दिल्ली अब महफूज नहीं रही!
बजाये नये संसद भवन के निर्माण के, अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को नवीन राष्ट्रीय राजधानी बनाने की सोचनी चाहिऐ। विगत पखवाड़े की (किसानवाली) घटनाओं से आम भारतीय को सिहरन हुयी है। इस कटु भौगोलिक सत्य से यही साबित हो गया है कि चन्द लोग गुरुग्राम, गाजियाबाद, पानीपत कब्जिया लें तो भारत राष्ट्र पंगु हो सकता है। भले ही बाद में बमवषकों और टैंकों से दिल्ली आजाद करा ली जाये। अपार खूनखराबा होने के बाद।
इसी खतरे के कारण सोवियत रूस की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव निकिता खुश्चेव ने कांग्रेसी प्रधानमंत्री जवाहरलाल को आगाह कर दिया था। अपने प्रधानमंत्री निकोलाई बुलगानिन के साथ वे (1955) भाखड़ा नांगल बांध देखने गये थे। वहां खाट पर बैठे, सतलुज को निहारते, खुश्चेव ने पूछा, ”यहां से सीमा कितनी दूर है?” इंजीनियर का जवाब था कि (वागा सीमा) डेढ़ सौ किलोमीटर है। रुसी नेता का अगला प्रश्न था : ”क्या यह बांध बमबारी से सुरक्षित है?” उत्तर मिला : ”नहीं।” खुश्चेव ने अचरज मिश्रित आक्रोश व्यक्त किया।
उन्होंने सीमावर्ती स्थल के चयन को अविवेकी बताया। उन्होंने अपने गांव में उन्नीस वर्ष की आयु पर ककहरा सीखा था। खदान मजदूर का बेटा था। पर मेधावी था। उन्होंने सचेत किया कि यदि युद्ध में पाकिस्तान भाखड़ा को बम से फोड़ता है तो कनाट प्लेस डूब जायेगा।
चन्द्रगुप्त मौर्य ने सुदूर पटना (पाटलिपुत्र) से सिकन्दर को झेलम तट पर ही बाधित कर दिया था। सेनापति सेल्युकस निकाटोर की बेटी हेलेन को छीन लिया था। मगध साम्राज्य सुरक्षित रहा। राजधानी पटना से विप्र सम्राट पुष्यमित्र शुंग ने उत्तर में यवन शासक मिनांडर के आक्रमण को विफल कर दिया था। वह अन्तिम सम्राट था जिसने अश्वमेध यज्ञ किया था। गुजरात के वडगाम (मोदी के गांव) से सवा घण्टे के फासले पर गुर्जर शासन की राजधानी पाटन थी। यह पंद्रहवी सदी में बस गयी थी। इसके महाराजा मूलराज ने मुहम्मद गोरी को जंग में हरा कर सौ वर्षों तक गुजरात को इस्लामी हमले से बचा कर रखा था।
यहां इतिहास से ये सब उदाहरण निरुपित करने का हेतु यही है कि भारत सुरक्षित रहा क्योंकि दिल्ली से उन सबकी राजधानी दूर थी। गौर करें मध्य भारत में स्थित सेवाग्राम से ही बापू ने महाशक्तिमान ब्रिटिश राज को भारतवर्ष से भगा दिया था। क्यों न यह केन्द्र स्थल वार्धा ही भारत की नयी राजधानी बना दी जाये? देश का संचालन भी सुचारु होगा। सभी 29 राज्यों और प्रदेशों को अमन चैन वाला शासन मिलेगा। किसी युद्ध के दौरान हवाई हमला या नौसैनिक आक्रमण होने पर भी जब तक थल सेना का हस्तक्षेप न हो, तब तक देश के मध्य भूभाग की आजादी महफूज रहेगी।
गत सप्ताह दिल्ली में जो हुआ वह सिविल युद्ध का रुप ले सकता था। याद रहे कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) में निकट के शहर मेरठ से चलकर मुक्ति सेनानियों ने दिल्ली से ब्रिटिश साम्राज्यवादियों पर जबरदस्त हमला किया था। यदि चन्द हिन्दुस्तानी रजवाडों ने देशद्रोह न किया होता तो दिल्ली तभी आजाद हो जाती। गत दिनों में जिन जाट किसानों ने दिल्ली की सड़कों को अवरुद्ध कर दिया था, उन्हीं के पूर्वज चूड़ामन तथा उनके भतीजे बदन सिंह ने (1720) मुगलों को दिल्ली में हिला दिया था।
आगरा, हाथरस, इटावा, गुड़गांव आदि क्षेत्रों पर अपना राज स्थापित कर दिया था। उन्हीं जाट राजाओं ने आलमगीर औरंगजेब के हिन्दू विरोधी अत्याचारों से क्रोधित होकर जलालुद्दीन अकबर की सिकन्दरा में कब्रें लूट ली और अस्थियां जला दीं। यदि मराठा सेनाधिपति सदाशिवराव भाऊ अहंकारभरा व्यवहार न करते तो इस जाट सेना की सहायता से दिल्ली बचा ले जाते। अहमदशाह अब्दाली को पानीपत की तीसरी लड़ाई में मारकर भगा दिया जाता। अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान (1190) से मुहम्मद गोरी द्वारा छीने नगर पर भारतीय राज पुन: स्थापित हो जाता। ब्रिटिश राज का नाम ही न होता।
फिलहाल मूल चर्चा पर लौटें। यदि भारतीय गणराज्य को सुरक्षित और समृद्ध रखना है तो राष्ट्रीय राजधानी ऐसे स्थल पर हो जो आंचलिक दबाव से दूर रहे। आज केरला, तेलंगाना, कश्मीरी आतंकी, गुरुग्राम और गाजियाबाद द्वारा दिल्ली अस्थिर की जा रही है। प्रधानमंत्री को इतिहास का रचायिता बनने की सोचनी चाहिये। केवल तीन कृषि कानूनों की ही चिन्ता करने से राजकाज नहीं चलेगा।