आने वाली पीढ़ियाँ भी तो पीछे मुड़ कर देखेंगी

सवाल मत पूछो

अनुपम तिवारी

अनुपम तिवारी, लखनऊ

मुम्बई के निकट वसई से गोरखपुर के लिए चली श्रमिक स्पेशल ट्रेन आश्चर्यजनक रूप से ओडिशा के राउरकेला पहुँच  जाती है। इस बाबत मीडिया में  खबर चली तो खुद की पीठ ठोंक लेने में महारथ हासिल कर चुका रेलवे, अपने विभाग के मंत्री जी की तरह इस पर भी एक शानदार जवाब ले आया। बताया गया कि यह बहुत सामान्य है, अक्सर जब ट्रैक में ट्रैफिक ज्यादा होता है, हम गाड़ियों को उनके रास्ते से घुमा कर कहीं और से ले के जाते हैं। 

जनता अब सवाल नही करती। नहीं  पूछती कि पिछली बार कब ऐसा हुआ था कि ट्रैफिक की वजह से ट्रेन इधर की उधर चली गयी हो। रास्ते मे किसी दुर्घटना की वजह से मार्ग अवरुद्ध होने पर तो ऐसा लाजमी था, मगर बिना वजह ट्रेनों का अपने मार्ग से घूम जाना कब से सामान्य हो गया? 

जनता नहीं पूछती उसके पीछे कारण है, उसकी दुर्दशा को अनदेखा करते हुए उसी पर सवाल दागा जा सकता है, “मजदूर ट्रेन  में बैठे हैं न, यही पर्याप्त नही है? क्या देश का मजदूर भारत भ्रमण भी नही कर सकता?” तिस पर यदि टेलीविजन के दार्शनिक एंकर जाग गए तो और भी मुसीबत। वह ब्रिटिश राज तक इतिहास में झांक आएंगे और पूछेंगे कि “अब तक जिनका राज था क्या कभी उन्होंने मजदूरों के प्रति ऐसी संवेदना दिखाई कि उनको अनायास भारत भ्रमण करा दिया जाए।”  इससे पहले कि  पाकिस्तान, चीन, उत्तर कोरियाई एंगल ढूंढ लिया जाए, बेहतर यही है कि सवाल न पूछो। कोई फायदा नहीं है।

परंतु सत्ता आपसे सवाल जरूर करेगी। सवाल भी इसलिए क्योंकि उसके पास जवाब नही है। वह इस संक्रमण काल में  खुद के द्वारा लिए गए ऊटपटांग निर्णयों पर आपके प्रश्न ले पाने में सक्षम ही नही है। सवाल भी सिर्फ वही पूछे जाएंगे जो इतिहास से होंगे। नेहरू से लेकर मनमोहन तक पर प्रश्न किये जायेंगे पर वर्तमान और भविष्य 

के लिए प्रश्न आउट ऑफ सिलेबस ही रहेंगे।

मगर क्या कभी सोचा है कि आने वाली पीढियां भी तो पीछे मुड़ कर देखेंगी। उनको क्या दिखेगा? पैदल, सर पर सामान  उठाये, अपनी उम्मीदों को ढोता जन सैलाब, भीड़ को तितर-बितर करने के लिए लाठियां भांजती खाकी। तो दूसरी ओर शानदार एयर कंडिशन्ड कमरों में इंटरनेट कॉन्फ्रेंसिंग करते वह तथाकथित जननायक, और नौकरशाह जिन्होंने इस संकट काल मे लगभग हथियार डाल दिये हैं। अपने अबूझ अतार्किक फैसलों से देश की सामाजिक और आर्थिक दुर्दशा कर चुकने के बाद भी यह स्वीकार करने को इच्छुक नही हैं कि शायद स्थिति बेहतर ढंग से संभाली जा सकती थी।

वह इतिहास को जानते होते तो शायद समझ पाते कि इतिहास सिर्फ सत्ता के लिए और सत्ता के द्वारा नहीं लिखा जाता। अन्य वर्गों का भी  हिस्सा होता है। इन राह चलते मजदूरों की छवि काल खंड में बहुत दूर तक जायेगी। और बार – बार प्रश्न करेगी, आप से, हम से, समाज से, सत्ता से। भारत विभाजन के उन अमानवीय दृश्यों की तरह, जो बार- बार हमसे और मानवता से प्रश्न करने आ खड़े होते हैं कि तुमने क्यों यह हो जाने दिया?

आज एक सभ्य समाज के तौर पर, हम सिर्फ बीमार नही हो रहे, हम अमानवीय भी हो रहे हैं। हम राजनीति करने को हमेशा तैयार हैं। हम अपने मजदूरों को इस संक्रमण काल मे भी ट्रांसपोर्ट जैसी बेसिक सुविधाएं भले न दे पाएं, हम बसों पर राजनीति जरूर कर लेते हैं। विडंबना देखिये, 20 लाख करोड़ के पैकेज में अपने लिए भविष्य ढूंढते हम, जीरो से आगे बढ़ ही नहीं  पाते। 

जनता को सलाह है कि सवाल पूछना बंद कर, आगरा-भरतपुर में कुछ दिनों पहले खड़ी हुई बसों की तरह बन जाओ। ऐसा महसूस कराओ कि आप मजदूरों को बिठाने आये हो, पर बिठाओ मत। सिर्फ मजदूरों का पलायन देखो, पलायन से उपजा प्रपंच देखो। यह प्रपंच देख कर गला जरूर सूखेगा, पर किसी भी हालत में वह भीड़ मत बन जाना जो दीन दयाल जंक्शन में ट्रेन  से उतर पानी की बोतलें लूटने लग पड़ी थी। नहीं तो इतिहास को बहाना मिल जाएगा कि वह तुम्हारी भी गलतियां निकाले। कोरोना की इस महामारी से तुमको खुद बचना है। जिनको राजनीति करनी है, खुद की पीठ ठोंकनी है वह जवाब नहीं दे पाएंगे जब इतिहास उनकी अक्षमताओं का हिसाब मांगेगा। और सबसे बड़ी बात,  जैसा कि मशहूर लेखिका शोभा डे लिखती हैं, “इतिहास सत्ता को उसके अनिर्णय के लिए शायद अनदेखा भी कर दे, पर हृदय हीनता के लिए कभी माफ नहीं  करता।” 

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