आदमी की यात्रा –कोहम से सोऽहं तक – नैसर्गिक नियमों की उपेक्षा से प्रकृति में विक्षोभ

डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज

चंद्रविजय चतुर्वेदी

    कल्पना करिये उस युग के आदमी की जब वह प्रकृति का बड़ा ही अदना सा था चौपाया प्राणी था। उसके आसपास बड़े बड़े खूंखार प्राणी थे ,विशालकाय सरीसृप प्राणियों का राज्य था। विशालकाय पहाड़ थे ,नदियां थी विशालकाय वृक्ष थे। वह आदमी डरा डरा सा अपने अस्तित्व की रक्षा में इधर उधर छिपता फिरता था। कदाचित इन्हीं  स्थितियों में उसके मन में यह सवाल फूटा हो की -मैं कौन हूँ ,कोहम और उसके मन मस्तिष्क में जिज्ञासा की चिंगारियां फूट पड़ी हों। इन चिंगारियों से उसके आगे के दो पाद ऊपर उठकर हाथ बन गए हों। यह आदमी का पहला पूर्वज था जो सीधा खड़ा होने के काबिल बना ,पैरों के बल चल पड़ा और हाथ का उपयोग करना सीखा। यह हाथ हैं जिसने आदमी को आदमी की यात्रा के पथ पर आगे बढ़ाया। 

      क्या विशालकाय डायनासोर के समक्ष अस्तित्व का संकट नहीं खड़ा हुआ था ,जिसका बारह करोड़ वर्ष तक दुनिया में कोई मुकाबला नहीं कर सका था। डायनासोर केवल दलदलो ,झीलों में रहते थे। धरती पर जब बहुत से फेरबदल हुए ,उत्तरी दिशा से दक्षिण की और ठंडी हवायें चली ,गरम देशों के  हरे भरे पेड़ मुरझाकर सूखने लगे ,डायनासोरों का भोजन बंद होने लगा। दलदल और झील सूख गए। जमाने और दुनिया के फेरबदल के साथ न बदल सकने के कारण डायनासोरों का नामोनिशान इस दुनिया के साथ मिट गया। 

        वह विशालकाय प्राणी उसने अपने आप से कदाचित यह नहीं कभी पूछा होगा की –कोहम ,मैं कौन हूँ। उसके मन मस्तिष्क में कभी भी जिज्ञासा के अंकुर नहीं फूटे। वह आराम से लेटकर एक स्थान से ही सैकड़ों पेड़ खाता रहा ,सोता रहा। पर वह अदना सा आदमी अपने से भी पूछता रहा और अपने पडोसी प्रकृति से भी तादात्म्य स्थापित कर निरंतर पूछता रहा –कोहम ,मैं कौन हूँ। प्रकृति ने उसे बताया -तत त्वमसि -तुम वही हो। 

   तत त्वमसि का वरदान पाकर वह अदना प्राणी आदमी की यात्रा में अन्य प्राणियों की अपेक्षा  प्राण प्रधान से मन प्रधान होता गया और उसमे धीरे धीरे साहस ,ललक ,जिज्ञासा , उत्कंठा का बीजारोपण होता रहा। अपने अस्तित्व की रक्षा में इस अदने प्राणी ने दस लाख साल बिताये हैं ,एक डाल से दूसरे डाल पर कूदते हुए , दिनों दिन पंजों के सहारे  डाल पर लटकते हुए ,गुफाओं में रहते हुए। कोहम से तत त्वमसि की यात्रा में उसने कौशल विकसित  किया। अपने ऊपर आक्रमण करते हुए हिंस्र जंतु पर पत्थर से प्रहार किया। उसे अनुभूति हुयी –अग्निमीळे पुरोहितम ,उस आदमी की यात्रा का पुरोहित यह अग्नि ही है। अग्नि से उसके शरीर को चेतना मिली ,भोजन मिला ,प्रकाश मिला। मन बहुआयामी होने की ओर बढ़ा। उसने गाय बकरी पला ,गुफा छोड़कर कुटिया बनाई ,खेती शुरू की, परिवार बना ,समुदाय बना। 

      बहुआयामी मन के साथ प्राण ,बुद्धि के समीकरण से आदमी की चेतना और मस्तिष्क को जो संजीवनी मिलती रही ,उसके अंतस में तत त्वमसि का जो अनहद नाद गूंजता रहा ,उसने आदमी के अंतःकरण के प्रश्नों  का उत्तर देते हुए उससे कहा –सोऽहं ,मैं वही हूँ।  मैं वही हूँ ही ने आदमी को प्रेरित किया प्रकृति के रहस्यों के उद्घाटन के लिए। कोहम से सोऽहं की यात्रा में आदमी पाषाण युग से न्यूक्लियर युग में पहुँच गया ,अदना सा प्राणी खुद को प्राणि जगत ,प्रकृति का शहंशाह समझने लग गया। 

   विचार करें आज कहीं पाषाण युग से न्यूक्लियर युग की यह यात्रा मंद तो नहीं हो रही है। इस साइबर युग में तत त्वमसि और सोऽहं के अनहद नाद की गूंज धीमी तो नहीं हो रही है। जिन दो हाथों ने चतुष्पद से अलग होकर हाथ का उपयोग सीखा कर आदमी को यहाँ तक पहुंचाया। उन्हीं  हाथों पर कोरोना जैसा मरियल तुच्छ अर्द्ध जीव आक्रमण करना चाह रहा है ,और हम बार बार उसे साबुन से धोते जा रहे हैं और हाथों को सेनेटाइज कर रहे हैं। हे आदमी ,सोऽहं तक पहुंचकर भी कोहम को कहीं विस्मृत तो नहीं कर रहा है। यजुर्वेद में कहा गया है –ऋतस्य पथा प्रेत ,अर्थात ऋत जो सत है जो नैसर्गिक नियम है ,जो सृष्टि का नियम है उसका पालन करो। 

      आदमी अपनी यात्रा में नैसर्गिक नियमों की उपेक्षा करके असत सांसारिक नियमों को प्रतिस्थापित करना चाहने लगा जिसकी परिणति हुई प्रकृति में विक्षोभ।  ऋग्वेद में इसके निदान स्वरूप कहा गया है –ऋतस्य धितिर्वृजिनानी हन्ति –अर्थात प्रकृति अथवा सृष्टि के परिज्ञान अथवा अनुकरण से बुराइयां नष्ट हो जाती हैं। 

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