मोहनदास को इंग्लैंड जाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े!

डॉ.पुष्पेंद्र दुबे,इंदौर

महात्मा गांधी Mahatma Gandhi की सभी जानते हैं, पर युवा पीढ़ी उनकी युवावस्था के संघर्षों से अनजान है. वे उस मोहनदास Mohandas Gandhi से अपरिचित हैं, जिन्हें इंग्लेंड जाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े.आज भारत की लगभग चालीस प्रतिशत आबादी युवा है. इसमें अपार ऊर्जा भरी हुई है. युवावस्था में किए हुए शुभ संकल्पों ने ही दुनिया को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. अपने सपनों को आकार देने में, उन्हें साकार करने की शक्ति एक युवा में होती है. वह अपने शुभ संकल्पों के बल से धरती-आसमान एक कर सकता है. दुनिया को नीति और धर्म के संदेश युवाओं ने ही दिए हैं. संघर्ष में से समन्वय का रास्ता बनाने की जिम्मेदारी युवाओं की है.

इंग्लेंड जाने का निश्चय

जिस समय गांधीजी ने इंग्लेंड जाने का निश्चय किया, उस वक्त उनकी उम्र 19 साल की थी. भावनगर के कॉलेज में पढ़ने के दौरान जयशंकर बूच ने इंग्लेंड जाने की सलाह दी थी. छात्रवृत्ति तो पाना असंभव था, परंतु मोहनदास इंग्लेंड जाने के साधन खोजते रहे.

परीक्षा में उत्तीर्ण होना कठिन

जब मोहनदास भावनगर से छुट्टियां मनाने राजकोट गए, तब उनके भाई मावजी जोशी से मिलाने ले गए. मावजी जोशी ने पढ़ाई-लिखाई की बात पूछी तो मोहनदास ने कहा कि पहले वर्ष में परीक्षा में पास होना मुश्किल है. यह सुनकर उन्होंने भाई को सलाह दी कि जैसे भी संभव हो, इसे बैरिस्टरी के लिए लंदन भेज दें. इसका खर्च सिर्फ पांच हजार रुपये आएगा. इसके लिए यदि आर्थिक सहायता न मिले तो अपना साज-सामान बेच दो. परंतु किसी भी तरह मोहदनदास को लंदन भेज दो. भाई ने उनके सामने वादा कर दिया. अब मोहनदास का प्रयत्न शुरू हुआ. 

Gandhi to mahatma
नौजवान गांधी

आर्थिक मदद और भोलापन

मोहनदास के लंदन जाने की बात खुशालभाई को पता चली और उन्हें सुझाव पसंद आया. शर्त इतनी ही थी कि मोहनदास धर्म का पालन कर सके. मेघजी भाई ने 5000 रुपये देने का आश्वासन दिया. युवा मोहनदास को उनकी बातों पर भरोसा हो गया और यह बात मां पुतलीबाई को बतायी. मां ने भोलेपन पर फटकार लगाते हुए कहा कि समय आने पर तुम्हें एक भी रुपये नहीं मिलेगा.

मांसाहार की सलाह

इसके बाद मोहनदास आर्थिक मदद के लिए केवलराम से मिले. उन्होंने इंग्लेंड जाने की बात पसंद की, पर साथ में कह दिया कि इसके लिए तुम्हें दस हजार रुपये खर्च करना पड़ेंगे. अगर कोई धार्मिक आग्रह हो तो उसे छोड़ना पड़ेगा. तुम्हें मांस खाना पड़ेगा, शराब पिये बिना भी काम न चलेगा. तुम अभी बहुत छोटे हो. लंदन में बहुत प्रलोभन हैं. उनमें तुम फंस जाओगे. जब मोहनदास ने उनसे छात्रवृत्ति दिलाने की बात कही तब केवलराम भाई ने साफ मना कर दिया.

आकस्मिक दुर्घटना

मोहनदास ने मां से पोरबंदर जाने की अनुमति मांग ली. दो-तीन बार जाने की तैयारी की, परंतु कोई न कोई बाधा आती चली गयी. जिस दिन झवेरचंद जी के साथ पोरबंदर जाने वाले थे, उस दिन आकस्मिक दुर्घटना घट गयी. मोहनदास अपने मित्र शेख मेहताब से हमेशा झगड़ते रहते थे. पोरबंदर रवाना होने से पहले झगड़े में डूबे हुए थे. रात को लगभग साढ़े दस बजे मेघजीभाई और रामो से मिलने गए. मोहनदास एक ओर लंदन की धुन में डूबे हुए तो दूसरी ओर शेख मेहताब के खयालों में. इस धुन में एक गाड़ी से टकराए और चोट लगी. सिर चकरा रहा था, आंखों के सामने अंधेरा छाया हुआ था. ऐसे ही मेघजीभाई के घर पहुंचे. वहां मोहनदास फिर एक पत्थर से टकरा गए. तब बिलकुल बेहोश हो गए. सभी ने समझा कि मर गया. आखिर होश आया. मां को पता चला तो बहुत दुखी हुईं. बहुत कठिनाई से मोहनदास को पोरबंदर जाने की इजाजत मिली. 

अंग्रेज सज्जन लेली से मुलाकात

मोहनदास पोरबंदर में अपने चाचा से मिले और उन्हें लंदन जाने की जानकारी दी. चाचा ने इस बात को नापसंद किया. लेली कहीं बाहर गए हुए थे. जब वापस आए तो उनसे मुलाकात हुई. मोहनदास जीवन में पहली ही बार किसी अंग्रेज सज्जन से मिले थे. लंदन जाने की धुन ने बेधड़क कर दिया था. लेली ने पोरबंदर की गरीबी का हवाला देकर आर्थिक मदद देने से इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि पहले भारत में स्नातक बनो, तब इस बारे में सोचूंगा. इस उत्तर ने मोहनदास को निराश कर दिया. 

चाचा से अनुमति की शर्त

इसके बाद मोहनदास रुपये की व्यवस्था के लिए परमानंद भाई के पास गए. परमानंद भाई ने कहा कि यदि तुम्हारे चाचा तुम्हारा लंदन जाना पसंद करें तो खुशी से रुपये दे दूंगा. इस उत्तर के तत्काल बाद मोहनदास अपने चाचा के पास गए. जब चाचा को यह शर्त बतायी तो उन्होंने कहा अनुमति देने से मना कर दिया. साथ में यह भी जोड़ दिया कि वे स्वयं तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं. मोहनदास ने कहा कि यदि आप अनुमति नहीं देंगे तो परमानंद भाई पांच हजार रुपये भी नहीं देंगे. इस पर चाचा गुस्सा होते हुए बोले कि वे जानते हैं मैं अनुमति नहीं दूंगा और वे पांच हजार रुपये नहीं देंगे. मैं उन्हें मदद करने से नहीं रोकता. यह सुनकर मोहनदास फिर भागे-भागे परमानंद भाई के पास गए. मोहनदास ने सारी बातें शब्दशः बोल दीं. जिसे सुनकर परमानंद भाई भी नाराज हुए, परंतु अपने बेटे की कसम खाकर पांच हजार रुपये देने का वादा कर दिया. इससे बड़ी खुशी की बात क्या हो सकती थी. 

साज-सामान की बिक्री

मोहनदास पोरबंदर से राजकोट वापस आए. इससे पहले भावनगर जाकर मेज-कुर्सी और साज-सज्जा का सामान बेच दिया. घर के किराये का सिलसिला भी तोड़ दिया. यह सब काम एक दिन में किया. जब मोहनदास ने विदा ली, तब पड़ोसियों की आंखों से आंसू टपकने लगे.

कर्नल वाट्सन से आशा

मोहनदास तीन वर्ष के लिए लंदन जाने से पहले कर्नल वाट्सन से मिलना चाहते थे. मोहनदास के भाई को कर्नल वाट्सन से बड़ी आशा थी. मोहनदास को अनेक लोग लंदन न जाने की सलाह देते. कभी-कभी मां भी न जाने को कहतीं. भाई भी अपना इरादा बदलते रहते. मोहनदास त्रिशंकु की स्थिति में थे. लेकिन सभी लोग इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि एक बार किसी चीज को शुरू करने के बाद मोहनदास आसानी से छोड़ते नहीं थे. आखिर कर्नल वाट्सन से मुलाकात हुई और उन्होंने प्रस्ताव पर विचार करने का आश्वासन दिया. लेकिन उनसे कोई मदद नहीं मिली. जब मोहनदास ने कहा कि आप एक चिट्ठी ही लिख दीजिए. तब कर्नल वाट्सन ने कहा कि वह एक लाख रुपये की चीज है. 

शत्रुवत् व्यवहार

मोहनदास के भाई ने मेघनाद जी के वादे के बारे में मन टटोलने की बात कही. परिणाम बिलकुल निराशाजनक रहा. मेघनाद भाई तो सदा शत्रुवत व्यवहार करते रहे. उलटे हर किसी के सामने मोहनदास की बुराई करते रहे. इससे मां को बहुत गुस्सा आता था पर मोहनदास उन बातों की उपेक्षा कर देते.

अखबारों में समाचार

मोहनदास इंग्लेंड जाने वाले हैं, यह समाचार अखबारों में प्रकाशित हो गया. एक बार फिर भाई ने लंदन जाने का इरादा छोड़ने को कहा, पर मोहनदास कहां मानने वाले थे. तब भाई ने ठाकुर साहब से आर्थिक सहायता देने का अनुरोध किया, परंतु कोई मदद नहीं मिली. लेकिन एक चिट्ठी और फोटो के लिए मोहनदास को दोनों की बहुत खुशामद करना पड़ी. 

राजकोट से बम्बई

आखिर वह दिन दिया जब मोहनदास राजकोट से बम्बई के लिए रवाना हुए. इसकी एक रात पहले स्कूल के साथियों ने मानपत्र भेंट किया. इस मानपत्र का उत्तर देने के लिए मोहनदास खड़े हुए पर आधा बोलने के बाद कांपने लगे.  

बम्बई की कठिनाइयां

मोहनदास को बम्बई में जो कठिनाइयां झेलनी पड़ी, वे अवर्णनीय हैं. उनकी जाति के लोगों ने उन्हें रोकने की भरसक कोशिश की. लगभग सभी लंदन जाने के विरोध में थे. उनके भाई खुशाल भाई और पटवारी ने न जाने की सलाह दी. लेकिन उनकी सलाह मानने के लिए मोहनदास तैयार नहीं थे. इसके बाद मौसम आड़े आ गया. उससे जाने में देरी हुई. सभी दूसरे लोग मोहनदास के पास से चले गए. तब अकस्मात 4 सितंबर 1888 को बम्बई से रवाना हो गया. 

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जिस स्थिति में मोहनदास थे, उसमें अगर कोई दूसरा आदमी होता तो उसे इंग्लेंड देखना नसीब न होता.

संकल्प के सामने समस्याएं छोटी

मोहनदास को इंग्लेंड जाने में जिन परेशानियों का सामना करना पड़ा, उनसे हरेक युवा अपने जीवन में दो-चार होता है. मोहनदास ने अपने संकल्प पर समस्याओं को हावी नहीं होने दिया. युवा के सामने तब कठिनाई उपस्थित हो जाती है, जब वह समस्याओं को बड़ा मान लेता है. उसका संकल्प डगमगाने लगता है. वह लक्ष्य तो निर्धारित करता है, परंतु उसे अधूरा छोड़ देता है. अठारह-उन्नीस साल का युवा मोहनदास यदि इंग्लेंड जाने में पस्त हिम्मत हो जाता, तो वह ‘महात्मा’, ‘बापू’, ‘अहिंसा का पुजारी’ कभी नहीं बन पाता. 

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