लोकतंत्र का ख्वाब बाकी है, क्योंकि हम ज़िंदा हैं। ज़िंदगी है, आबाद है, ज़िंदगी ज़िंदाबाद हैं।

चुनाव गुजर गया, चिंता बाकी है;
चुनाव क्या है ? हम क्या हैं ?
सवाल बाकी है, जवाब बाकी है,
लोकतंत्र का ख्वाब बाकी है,
…क्योंकि हम ज़िंदा हैं। ज़िंदगी है, आबाद है, ज़िंदगी ज़िंदाबाद हैं।

पढ़िए, मेरे भीतर चली एक लम्बी गुफ्तगू …क्योंकि हम ज़िंदा हैं। ; अरुण तिवारी

05 बजने को हैं।
अखबार आया नहीं, टेलीविजन बंद है।
लिहाजा शांति है, सूकून है, सन्नाटा है।

इस सन्नाटे के बीच घड़ी की टिक टिक है।
चिड़ियों की चहचहाहट है, घण्टों की घनघनाहट है, कीरत है, अजान है,
बुद्ध का उपदेश है, महावीर का संदेश है, जीसस का ज्ञान है,
जो कहते हैं कि सुबह होगी, ज़रूर होगी।
…क्योंकि हम ज़िंदा हैं। ज़िंदगी है, आबाद है, ज़िंदगी ज़िंदाबाद हैं।

दोस्तो, 
न चन्द्रमा कहीं जाने वाला है,
न सूरज कहीं से आने वाला है।
लेकिन फिर भी उजाला आएगा,
अंधेरा जाएगा।
हर रात की सुबह होती है,
आपकी भी होगी और मेरी भी।
….क्योंकि हम ज़िंदा हैं। ज़िंदगी है, आबाद है, ज़िंदगी ज़िंदाबाद हैं।

क्योंकि हम धुरी नहीं, हम धरती हैं।
ठहरा हुआ समंदर नहीं, बहती हुई धारा हैं।
रचना का धर्म हैं, विचारों का सितारा हैं,
जो मरते नहीं,
पर जिनके सोने से होता है अंधेरा,
जिनके जागने से होता है सुबेरा।
…क्योंकि हम ज़िंदा हैं। ज़िंदगी है, आबाद है, ज़िंदगी ज़िंदाबाद हैं।

आइए, जरा लिहाफ को हटाएं,
ख्वाब से थोड़ा सा बाहर आएं,
सुबह सा चहचहाएं या मन मयूर सी पांखें फैलाए,
या खुद से कुछ सवाल पूछें, कुछ जवाब पाएं।
…क्योंकि हम ज़िंदा हैं। ज़िंदगी है, आबाद है, ज़िंदगी ज़िंदाबाद हैं।

क्योंकि आज मेरे मन में कुछ बेचैनियां हैं,
लेकिन कुछ रौशनी है, उम्मीदे हैं, जो अक्सर मुझसे पूछती हैं
कि हम राज करने वाले इन राजनेताओं के क्या हैं ?
प्रजा हैं, इनकी राजनीति की ज़मीन हैं या लोकतंत्र का आसमान हैं ?
ये नेता वोट के लिए चरणों पर गिरने वाले चारण हैं या
चरणों की धूल चटाने वाले पांच साला शैतान हैं
और हम सिर्फ एक बटन में क़ैद मतदान है ?
या फिर हम 
सचमुच जिंदा हैं, ज़िंदगी है, आबाद है, ज़िंदगी ज़िंदाबाद हैं ?

हम अगडे़ हैं, पिछडे़ हैं,
हिन्दू हैं, सिख हैं, पारसी हैं, ईसाई हैं, क्या हैं ?
जैन हैं बौद्ध हैं मुसलमान हैं और ये सबके सब साहेबान हैं ?
क्या खूब !! 
इनमें भी न जिनकी कोई विचारधारा है, जो बेपेंदी के लोटे हैं, कई तो घोषित अपराधी हैं,
ताज्जुब है कि फिर भी ये माननीय हैं, मेहरबान हैं ? कदरदान हैं ?
मंत्री बन जाएं तो ये ही सत्ता हैं और हम इनके सामने हाथ जोडे़ खड़ी जनता हैं,
ताज्जुब ये भी कि इन्हे हम जनता ने जनता के लिए चुना है
और ऐसे में मेरा यह कहना क्या एक मज़ाक नहीं कि
हम ज़िंदा हैं। ज़िंदगी है, आबाद है, ज़िंदगी ज़िंदाबाद हैं  ?

लगता है कि हम खुद भूल गए हैं कि
संविधान ने हमें मतदाता बाद में पहले एक नागरिक के रुप में सुना है।
उससे भी पहले कुदरत ने हमें एक इंसान के रूप में बुना है,

सबसे पहले इंसानियत ही हमारा मजहब है, 
जाति है, वर्ग है, विकास का पैमाना है।
इसके बगैर तो हर विकास…विनाश  है; हैवानियत है,
सिर्फ इस धरती पर आना है, जाना है।
सोचें
….क्योंकि हम ज़िंदा हैं। ज़िंदगी है, आबाद है, ज़िंदगी ज़िंदाबाद हैं।
अरे भाई, ये मौका है।
बीते पांच साल की सरकार की समीक्षा की शाम है,
अगले पांच साल के सपने संजोने का मुकाम है।
यहां जाति, मजहब नहीं, विधायक चुनने का काम है।
ये विधानसभा का चुनाव है, जहां विधान बनाने का प्रावधान है।

इन पार्टियों से कोई पूछो कि
भाई ये विधानसभा है या फिर राशन की दुकान है?

जहां बिजली, लैपटाॅप, स्मार्टफोन, स्कूटी, पेंशन की भीख है, कटोरा है… कोटा है।
क्या नागरिक के हक़ की आवाज़ सदन में उठाने वालों का
देश में अब इतना टोटा है ?

ये पार्टियां हैं या बाज़ारु मुखौटे हैं,
मदारी हैं, पैतरें बदलते पहलवान हैं या
सेल्सगर्ल या सेल्समैन हैं, जोे कर रहे फ्री फ्री फ्री का ऐलान हैं ?
पूछो दोस्तो,
…क्योंकि हम ज़िंदा हैं। ज़िंदगी है, आबाद है, ज़िंदगी ज़िंदाबाद हैं।

ताज्जुब  है कि
चुनाव में पार्टियां हैं, पार्टियों के उम्मीदवार हैं। पार्टियों के घोषणापत्र हैं।
वोटिंग मशीनों पर भी पार्टियों के ही निशान हैं। पार्टियों की सरकार हैं। 
पार्टियों पर ही देश का सारा दारोमदार है।

 न जनता का घोष्णापत्र, न जनता के उम्मीदवार हैं; 
तो फिर क्यूं कहते तो कि जनता द्वारा चुनी जनता की सरकार है ?
ये लोकतंत्र का चुनाव है या पार्टीतंत्र का ?
सोचो,
…क्योंकि हम ज़िंदा हैं। ज़िंदगी है, आबाद है, ज़िंदगी ज़िंदाबाद हैं।
अरे भाई, 
लिहाफ हटाओ, खोल से बाहर आओ। चुप्पी तोड़ो। कुछ तो बोलो।तुम्हे ज़िन्दगी की कसम 
यह चुप रहने का वक्त नहीं है।
यदि हम अब चुप रहे तो यह मान लिया जाएगा कि 
हम वाकई मरी हुई कठपुतलियां हैं और ये ज़िंदा उंगलियां हैं, जो हमें जब चाहे, जैसे चाहे नचाती हैं, कभी नफरत, कभी मेल का खेल दिखाती हैं।
खुद माल उड़ाती है, मौज मनाती हैं और अकेले में 
हमारे मरे होने का मज़ाक उड़ाती हैं
और इन्हे ये हक़ हमने दिया है; हमने !

ध्यान रहे,
हर वक्त की हर उंगली हमारी तरफ होगी, आने वाली नस्लों की भी। क्योंकि चुनने वाले हम हैं।
क्या हम ऐसा होने दें ? 
नहीं…क्योंकि हम ज़िंदा हैं। ज़िंदगी है, आबाद है, ज़िंदगी ज़िंदाबाद हैं।जय हिंद ! जय जगत ! ज़िंदगी ज़िंदाबाद !!

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