उच्च न्यायालयों में मुक़दमों का निस्तारण समय से कैसे हो, एक दृष्टिकोण!

अधिक नहीं बल्कि योग्य जजेज चाहिए

मुक़दमों के निस्तारण में देर क्यों 

उच्च न्यायालयों में मुक़दमों के अम्बार के लिए जजों की कमी एक कारण है, लेकिन मामलों के निस्तारण में देरी के लिए इसके अलावा और भी कई कारण हैं जिनके लिए न्यायपालिका स्वयं पहल कर सकती है. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में सीनियर एडवोकेट आई सिंह का अनुभव आधारित विश्लेषण.

आई बी सिंह, सीनियर एडवोकेट, हाईकोर्ट लखनऊ

यह सत्य है कि समय से जजेज की नियुक्ति न हो पाना, मुकदमों  के समय से निस्तारण न हो पाने का एक बहुत महत्वपूर्ण कारण है, परन्तु उससे भी कुछ बहुत महत्वपूर्ण कारण हैं , जिसके लिए स्वयं न्याय पालिका ही जिम्मेदार है और इसके लिए न्यायपालिका में कार्यरत जजेज को अपना कार्य करने का ढंग और अपनी सोच बदलनी पड़ेगी । यह सभी कारण सार्वभौमिक रूप से सभी पर नहीं लागू होते हैं, परन्तु अधिकतर मामलों  में यह लागू होते हैं ।

आम तौर पर हाई कोर्ट में अधीनस्थ न्यायालय से प्रोन्नति पाने के बाद हाई कोर्ट के जजेज की कार्य करने की आयु, कुछ अपवादों को छोड़ कर, तीन साल से सात साल तक होती है और बार से सीधे हाई कोर्ट का जज बनने वाले जजेज की कार्य की आयु, कुछ अपवादों को छोड़ कर, सात साल से चौदह साल के बीच में होती है । इनमें से बहुत से ऐसे जजेज होते हैं जो एक दिन में औसतन पंद्रह से लेकर तीस मुकदमों का निस्तारण कर देते हैं और उन जजेज के निर्णय से अधिकतर पक्षकार सन्तुष्ट भी होते हैं । परन्तु बहुत से ऐसे भी जजेज होते हैं जो किसी तरह, बिना एक भी निर्णय दिए हुए अपना पूरा कार्यकाल पार कर देते हैं । दूसरी श्रेणी के जजेज का मुकदमों के निस्तारण में लंबित होने में अपना योगदान होता है ।

कुछ जजेज ऐसे भी होते हैं जो कुछ निर्णय ऐसे देते हैं जो नज़ीर बन जाते हैं और उनके आधार पर सैकड़ों मुकदमों का निस्तारण, उस एक फैसले से हो जाता है । हमें ऐसे जजेज की ज्यादा जरूरत है । कानून के मिसाल (प्रीसीडेन्ट्स) से अनिश्चितिता नहीं रहती है । हमें और अधिक जजेज की आवश्यकता नहीं हैं, हमें सिर्फ योग्य जजेज की आवश्यकता है, जो इस न्यायिक संस्था के लिए एसेट यानि कि सम्पत्ति साबित हो न की बोझ ।

बेंच हंटिंग 

अक्सर यह देखा जाता है कि कुछ जजेज, वकीलों पर यह आरोप लगते रहते हैं कि अधिवक्ता बेन्च हंटिंग करते हैं यानी कि वो अपने पक्ष में फैसला प्राप्त करने के लिए अपने मुकदमों को कुछ विशेष जज या उस जज के यहाँ ले जाने की कोशिश करते हैं जहाँ उन्हें अपने पक्ष में फैसला मिल सके । यह आरोप पूरी तरह गलत नहीं है, परन्तु अधिकतर मुकदमों में यह नहीं होता । इसका एक विशेष कारण होता है जजेज के सोच, उनके ज्ञान और अप्रोच में एकरूपता न होना ।

उदहारण के लिए कोई जज साहब डकैती के मामले में जमानत बिलकुल नहीं देते हैं जबकि अन्य उचित मामलों में जमानत दे देते है । कोई जज बलात्कार के मुकदमों में जमानत की बहस सुनते ही नहीं और अन्य उचित मामलों में जमानत दे देते हैं । बहुधा यह देखने को मिलता है कि एक ही तथ्य पर विचार करते समय दो जजेज को मत भिन्न होते हैं. तथ्य की कौन कहे, एक ही कानून के प्राविधान या उसकी व्याख्या पर भी सभी जजेज के मत में भिन्नता होती है.  

अब ऐसे में मुकदमें का निर्णय किसी वकील के योग्यता पर नहीं बल्कि वादकारी के भाग्य पर निर्भर करता है कि उसका मुकदमा किस जज के सामने सुनवाई के लिए जायेगा । ऐसी स्थित में अधिकतर अधिवक्ता यही कोशिश करते है कि वह अपने मुकदमें की बहस वहीँ करे जहाँ जज का अप्रोच उस मुकदमें के अनुरूप हो । आखिर, जब निर्णय होता है तो यह नहीं कहा जाता है कि अमुक जज ने निर्णय लिया, बल्कि कहा यही जाता है कि हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट ने या सेशन कोर्ट ने यह फैसला दिया है ।

इसी प्रकार अक्सर यह होता है कि किसी जज को यदि किसी वाद के समान तथ्य पर उसी के समान दूसरे जज का निर्णय नज़ीर की तरह पेश किया जाता है तो कभी कभी जज साहब यह भी कह देते हैं कि मैं इस निर्णय से सहमत नहीं हूँ । यदि कभी दूसरे राज्य के हाई कोर्ट के निर्णय को दिखाया जाता है तो अक्सर यह कहते हुए सुना जाता है कि अपने हाई कोर्ट का हो तो दिखाइए । विधि की व्यवस्था ऐसे में कोई महत्त्व नहीं रखता है । इन परिस्थितियों  में जज महोदय लोगों के, एक ही मामले में विभिन्न प्रकार से दृष्टिकोण रखने के के कारण मुकदमों के निस्तारण में देरी होती है और मुकदमों की संख्या बढती जाती है ।  

सर्वोच्च न्यायालय में कुछ अधिवक्ताओं को एक मुकदमें की सुनवायी, एक विशेष जज के सामने करने में आपत्ति थी । उन्होंने न्यायिक क्षेत्राधिकार का सहारा लेने के लिए एक रिट प्रस्तुत की जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि मुख्य न्यायाधीश ही यह निर्णय ले सकता है कि कौन सा मुकदमा कौन सुनेगा । ‘चीफ जस्टिस इज द मास्टर ऑफ़ रोस्टर ।’ यह बात एकदम सही है परन्तु यदि चीफ जस्टिस अपनी विवेक का प्रयोग सही ढंग से न करे और मनमानी करने लगे तो क्या होगा । जजेज और चीफ जस्टिस भी तो मानव ही हैं और कमियां मानव प्रकृति में होता है । कभी कभी चीफ जस्टिस के सही ढंग से विवेक का प्रयोग न करने के कारण, न सिर्फ वादकारियों के हानि की संभावनाएं रहती है बल्कि उचित ढंग से मुकदमों के शीघ्र निस्तारण में भी देरी होने की संभावनाएं रहती है ।

अविवेकपूर्ण ढंग से क्षेत्राधिकार का आबँटन 

हाई कोर्ट में, विशेष कर प्रकीर्ण वाद, सर्विस, लोक हित के वाद, फौजदारी के वाद, रेवेन्यु के वाद या चुनाव सम्बन्धी वाद प्रस्तुत और लंबित होते है । जो लोग अधिवक्ताओं से जज के पद पर नियुक्त होते हैं उनमें अधिकतर अधिवक्ता किसी न किसी विशेष क्षेत्र में वकालत कर विशेषज्ञता प्राप्त कर लेते हैं और तब उनकी नियुक्ति जज के पद पर होती है । बहुत कम ही अधिवक्ता ऐसे होते हैं जो सभी क्षेत्रों में विशेषज्ञ होते हैं ।

अब यदि एक अधिवक्ता पूरे वकालत के समय में रेवेन्यु के क्षेत्र में वकालत करता रहा है और उसकी नियुक्ति जज के पद पर हो जाती है और चीफ जस्टिस महोदय उसे फौजदारी के क्षेत्राधिकार में ही बैठा देते हैं तो उस जज को कई साल लग जाते हैं फौजदारी का कार्य सीखने में । फिर उसमे फौजदारी के मुकदमों के निस्तारण में वह विश्वास भी नहीं होता है जो कि वह रेवेन्यु के मुकदमों के निस्तारण करने में रखता । ऐसे में वादकारियों के साथ अहित होने की भी संभावनाएं भी बनी रहती है । उसके असहज होने के कारण मुकदमों के निस्तारण में भी देरी होती है । अब यदि ऐसे अधिवक्ता को उसके जज बनने के बाद अधिकतर समय रेवेन्यु के मुकदमों के निस्तारण के लिए दिया जाये तो बहुत कम समय में अधिक से अधिक, अपने विशेषज्ञता  के क्षेत्र के मुकदमों का सही ढंग से निस्तारण करनें में सक्षम होगा । चीफ जस्टिस के जजेज के मुकदमों के निस्तारण के लिए अविवेकपूर्ण ढंग से क्षेत्राधिकार का आवंटन करने से अधिक से अधिक मुकदमों के निस्तारण में विलम्ब की संभावनाएं बनी रहती है।

कृपया इसे भी देखें

https://navbharattimes.indiatimes.com/india/need-for-a-change-in-attitude-for-early-disposal-of-court-cases-high-court/t20articleshow/68550377.cms

चिंताजनक बात

मेरी समझ में अदालतों में मुकदमें सामान्यतः दो श्रेणी के होते हैं । एक वो जहाँ वादकारी के लिए मुकदमा लड़ना उसकी मजबूरी होती है । जैसे किसी को सेवा से पदच्युत या निलंबित कर दिया गया हो, किसी को किसी अपराध में निरुद्ध कर लिया गया हो, किसी को मकान से बेदखल किया जा रहा हो, या किसी की भूमि अधिगृहित की जा रही हो आदि आदि ।

दूसरी श्रेणी में वो लोग आते हैं जो मुकदमें वादकारी की  समृद्धि बढ़ने के लिए  लड़ते हैं । जैसे किसी को ठेका नहीं मिला और किसी अन्य को मिल गया हो, किसी बड़े सरकारी पद पर काम करने वाले अच्छे लाभ के पद से किसी अन्यत्र स्थानांतरण  कर दिया गया हो, या चुनाव सम्बन्धी याचिकाएं हो, या फिर कुछ मामलों में लोक हित याचिकाएं, जहाँ याचिकाकर्ता का व्यक्तिगत लाभ या वो लोक हित में दाखिल की गयी याचिकाएं जो राजनीतिक कारणों से प्रस्तुत की गयी हो । 

ऐसे में यह देखने में आता है कि दूसरी श्रेणी के मुकदमों ने अदालतों में अधिक स्थान घेर लिया है और पहले श्रेणी के मुकदमों को वह स्थान नहीं मिल पता है जो कि उसको मिलना चाहिये ।

यह एक चिंताजनक बात है । यह लोक हित में भी नहीं होता । इससे आम जनता का जो हित शीघ्र होना होता है, उसमे भी देरी होती है । इसके दो सबसे बड़े उदहारण हैं , आधार का विवाद या हाई सिक्यूरिटी नंबर प्लेट का मामला । ऐसे मामलों में जजेज को अपनी सोच बदलनी होगी जिससे आम जन का विश्वास न्यायपालिका में बनी रहे ।

मेरे अपने व्यवसाय में रहते ही यह अनुभव हुआ कि जजेज के दृष्टिकोण में अविश्वनीय परिवर्तन हुआ है जिससे न्यायपालिका पर लोकमत का विपरीत प्रभाव की संभावनाएं बढ़ गयी हैं । लगभग पचीस वर्ष पूर्व पुलिस के आरोपपत्र को न्यायालय में संदेह की दृष्टि से देखा जाता था परन्तु आजकल पुलिस के आरोप पत्र और साक्ष्य को अकाट्य सत्य माना जाता है इसके कारण जेल भरते जा रहे हैं । एक  जिसे व्यक्ति चौदह वर्ष जेल में रहना पड़ा तब उच्च न्यायालय ने उसे निर्दोष पाया । क्या इन चौदह वर्षों में उन्ही साक्ष्य पर, जिस पर उसे छोड़ा गया, वह जमानत पाने का हक़दार नहीं था ?

अभी दिल्ली के एक सेशन जज ने एक लड़की की जमानत दे दी, उस आदेश पर भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल ने कहा कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को इससे कुछ सीखना चाहिए । विधि शास्त्र पूरी तरह उल्टा हो गया है । जस्टिस कृष्णऐय्यर ने उन्नीस सौ अस्सी में कहा था कि ‘जमानत एक नियम है जेल अपवाद’ । परन्तु धीरे धीरे इसका उल्टा हो गया है । कभी कभी तो यह भी सुनने को मिलता है कि अभी कुछ दिन अभियुक्त को जेल में रह लेने दीजिये ।

विधि शास्त्र की स्थापित सिद्धांत रहा है कि प्रत्येक अभियुक्त, तब तक बेगुनाह है जब तक वह दोषी सिद्ध न हो जाए । परन्तु अब यह सिद्धांत पूरी तरह बदल गया है । प्री ट्रायल जेल में अभियुक्त को सज़ा के तौर पर रखना, अब आम बात हो गयी है । अन्वेषण अधिकारी के आरोप पत्र या कथन को पूर्ण सत्य मान लिए जाने से अन्वेषण पर अयोग्यता और बेईमानी के आरोप की संख्या बढ़ गयी है, जो अपराधिक न्याय प्रणाली को नष्ट करती जा रही है ।

हमारे जजेज को न्याय देने में कोई असुविधा न हो, इसको ध्यान में रखते हुए इतनी अधिक सुविधाएँ और वेतन दी जा रही है जिसमें और कुछ अधिक देने को बाकी नहीं रह गया है । हमारे जजेज को अपना एक दृष्टिकोण और भी बदलना पड़ेगा कि दूसरों पर विश्वास करना चाहिए । कभी कोई अपने से अधीनस्थ न्यायालय के जजेज के आदेश, जो अभियुक्त के पक्ष में दे दी जाती हैं, उन को शक की दृष्टि से न देखे । ऐसे में अभियुक्त के पक्ष में फैसला देने में डर बने रहने की संभावनाएं बनी रहती हैं ।

गंभीर प्रश्न चिन्ह

हमारे देश की न्याय व्यवस्था सर्वोत्तम व्यवस्था है । परन्तु अब न्यायपालिका पर बहुत गंभीर प्रश्न चिन्ह लगने लगे हैं । यह एक सम्पूर्ण स्वतंत्र संस्था है, इसको स्वस्थ प्रजातंत्र बनाये रखने के लिए, सुरक्षित रखना बहुत आवश्यक है । दबी आवाज में ही सही, कोरोना काल में न्यायपालिका के भूमिका पर भी लोग आवाज उठाने लगे हैं । ऐसे हजारो अभियुक्त जेल में हैं जो कोरोना काल में लॉक डाउन शुरू होने से आज तक, उनके परिवार वाले उन्हें देख भी नहीं पाए हैं कहाँ है हमारी न्याय पालिका ? क्या उन्हें विडियो कांफ्रेंसिंग द्वारा भी बात नहीं करायी जा सकती है ? हम सभी को मिल कर इसकी स्वतंत्रता और विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए लड़ना पड़ेगा ।

आज पुलिस हिरासत में पकड़ कर अभियुक्तों को गोली मार देने की घटनाएँ बहुत आम हो गयी हैं, चाहे वो उत्तर प्रदेश हो, हैदराबाद हो या देश का अन्य कोई स्थान हो । एनकाउंटर पर लोग ताली बजाते हैं । यह एक बहुत गंभीर विषय है । इस तरह तो न कोर्ट की जरूरत रहेगी और न वकील की । ऐसी गंभीर स्थित से, न्यायपालिका को अपने आप से निकालना होगा । क़ानून का शासन बनाये रखना, इस देश को और इसके छवि को बनाये रखना के लिए अति आवश्यक है ।

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प्रशिक्षण 

मेरी समझ में जजेज का छोटे छोटे अन्तराल पर विधि के विषय पर गोष्ठियां और बहस होनी चाहिए जिससे जजेज के ज्ञान, उनके दृष्टिकोण, उनके सोच में एकरूपता हो और लोगो का विश्वास न्यायपालिका पर पूरी तरह दृढ़ हो । यह भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति की सोच एक सामान नहीं हो सकती है । यह बात एकदम सत्य है । परन्तु जितना मत भिन्नता है, उसे कम तो किया ही जा सकता है । और ऐसे तंत्र और क्रियाविधि को विकसित करने का प्रयत्न तो करना ही चाहिए । न्यायिक प्रक्रिया एक निरंतर गतिमान प्रक्रिया है जिसमे निरंतर और भी सुधार की संभावनाएं बनी रहती है ।

हाई कोर्ट कोई प्रयोगशाला नहीं है जहाँ न्यायालय में बैठ कर प्रशिक्षण और प्रयोग किया जाए । हाँ, जजेज के अहं को ठेस पहुंचने के कीमत पर भी समय समय पर उनका प्रशिक्षण होते रहना चाहिए, चाहे वो किसी भी स्तर के हों । उसे प्रशिक्षण का नाम न देकर इंटरेक्शन या पारस्परिक विचार विमर्श का नाम भी दिया जा सकता है । यह प्रशिक्षण  गोष्ठियों में भी किया जा सकता है ।

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