया।

आज जब एलोपैथी हर जगह विफल है और प्रधानमंत्री श्री मोदी जी स्वयं कहते हैं कि मैं आयुर्वेद योग का भरपूर उपयोग करता हूँ, इसी से मेरी गाड़ी चलती है तो फिर कोरोना संक्रमण की चिकित्सा में आयुर्वेद का भरपूर उपयोग करने का अवसर क्यों नहीं उपलब्ध कराया जा रहा है।भारत के प्रधानमंत्री जी डब्ल्यूएचओ के दबाव में क्यों हैं जबकि वे प्रारम्भ से ही आयुर्वेद के हिमायती हैं।

एलोपैथ की भूमिका अब तो और सन्दिग्ध हो गयी जब से कोरोना लहर आयी तब से इन बड़े-बड़े कार्पोरेट अंग्रेजी हॉस्पिटल्स में बाईपास सर्जरी, स्टेंट (एंजियोप्लास्टी), डायलेसिस, ब्रेन स्ट्रोक और आईसीयू में रखने की संख्या नगण्य हो गयी, ऐसा क्यों? बाईपास सर्जरी, स्टेंट, रीढ़ के ऑपरेशन, पेट के ऑपरेशनों में तो एकदम ताला लग गया है। क्या हो गया, कहाँ गये हार्ट, न्यूरो-स्पाइन के मरीज। हर ‘मुक्ति धाम’ में पहुँचने वाले शवों की संख्या में भारी गिरावट आयी क्यों? भारत की जनसंख्या तो उतनी है पर लॉक डाउन और कोरोना के भय ने इन अंग्रेजी अस्पतालों और डॉक्टरों को ऑपरेशन से क्यों विरत कर दिया? सर्दी, खाँसी, सामान्य बीमारी को भी गंभीर बनाकर आईसीयू में डालने की स्थिति को अब क्या हो गया?

कोविड-19 एक आगन्तुक ज्वर

आचार्य चरक ने ज्वरों के भेदों का वर्णन करते हुए आगन्तुक ज्वर के अन्तर्गत अभिषंगज ज्वर का उल्लेख किया है। यह ज्वर तब उत्पन्न होता है जब मानव मानसिक/आध्यात्मिक और दैहिक पवित्रता की उपेक्षा कर ‘प्रज्ञापराध’ करने लगता है। परिणामत: उसमें रोगाक्रान्ति होने लगती है अथवा वह भूतों (कीटाणु, जीवाणु, विषाणुओं) से संक्रमित हो जाता है।

कामशोकभयक्रोधैरभिषिक्तस्य यो ज्वर:।

सोऽभिषङ्गाज्ज्वरो ज्ञेयो यश्च भूताभिषङ्गज:।।

च.चि. 3/114-15।।

कोविड-19 की उत्पत्ति यहीं से शुरू होती है। कुछ देशवासियों ने शील, शौच, आचार और अहिंसा की अनदेखी कर अनेक जीवों को अपना आहार बनाया, उन जीवों के विषाणु कोविड-19 उन लोगों में प्रविष्ट हुये फिर जो-जो लोग इन संक्रमित लोगों के सम्पर्क में आये, वे भी संक्रमित हुए। इस प्रकार संक्रमण बढ़ता गया।

‘संक्रमण’ का सिद्धान्त सबसे पहले भारत के चिकित्सा विज्ञान आयुर्वेद ने खोजा था।

महान् शल्य वैज्ञानिक आचार्य सुश्रुत निदान स्थान 5/34 बताते हैं-

प्रसंगाद्गात्रसंस्पर्शान्नि:श्वासात्सहभोजनात्।

सहशय्यासनाच्चापि वस्त्रमाल्यानुलेपनात्।

कुष्ठं ज्वरश्च शोषश्च नेत्राभिष्यन्द एव च।

औपसर्गिकरोगाश्च संक्रामन्ति नरान्नरम्।।

कि चर्मरोग, ज्वर, शोष, नेत्राभिष्यन्द और दूसरे औपसर्गिक रोग (infectious diseases) का संक्रमण एक दूसरे के सम्पर्क में आने से, शरीर को छूने से, साँस के द्वारा, साथ में भोजन करने से, साथ में सोने से, एक-दूसरे के वस्त्र, माला तथा अन्य प्रसाधन सामग्री का उपयोग करने से होता है और ऐसे रोगियों के सम्पर्क में आने वाले अन्य व्यक्ति भी संक्रमित हो जाते हैं।

इस प्रकार, विषाणु/कीटाणु/रोगाणु/जीवाणु, (जिन्हें आयुर्वेद की भाषा में ‘भूत’ कहा जाता है, से जब व्यक्ति संक्रमित होता है, तब यह ‘भूताभिषंग’ ज्वर नाम से जाना जाता है। संक्रमण के पश्चात् शरीर केवातादि दोष प्रकुपित होते हैं फिर रोग लक्षण सामने आते हैं। यह बात चरक इस सूत्र में लिखते हैं-

त्रयो मला:। भूताभिषङ्गात् कुप्यन्ति भूतसामान्यलक्षण:।।

च.चि. 3/115-116।।

अर्थात् जिस प्रकृति के विषाणु/जीवाणु (भूत) आदि से ज्वरादि का संक्रमण होता है वैसे ही लक्षण सामने आते हैं। इससे स्पष्ट है कि संक्रामक व्याधियों का सिद्धान्त आयुर्वेद का ही प्रतिपादन है। सुश्रुत ने भी इस ज्वर को ज्वर के अन्य हेतुओं (etiological factors) में ‘भूताभिशंक्या’ (सु.उ. 39/21) लिखा है।

कोविद-19 की सम्प्राप्ति पर जब हम आयुर्वेदीय दृष्टिकोण से विश्लेषण करते हैं तो रोग का सम्प्राप्ति चक्र इस प्रकार स्पष्ट होता है-

भूताभिषंग (विषाणु/जीवाणु संक्रमण) ळ् त्रिदोष प्रकोप – दोषों का आमाशय में संचय – दोष प्रकोप – प्रकुपित दोषों का रसधातु से संयोग –  इस संयोग का सर्वशरीर में प्रसर – कोष्ठाग्नि का अपने स्थान से बहिर्गमन – आमोत्पत्ति – आम और दोषों का संयोग – सामदोषों द्वारा स्रोतोरोध – स्वेदावरोध – सम्पूर्ण शरीर का उष्ण होना – ज्वरोत्पत्ति बनाम कोविद-19।

इसमें सम्प्राप्ति घटक इस प्रकार बनते हैं- दोष-त्रिदोष, दूष्य-रसधातु और कोष्ठाग्नि, अधिष्ठान-आमाशय पश्चात् सर्वशरीर, स्रोतस्-रसवहस्रोतस्, स्रोतोदुष्टि-संग, स्वभाव-आशुकारी, अग्निदुष्टि-अग्निमांद्य/साध्यासाध्यता- प्रथम, द्वितीय अवस्था में साध्य/अंतिम अवस्था असाध्य।

इस संक्रमण में सम्प्राप्ति के अनुसार ही लक्षण सामने आते हैं- जैसे, वात, पित्त, कफ (त्रिदोष) के कारण ‘‘क्षणे दाहे क्षणे शीते शीतमस्थिसन्धिशिरोरुजा……….।। च.चि.3/103..।।’’ अर्थात् थोड़ी देर में दाह, प्यास, तो थोड़ी देर में जाड़ा लगना, हड्डियों, जोड़ों और सिर में दर्द।

संक्रमण के पश्चात् जैसे-जैसे और जितनी-जितनी रसधातु और कोष्ठाग्नि दूषित होती जाती है वैसे-वैसे रोग के लक्षणों की मात्रात्मक वृद्धि सामने आती जाती है। जैसे आँखों में आँसू और कीचड़ भरना, आँखों की लालिमा आदि।

रसवहस्रोतस् में विकृति आते ही-‘‘अश्रद्धा चारुचिश्चास्यवैरस्यमरसज्ञता। हृल्लासोगौरवं तन्द्रासाङ्गमदो ज्वरस्तम:। पाण्डुत्वं … … …।।’’ च.सू. 28/9-10।। अरुचि (Anorexia), अश्रद्धा, भोजन से अरुचि, मुँह का स्वाद खराब होना, स्वाद का पता न चलना, जी मिचलाना, शरीर में भारीपन, शरीर दर्द, अर्धनिद्रा जैसी अवस्था, खून की कमी, पौरुषहीनता, रोगप्रतिरोधक क्षमता की कमी आदि लक्षण प्रकट होते हैं।

अभी हाल में हुये एक रिसर्च से यह बात सामने आयी है कि कोरोना वायरस से संक्रमित होने पर डायरिया और पाचन तंत्र में तकलीफ होती है। यह रिसर्च 204 मरीजों पर किया गया और अभी हाल में ही अमेरिकन जर्नल ऑफ गैस्ट्रोइंट्रोलॉजी में प्रकाशित हुआ। चीन के वैज्ञानिकों के शोध के अनुसार भी 48.5 फीसदी कोरोना वायरस ग्रस्त रोगी पाचन सम्बन्धी तकलीफ लेकर अस्पताल पहुँचे। 83 प्रतिशत रोगियों को भूख न लगने की शिकायत पायी गयी और २९ प्रतिशत रोगी डायरिया से ग्रस्त पाये गये। पाचन तंत्र की गड़बड़ी, भूख न लगना (अरुचि, अश्रद्धा) जी मिचलाने की बात आयुर्वेद ऋषि च.सू. 28/9-10 में बता ही रहे हैं।

अमेरिका के वैज्ञानिकों ने अपने नए रिसर्च में यह भी पाया है कि कोरोना वायरस के कुछ मरीजों में स्वाद और गन्ध न मिलने की दिक्कत होती है। यह ज्ञान आचार्य चरक ने हजारों वर्ष पूर्व ही दे दिया था जैसा कि ऊपर उल्लिखित है।

इसके बाद अगला चरण (stage) आता है- सस्रावे कलुषे रक्ते निर्भुग्ने चापि लोचने। सस्वनौ सरुजौ कर्णो कण्ठ: शूवैâरिवावृत्त:।। तन्द्रा मोह प्रलापश्च कास: श्वासोऽरुचिभ्रम:। … … … … …।। च.चि. 3/104-105 अर्थात् मूर्च्छा, प्रलाप, खाँसी, श्वास, अरुचि, चक्कर आना और गले में गेंहूँ, जौ आदि का टूण जैसे फँसने की स्थिति बनना। भगवान् धन्वन्तरि अपने छात्र सुश्रुतादि को बताते हैं कि- शेष: प्राणवह विद्धवच्च मरणं तल्लिंगानि च ।।सु.शा. 9/12।। कि रसवहस्रोतस् में खराबी आने पर धातुओं का नष्ट होना और प्राणवहस्रोतस् के वेध होने के समान लक्षण (आक्रोशनविनमनमोहन भ्रमणवेपनानि मरणं वा भवित।। सु.शा 9/112) चिल्लाना, शरीर का झुक जाना, बेहोशी, कम्पन और मृत्यु हो जाती है। 

चूँकि चरक और सुश्रुत दोनों ही प्रतिपादित करते हैं कि रसवहस्रोतों का मूल हृदय और दशधमनियाँ हैं (रसवहानां स्रोतसां हृदयं मूलं दश च धमन्य:। च.वि. 5/7) इसलिए रसवहस्रोतस् के प्रभावित होते ही हृदय और धमनियाँ यानी प्राणवहस्रोतस् की क्रिया प्रभावित होने लगती है। जिससे चरक चि. 3/106. 107 में ‘‘निद्रानाशो हृदि व्यथा। प्रततं कण्ठकूजनम्’’ लिख दिया है।

भारत के चिकित्सा विज्ञान आयुर्वेद में उपरोक्तवत् इतना स्पष्ट, पंक्तिबद्ध, विज्ञानसम्मत लक्षणों का शत-प्रतिशत प्राप्त होना ऐसा सिद्ध हो रहा है कि मानो भारत का आयुर्वेद ऋषि कोविड-19 के लक्षणों का आज ही प्रतिपादन कर रहा हो।

पर दुर्भाग्य भारत का कि जब कोविड-19 के लिए एलोपैथी में एक भी चिकित्सा/इंजेक्शन/प्रमाणित दवाई/टीका उपलब्ध नहीं हैं ऐसे में आयुर्वेद में उपलब्ध और ऋषि प्रणीत चिकित्सा ज्ञान जो कोविड-19 के लक्षणों को स्पष्ट समेटे हो उस समय इसका नाम उस समय की भाषा के अनुसार था। आज जरूरत है कि सरकार को इसका सहयोग लेकर कोविड-19 को हराना चाहिए।

पर दुर्भाग्य भारत का कि जब कोविड-19 के लिए एलोपैथी में एक भी चिकित्सा/इंजेक्शन/प्रमाणित दवाई/टीका उपलब्ध नहीं हैं ऐसे में आयुर्वेद में उपलब्ध और ऋषि प्रणीत चिकित्सा ज्ञान जो कोविड-19 के लक्षणों को स्पष्ट समेटे हो उस समय इसका नाम उस समय की भाषा के अनुसार था। आज जरूरत है कि सरकार को इसका सहयोग लेकर कोविड-19 को हराना चाहिए।

रोगी जब अगले चरण (स्टागे) में पहुँचता है तो उसमें जो लक्षण आते हैं वह ‘अभिसन्यास सन्निपात ज्वर’ हो जाता है-

नात्युष्णशाrतोऽल्पसंज्ञो भ्रान्तप्रेक्षी हतस्वर:।

निर्भुग्नहृदयोभक्तद्वेषी हतप्रभ:।

श्वसन् निपतित: शेते प्रलापोपद्रवयुत:।।

तमभिन्यासमित्याहुर्हतौजसमथापरे।

सन्निपातज्वरं कृच्छ्रमसाध्यमपरे विदु:।।

सु.उ. 39/39-41।।

यानी उस समय अल्पचेतना ही बचती है, रोगी पदार्थों के यथार्थ ज्ञान से रहित हो जाता है, आँखों में आँसू, हृदय स्थान कठोर, भोजन से अरुचि, कान्तिहीन, श्वास में समस्या, गिर-गिर पड़ता है, चिल्लाता है, तब यह अवस्था असाध्य मानी जाती है क्योंकि इस अवस्था में ‘ओज धातु’ नष्ट हो जाती है। तभी सुश्रुत ने इसे ‘हतौजस’ ज्वर कह देते हैं।

ऋतु और ऋतुचर्या

ऋतु और ऋतुचर्या का रोगों की उत्पत्ति और रोग प्रतिरोधक क्षमता की स्थिति में बहुत बड़ा महत्व है। कोविड-19 का प्रसार उस समय हुआ जब ‘वसंत ऋतु’ है। आयुर्वेद ऋषि बताते हैं कि ऋत्वहोरात्रदोषाणां मनश्च बलाबलात्। कालमर्थवाशाच्चैव ज्वरस्तं तं प्रपद्यते।। च.चि. 3/75।। कि ऋतुओं, दिन-रात, वात-पित्त-कफ और मन के विकारी भाव में जाने से ज्वर की स्थितियाँ बनती हैं उस ज्वर का नाम कुछ भी हो सकता है। इन स्थितियों में कोविड-19 के परिप्रेक्ष्य में ऋषि के दो सूत्र ध्यान रखने योग्य हैं-

वसन्ते श्लेष्मणा तस्माज्ज्वर: समुपजायते।

आदानमध्ये तस्यापि वातपित्तं भवदनु।।

च.चि. 3/46-67।।

वसंत ऋतु में स्वभाविक कफज्वर की उत्पत्ति होती है और यह समय आदान काल का मध्य भाग है इसलिए वात तथा पित्त का अनुबन्ध होता ही है जिसके कारण पाचन तंत्र की कमजोरी, खाँसी, थकान, बुखार, शिर दर्द, मानसिक दुर्बलता, दाह, जी मिचलाना, तन्द्रा आदि लक्षण आ जाते हैं।

दूसरा सूत्र यह ध्यान रखना है कि ‘ज्वर’ कोई भी हो पर (केवलं समनस्कं च ज्वराधिष्ठानमुच्यते। शरीरम् …।। च.चि. 3/30।।) वह अपना अधिष्ठान शरीर के साथ मन को अवश्य बनाता है। यह सूत्र चिकित्सा, औषधि चयन और बचाव इन तीनों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

दरअसल इतना गहराई से विचार इसलिए आवश्यक है कि आयुर्वेद ऋषि इस पर जोर देते हैं कि देश, काल, बल एवं दोष-दूष्य को विचार पूर्वक ध्यान में रखकर औषध प्रयोग करने वाला ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न चिकित्सक ही चिकित्सा में सफलता प्राप्त कर सकता है और जीवन को बचाने की क्षमता रखता है।

प्रयोगज्ञानविज्ञानसिद्धिसिद्धा: सुखप्रदा:।

जीविताभिसरास्ते स्युर्वैद्यत्वं तेष्ववस्थितम्।।

च.सू. 11/53।।

जिस चिकित्सक के पास इतना गहन और वैज्ञानिक ज्ञान नहीं है वह अन्धेरे में तीर भले ही मारता रहे पर जीवन को सुरक्षित करने की सामर्थ्य नहीं प्राप्त कर सकता बल्कि रोगी को खराब करता रहता है।

आयुर्वेदिक उपचार

देवव्यापाश्रय चिकित्सा- ज्वर में आयुर्वेद ऋषियों ने देवव्यापाश्रय चिकित्सा को आश्रय लेने पर जोर दिया है। इससे वातावरण में पवित्रता आती है, आत्मबल और मनोबल का संवर्धन होता है, रोगी और उसके परिजनों का मन सतोगुण की ओर प्रवृत्त होता है, बेचैनी, घबराहट, भय का निवारण होता है। रोग प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि होती है।      महान् आयुर्वेद ऋषि चरक स्पष्ट लिखते हैं कि विष्णु सहस्रनाम से ईश्वर की स्तुति सभी प्रकार का ज्वर विनाशक है। (च.चि. 3/311), जप, होम, वेद पाठ श्रवण करने, दान, माता-पिता, गुरु की भक्ति पूर्वक सेवा, ब्रह्मचर्य व्रत धारण, सत्य भाषण, एकांत में तप करने, पंच नियम (भीतर-बाहर से शुद्ध रहना, संतुष्ट/प्रसन्न रहना, शास्त्रों का स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण) का पालन और सज्जनों के ही सम्पर्क में रहना, उनके दर्शन करना ज्वर विनाशक होता है।

¬ युक्तिव्यापाश्रय चिकित्सा-

युक्ति व्यापाश्रयं पुनराहारौषधद्रव्याणां योजना।। च.सू. 11/54।। दोष, देश काल, वय आदि का विचार कर आहार तथा औषधि की उचित योजना करना।

¬ सत्वावजय चिकित्सा- शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अहितकर विषयों से मन का निग्रह करना ‘पुनरहितेभ्योऽर्थेभ्यो मनोनिग्रह:।।’ च.सू. 11/54।।

रोग की चिकित्सा व्यवस्था को 4 चरणों में विभाजित कर सकते हैं।

बचाव (Prevention)

1.    महामारी के प्रसार के  समय बचाव (Prevention) के लिए आयुर्वेद ऋषि चरक बहुत ही वैज्ञानिक रूप में ऐसा आयुरक्षक भेषज (life saving management) का प्रतिपादन करते हैं जो आधुनिक ‘‘quarantine’’ (संगरोध) से कई गुना विस्तृत और वैज्ञानिक है। (च.वि. 3/15-17।। जो इस प्रकार है-

संक्रमण का प्रसार रोकने और संक्रमण के समय आयुरक्षा के लिए मन को पूर्ण सतोगुणी बनाये रखना, जिससे प्राणिमात्र पर दया का भाव बने, अभावग्रस्त लोगों और समाज के अभाव को दूर करना, दिव्यात्माओं और देवताओं का पूजन-सम्मान और सानिध्य सदाचार का पालन, शान्ति और संयम बनाये रखना, आत्म सुरक्षा के उपायों से समझौता न करना, हितकर स्थान पर निवास, ब्रह्मचर्य का पालन और इन नियमों का पालन करने वाले का सानिध्य और समर्थन, सतोगुणयुक्त, सकारात्मक करने वाली वार्त्तायें सुनना, जितेन्द्रिय और ऋषि-महर्षि जैसी आत्माओं से संसर्ग और सत्संग बनाये रखना, धार्मिक, सात्विक और ज्ञानवृद्ध व्यक्तियों से सम्पर्क रखना चाहिए। यह है प्राचीन भारत के चिकित्सा विज्ञान का Isolation (अलगाव)।

संक्रमण का प्रसार रोकने और संक्रमण के समय आयुरक्षा के लिए मन को पूर्ण सतोगुणी बनाये रखना, जिससे प्राणिमात्र पर दया का भाव बने, अभावग्रस्त लोगों और समाज के अभाव को दूर करना, दिव्यात्माओं और देवताओं का पूजन-सम्मान और सानिध्य सदाचार का पालन, शान्ति और संयम बनाये रखना, आत्म सुरक्षा के उपायों से समझौता न करना, हितकर स्थान पर निवास, ब्रह्मचर्य का पालन और इन नियमों का पालन करने वाले का सानिध्य और समर्थन, सतोगुणयुक्त, सकारात्मक करने वाली वार्त्तायें सुनना, जितेन्द्रिय और ऋषि-महर्षि जैसी आत्माओं से संसर्ग और सत्संग बनाये रखना, धार्मिक, सात्विक और ज्ञानवृद्ध व्यक्तियों से सम्पर्क रखना चाहिए। यह है प्राचीन भारत के चिकित्सा विज्ञान का Isolation (अलगाव)।

आयुर्वेद चिकित्सा का वैशिष्ट्य है कि इसमें चिकित्सा और औषधियों का चयन इस प्रकार किया जाता है ताकि शरीर और मानस इन दोनों प्रकार के दोषों का संतुलन स्थापित हो सके। इसके लिए आहार, विहार, औषध की व्यवस्था हो सके।

2.    बचाव के लिए- कफ, वात, पित्त शामक आहार, स्नेहन, स्वेदन, वासन्तिक वमन।

3. औषधियाँ- षडंगपानीयम् बार-बार।

4. संजीवनी वटी ± सूतशेखर रस ± टंकण भस्म ± रससिन्दूर ± शंख भस्म का मिश्रण का सेवन।

5. दशमूलपंचकोलादि कषाय (सहस्रयोगम्) १५-२० मि.ली. बराबर सुखोष्ण जल मिलाकर रात में सोने के 1 घण्टा पूर्व।      

आयुर्वेद ऋषि चरक का स्पष्ट वचन है-

‘‘तत्र पूर्वरूपदर्शने ज्वरादौ वा हितं लघ्वशनमतर्पणं वा, ज्वरस्यामाशमसमुत्थत्वात् तत: कषायपानाभ्यंग … … … यथास्वं युक्ता प्रयोज्यम्।।

च.नि. 1/36।।

ज्वरो ह्यामशयसमुत्थ: … … … पाचनार्थं च पानीयमुष्णं … … … प्रयच्छन्ति।।

च.वि. 3/40।।

इसलिए ज्वर के पूर्वरूप दिखने पर (संक्रमण का पता चलने पर) अथवा ज्वर के प्रारम्भ होते ही हितकर, शीघ्र पचने वाला, कम मात्रा में भोजन देना चाहिए अथवा उपवास भी कराया जाय। ज्वर की उत्पत्ति का सम्बन्ध आमाशय से होता है अत: सही खान-पान की व्यवस्था कर दोष और प्रकृति के अनुसार औषधि की व्यवस्था करनी चाहिए। पीने के लिए गरम पानी ही देवें इससे दोषों का पाचन होकर रोग से बचाव और निवृत्ति दोनों हो जाती है।

व्यवस्था पत्र विश्लेषण

षंडगपानीयम् एक ऐसा संतुलित औषधकल्प है जो लघु गुण, तिक्त रस, समशीतोष्ण है। इसमें शामिल पित्तपापड़ा और तगर जहाँ मस्तिष्क को बल देते हैं वहीं, विष का निवारण भी करते हैं। अभी एक रिसर्च से यह तथ्य सामने आया है कि कोरोना वायरस के संक्रमण के कारण दिमागी संक्रमण और नर्वस सिस्टम गड़बड़ होता है। हमारा मानना है कि यदि ऐसे रोगियों को षडंगपानीय का प्रारम्भ से ही सेवन कराया जाय तो मस्तिष्क की क्रिया सुरक्षित और स्वस्थ रहेगी। यह उशीर का संयोगी होने से विशेष रूप से मूत्रल होकर अपान वायु को स्वस्थानस्थ करता है। तो चन्दन का संयोग है जिससे यह हृदयरक्षक भी बनता है। षडंगपानीय का समग्र विश्लेषण बताता है कि इसमें सारक गुण भी होता है जिससे यह मल को बाहर करता है।

शुण्ठी का संयोग षडंगपानीयम् को विशेष रूप से शूलनिवारक pain killer) बनाता है, यह कफघ्न भी हैं जिससे बढ़े हुये कफ, आम की निवृत्ति होती है यह अग्नि को दीपन का कार्य विशेष रूप से करता है। यह केवल रोग लक्षण के निवारण तक सीमित रहने वाली औषधि नहीं बल्कि सुगन्धबला, शुण्ठी, चन्दन जैसे द्रव्य इसे बलकारक भी बनाते हैं जिससे सेवनकर्त्ता की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। यह ज्वर के दौरान नेत्रेन्द्रिय की क्रिया को भी कमजोर होने से बचाता है। इस प्रकार यह औषधकल्प इतना संतुलित है कि इसमें प्रोटीन विश्लेषण की क्षमता है जो वायरस के प्रोटीन स्तर को भी तोड़ सकता है। यह श्वसन तंत्र और प्राणवहस्रोतस् को भी निर्दोष और सबल करता है क्योंकि शुण्ठी और उशीर में श्वासहर गुण हैं।

इस प्रकार षडंगपानीय कोविड-19 के सम्पूर्ण लक्षणों को निवारण करने में श्रेष्ठ वानस्पतिक योग है। यदि रोगबल अल्प हो और रोगी में व्याधिक्षमत्व सम्यक् हो तो यह औषधकल्प अकेले कोविड-१९ की सम्पूर्ण औषध सिद्ध हो सकती है, यदि रोग बल अधिक और रोगी की व्याधि क्षमत्व क्षमता अल्प हो ऐसे में यदि रोग, रोगी के अनुसार अन्य औषध योगों का प्रयोग करना है तो षडंगपानीय औषधकल्प श्रेष्ठ अनुपान, सहपान या सहायक औषधि सिद्ध होता है। यह लघु गुण और समशीतोष्ण होने से बढ़े हुये तमस् और रजस् मानस दोषों को घटाता है और सतोगुण को बढ़ाता है। क्योंकि लघु गुण ‘लघु प्रकाशकं विद्धि’ सतोगुण वर्धक है।

यह ध्यान रखने की बात है कि रजस्तमश्चाभिभूय सत्वं भवित…।। गीता 10/10।। अर्थात् रज और तम के पराजित होने पर ही सतोगुण बढ़ता है और सतोगुण बढ़ने पर मन में करुणा का भाव बनने लगता है परिणामत: ज्वर पास नहीं फटकेगा। यही वाग्भट्ट ऋषि का ज्वर से बचाव का सिद्धान्त है। अ.हृ.चि. 1/173।।

¬ संजीवनी वटी और सूतशेखर रस (रौप्ययुक्त) टंकण, रससिन्दूर और शंखभस्म का संयोग ’विस्तृत प्रभावी भूतघ्न’ औषधकल्प बनता है।

संजीवनी वटी (आचार्य शाङ्गधर) अविष्कृत योग है, यह शु. भिलावा, शु. वत्सनाभ जैसे लघु, तीक्ष्ण, व्यवायी, विकासी गुणों से सम्पन्न द्रव्यों का यौगिक है जिसमें त्रिदोषज सन्निपात को मिटाने का सामर्थ्य है। यह गला, श्वासनलिका, फेफड़े, हृदय में शोथ (inflammation) और ज्वर भी हो तो भी अच्छा कार्य करती है।

इसमें त्रिफला, वच, गिलोय, सोंठ, पिप्पली और वायविडंग का ऐसा संयोग है जो इसे अग्निमांद्य, उदर विकार, शूल को समाप्त करने वाला तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में समर्थ बनाता है, यह वात का अनुलोमन करती है, विटामिन सी की पूर्ति करती है।

जब ज्वर या वायरस, बैक्टेरिया का प्रभाव रक्त में होकर मस्तिष्क का कार्य विकृत करने लगता है तब यह मस्तिष्क की विकृतियों को निवृत्त करती है, क्योंकि इसमें ‘वचा’ का भी संयोग है। यदि कहीं दुष्ट कृमि उत्पन्न हों तो संजीवनी वटी उन्हें भी समाप्त कर सम्प्राप्ति विघातन करती है, पसीना, मूत्र का सही प्रवर्तन कर शरीर के विकारों और रोग कारक तत्वों तथा उससे उत्पन्न विष को मल मार्गों से बाहर कर देती है।

श्वसन संस्थान को सबल और स्वस्थ करने में भी यह पीछे नहीं है। इसमें रौप्ययुक्त सूतशेखर रस, टंकण भस्म और शंख भस्म का संयोग करने से यह योग वात, पित्त, कफ के विकारों का आशु निवारक, वातानुलोमक, आंत्रगति रक्षक बनता है। कोविड-१९ के दाह, शीत, खाँसी, उदावर्त, घबराहट, भ्रम, अनिद्रा, मुँह में छाले आ जाना, हिचकी जैसे लक्षण मिट जाते हैं। (र.तं.सा., भा.प्र., भैषज्य रत्नावली, शाङ्गधर संहिता)

दशमूल पंचकोलादि कषाय- कोष्ठस्थ विकृति का निवारण हानिकारक यथा कृमि, आम, विष, परजीवी, कवक आदि को विनष्ट कर देता है। पक्वाशय के निर्विकार रहने से अग्निबल सम्यक् रहता है जिससे व्यक्ति की क्षमता ऐसी हो जाती है कि वह स्वस्थ और दीर्घायु रहता है।

यह औषध योग वात का अनुलोमन कर कफ का शमन कर अग्नि को प्रदीप्त कर व्यक्ति के वात, पित्त, कफ रोग को संतुलित करता जाता है तब व्यक्ति महर्षि चरक के पैरामीटर में आ जाता है कि ‘देहिनं न हि निर्दोषं ज्वरं समुपसेवते।।’ च.चि. 3/121।। दोष रहित शरीर में ज्वर का आक्रमण होता ही नहीं।

द्वितीय चरण कोविड पॉजिटिव- (दोषों का रसधातु के साथ संयोग) समदोषज सन्निपातजज्वर-

¬ दशमूल कटुत्रयी कषायम् (सहस्रयोगम्)

या

Ž पाचनमृत कषायम् (सहस्रयोग)

या

¬ इन्दुकान्त कषायम् (सहस्रयोगम्)

इ लक्ष्मी विलास रस नारदीय, त्रिभुवनकीर्ति रस, महालक्ष्मी विलास रस (स्वर्ण), ब्राह्मी वटी स्वर्ण (र.यो. सागर), महावातविध्वंसन रस, गिलोयसत्व।

इ     योग-१. महावातविध्वंसन रस ± ब्राह्मी वटी स्वर्ण (र. योगसार) ± मुक्ता भस्म  ± सितोपलादि चूर्ण।

२. महालक्ष्मी विलास रस (स्वर्ण) ± लक्ष्मीविलास रस नारदीय ± ब्राह्मी वटी (साधारण) ± सितोपलादि चूर्ण ± समीरपन्नग रस।

३. वृ. कस्तूरीभैरव रस ± समरीपन्नग रस ± गोदन्ती ± मुक्ता भस्म ± सितोपलादि चूर्ण।

४. श्वासकासचिन्तामणि रस ± महावातविध्वंसन रस ± गोदन्ती ± चौंसठप्रहरी पिप्पली ± टंकण भस्म ± मुक्ता भस्म ± तालीसादि चूर्ण।

ये योग ‘प्राणवहस्रोतस्’ को स्वस्थ, सबल और सुरक्षित करते हैं। कारण कोई भी हो पर जब भी श्वासकृच्छ्रता आती है तो उसमें कफ, वात, दोष की प्रधानता तथा आम और अग्निमांद्य ये कारण अवश्य बनते हैं। किन्तु अंग्रेजी चिकित्सा और चिकित्सकों में इस पर ध्यान कभी भी नहीं जाता। आयुर्वेद ऋषि चरक लिखते हैं-

‘कफवातात्मकावेतौ पित्तस्थानसमुद्भवौ।।’

च.चि. 17/8।।

उपर्युक्त में से कोई भी योग ‘प्राणवहस्रोतस्’ को नीरोग और सबल करता है यह स्रोतोरोध निवारक और धातुपोषक है। रसधातु की दुष्टि और अग्निमांद्य को मिटाकर तथा उत्पन्न आम/विष को जला देता है। यह जठराग्नि, धात्वाग्नि और भूताग्नि तीनों को उस स्थिति में ले आता है जहाँ पर ‘विषाणु’ नष्ट हो जाते हैं, रोग की सम्प्राप्ति विघटित हो जाती है।

प्राणवहस्रोतस् की स्वस्थता अग्नि तथा प्राण और अपान वायु के संतुलन पर निर्भर है। उपर्युक्त योग अग्नि, प्राण और अपानवायु के कार्य को निर्दोष करता है, उन्हें सबल और संतुलित करता है।

तीसरा चरण (आत्यायिक अवस्था) कोविड-19 पॉजिटिव- इसमें आत्यायिक चिकित्सा के साथ-साथ तकनीकी सपोर्ट की आवश्यकता होती है।

चिकित्सा व्यवस्था

1. योगेन्द्र रस ± अभ्रकसहस्रपुटी ± मुक्ता भस्म ± तालीसादि चूर्ण।

2. अभ्रगर्भ पोट्टली ± ब्राह्मी वटी (स्वर्ण) र.योग.सा. ± मुक्तापिष्टी ± सितोपलादि चूर्ण।

यदि रोगी कृत्रिम श्वास प्रणाली या अन्य तकनीकी सपोर्ट पर हैतो राइल्स ट्यूब के द्वारा औषधियाँ दी जानी चाहिए।

उपचार के दौरान आहार- प्रथम और द्वितीय चरण के रोगी को आहार की व्यवस्था-

1. पिप्पली और सोंठ डालकर धान के लावा की बनी पेया एक सप्ताह तक देनी चाहिए।

2. यदि रोगी खटाई की चाह करे तो उपर्युक्त पेया में अनार का रस मिलाकर देना चाहिए।

3. यदि ज्वर के साथ पाचन प्रणाली गड़बड़ हो और कभी दस्त तो कभी कब्ज हो तो पृश्निपर्णी, बला, बेल, सोंठ, कमलगट्टा और धनिया का काढ़ा बनाकर फिर उसमें धान का लावा डालकर पेया विधि से निर्माण कर अनार के रस से खट्टी कर पिलाना चाहिए।

4. पिप्पली, आँवला के क्वाथ में बनायी अगहनी चावल और जौ की दलिया डालकर पेया विधि से पकाकर फिर गरम अवस्था में ही ‘इन्दुकान्त घृतम्’ डालकर रोगी को पिलाने से दोषों का अनुलोमन होता है और मलावरोध (constipation) का निवारण होता है।

5. यदि रोगी को पसीना न आता हो और नींद भी न आती हो, प्यास भी बहुत हो तो सोंठ और आँवला के क्वाथ में अगहनी चावल की पेया विधि से पेया बनाकर उसे ‘गोघृत’ में छौंककर चीनी मिलाकर गरम-गरम ही पिलाने से बहुत लाभ होता है। (च.चि. 3/179-184)

उपचार में औषध योग चयन, आहार मात्रा आदि रोग, रोगी की प्रकृति बल और लक्षण पर निर्भर करता है।

अपथ्य- गुरु, अभिष्यन्दी, तैलीय, विबन्धकारक, शोथकारक, शीत आहार और पेय।

मानसिक शान्ति, पूर्ण विश्राम, ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है।

(लेखक बीएएमएस, पीजी इन पंचकर्मा,  विद्यावारिधि (आयुर्वेद), एनडी, साहित्यायुर्वेदरत्न, एमए (संस्कृत) एमए (दर्शन), एलएलबी। संपादक- चिकित्सा पल्लव,  पूर्व उपाध्यक्ष भारतीय चिकित्सा परिषद् उप्र, संस्थापक आयुष ग्राम ट्रस्ट चित्रकूटधाम हैं।)

One Comment

  1. वैद्य जी अत्यंत मेधावी और सहृदय है 🙏🙏।इस सामयिक परामर्श के लिये ह्रदय से आभार।

Leave a Reply

Your email address will not be published.

three × 2 =

Related Articles

Back to top button