सदा अनुकूल और कल्याणकारी गौतम बुद्ध

तथागत गौतम बुद्ध अपने काल में सामाजिक-धार्मिक क्रान्ति के महानायक थे। उन्होंने आध्यात्मिकता की उच्चतम अवस्था को छुआ। इसी के बल पर वे एशिया के महाप्रकाश के रूप में प्रतिष्ठित हुए। शाश्वत परिवर्तन नियम, और मानव की आत्मनिर्भरता के साथ ही प्रत्येक का चहुँमुखी विकास उनके अनुकरणीय और ग्राह्य मार्ग, व सर्वथा कल्याणकारी सन्देशों के केन्द्र में था, जिसकी प्रासंगिकता उनके अपने काल से भी आज कहीं अधिक है। बुद्धपूर्णिमा के सुअवसर पर तथागत गौतम बुद्ध के दर्शन, मार्ग और सदा कल्याणकारी सन्देशों का सुप्रसिद्ध इन्डोलॉजिस्ट व चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति डॉ0 रवीन्द्र कुमार अपने इस लेख के माध्यम से वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सुन्दर विश्लेषण कर रहें हैं।

डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

सिद्धार्थ गौतम, जो बुद्ध स्तर को प्राप्त हुए और एशिया के महाप्रकाश के रूप में भी स्थापित हुए, का जन्म कपिलवस्तु (शाक्य गणराज्य की राजधानी) के लुम्बिनी वन (वर्तमान नेपाल) में रानी महामाया के गर्भ से 563 ईसा पूर्व में हुआ थाI रानी महामाया शाक्य कुल के राजा शुद्धोदन की पत्नी थींI शुद्धोदन के शाक्य कुल का सम्बन्ध इक्ष्वाकु वंश से था, जिसमें भरत, हरिश्चंद्र, मान्धाता, रघु एवं भगीरथ जैसे राजा एवं मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम, और प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव या ऋषभनाथ भी उत्पन्न हुए थेI

सिद्धार्थ के जन्म के समय स्थानीय (क्षेत्रीय) और राष्ट्रीय, दोनों, स्तरों पर सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ अति विषम थीं। सामाजिक व्यवस्था अव्यवस्थित थीI आपसी प्रेम, समन्वय और सहयोग की समाज में भारी कमी थी। राजनीतिक विषयों के प्रबन्धन और कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए उत्तरदायी जन कर्त्तव्य-विमुख थे। वे एक-दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्रों में संलग्न थेI अधिकतर गृहस्थी भी आपसी विवादों, मतभेदों एवं झगड़ों में उलझे हुए थे। लोग समुचित न्याय से वंचित थे। आमजन शोषण और अत्याचार के शिकार थेI 

धार्मिक क्षेत्र भी अपवाद नहीं था। इस क्षेत्र की अधिकांश गतिविधियाँ एकांगी और भेदभावपूर्ण थीं। वे आमजन के लिए कठिन और अभिशाप जैसी बन गईं थीं। कुलीन और आर्थिक रूप से सम्पन्न जन भी सामान्यतः प्रसन्न एवं सन्तुष्ट नहीं थे। उनका जीवन भी दुखों से भरा था। 

यथार्थ ज्ञान के बल पर बोधिसत्त्व से बुद्धत्व

इस प्रकार, सभी आम और खास का जीवन, न्यूनाधिक, दुखों व कठिनाइयों से भरा था, शान्ति से बहुत दूर था। ऐसे कठिन समय में, अर्थात् जब जीवन में शान्ति और सन्तुष्टि दूर की कौड़ी थीं, सिद्धार्थ गौतम ने यथार्थ ज्ञान के बल पर बोधिसत्त्व से बुद्धत्व अवस्था को प्राप्त किया। 

बोधिसत्त्व से बुद्धत्व अवस्था की प्राप्ति के व्यक्तिगत विषय होने के बाद भी तथागत गौतम बुद्ध ने “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, लोकानुकम्पाय” का स्वयं अद्वितीय उदाहरण बनते हुए –महादीपक (प्रकाश स्रोत) सिद्ध होते हुए, समय और परिस्थितियों की माँग के अनुरूप सर्वप्रथम करुणा को, जो शाश्वत, सर्वोच्च तथा स्वाभाविक मानवीय मूल्य अहिंसा की पूरक है, मनुष्य की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों –व्यवहारों के केन्द्र में स्थापित किया। शाक्यमुनि ने प्रत्येक का स्वयं अपने जीवन में, और परस्पर व्यवहारों में करुणा पालन का आह्वान किया, एवं प्रत्येक स्थिति में हर एक से सामाजिक आचरणों में करुणा को केन्द्र में रखने की अपेक्षा की। उस समय की परिस्थितियों में तथागत गौतम द्वारा उठाया गया वह एक अभूतपूर्व कदम था, जिसके माध्यम से लोगों को, विशेषकर सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में समानता की परिधि में लाने का अति सुन्दर तथा श्रेष्ठ कार्य प्रारम्भ हो सका। इस अभूतपूर्व और बहुत बड़े कार्य के माध्यम से उन्होंने  स्वयं बौद्ध परम्परा को एक असाधारण आयाम दिया। इसके साथ ही, उन्होंने अज्ञानता का पर्दा हटाकर भारतीय दृष्टिकोण और जीवन मार्ग को, जो एक लम्बे काल से अन्धकार के आवरण ढका था, समुचित उत्साह से भरपूर किया।        

अपने सत्याधारित, अनन्य, अति श्रेष्ठ और कल्याणकारी विचारों तदनुसार अद्वितीय व क्रान्तिकारी कार्यों के बल पर गौतम बुद्ध, निस्सन्देह, गत दो हजार पाँच सौ वर्षों की समयावधि में भारत भूमि पर उत्पन्न हुए महानतम भारतीयों में से प्रथम के रूप में रखे जाने के सुयोग्य हैं। हम शाक्यमुनि गौतम के, उनके अतुलनीय –सदा अनुकूल तथा कल्याणकारी विचारों और उनके द्वारा किए गए अभूतपूर्व मानवीय कार्यों के लिए कृतज्ञ हैंI विशेष रूप से सामाजिक-धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक के साथ ही आध्यात्मिक क्षेत्र में उनके क्रान्ति-स्वरूपी अभूतपूर्व योगदान के लिए, जिसके लिए वे एशिया के महाप्रकाश के रूप में भी सुशोभित हैं, हम तथागत के आभारी हैं।  

मानवता के लिए उत्कृष्ट योगदान

गत दो हजार पाँच सौ वर्षों की समयावधि में सबसे महान भारतीयों में से एक के रूप में तथागत गौतम बुद्ध ने समग्र रूप से मानवता के लिए विशेषकर निम्नलिखित क्षेत्रों में अति उत्कृष्ट योगदान दिया: 

नैतिक मानदण्डों और ध्यान के अपने गहन अन्वेषण के आधार पर उन्होंने मानव-विश्व के समक्ष “चत्वारि आर्यसत्यानी” –चार आर्य सत्य सिद्धान्त के माध्यम से जीवन की वास्तविकता को सरल व सीधे ढंग से प्रस्तुत किया। यह दार्शनिक अन्वेषण, निस्सन्देह, क्रमबद्ध विश्लेषण पर आधारित है और इस क्षेत्र में शाक्यमुनि गौतम का प्रथम  व अद्वितीय योगदान भी। चार आर्य सत्यों में सम्मिलित हैं: दुख-सम्बन्धी सत्यता, दुख-उत्पत्ति की सत्यता, दुख-निवारण (मुक्ति) सम्बन्धी सत्यता, एवं दुख-मुक्ति (निवारण) के मार्ग की सत्यता। 

संसार के समक्ष उक्त वर्णित चार आर्य सत्यों की वास्तविकता को प्रस्तुत करते हुए गौतम बुद्ध ने बलपूर्वक यह कहा कि जीवन में दुख ही प्रथम सत्य है। जन्म, पुनर्जन्म, रुग्णता, असमर्थता (शारीरिक-मानसिक), वृद्धावस्था और मृत्यु दुख हैं। निर्वासित अवस्था, शोक, असन्तोष, आघात और आश्चर्य दुख हैं। अप्रिय से मिलन, प्रिय से विछोह, और कामना पूर्ति न होना दुख है। उन्होंने आगे यह कहा कि तृष्णा –लालच या लालसा दुख का मूल कारण है; आनन्द की इच्छा, जीने की इच्छा, सम्पत्ति-अर्जन, और सत्ता अधिग्रहण की लालसा दुख का कारण है। दुख की उत्पत्ति का कारण, इस प्रकार, उस प्राप्ति की लालसा है, जो सुखद प्रतीत होता है और उससे असन्तोष है, जो (पहले ही) पास है। परिणामस्वरूप पुनर्जन्म, असन्तोष, मृत्यु और पुनर्जन्म का क्रम…I यह असन्तोष ही समाज में मतभेदों, मनमुटावों, विवादों और संघर्षों का कारण भी हैI 

तृतीय आर्य सत्य के सम्बन्ध में शाक्यमुनि गौतम ने बताया है कि यह दुख-निवारण से सम्बन्धित है; इसकी स्थिति इच्छा या लालसा से मुक्त होने के बाद प्रकट होती हैI अर्थात्, यह लालसा व असन्तोष की जकड़न से मुक्ति, एवं पुनर्जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र का अन्त हैI अन्त में, दुख-मुक्ति के लिए सत्य “आर्य आष्टांगिक मार्ग” का अनुसरण है। “आर्य आष्टांगिक मार्ग” का अनुसरण कर –करुणामय (शालीन) व्यवहार, जीवन में अनुशासन के विकास और इसके निरन्तर पालन, सावधानी और ध्यान-अभ्यास आदि द्वारा तृष्णा, असन्तोष, बन्धन और मृत्यु, तथा पुनर्जन्म चक्र का अन्त सम्भव हैI यह बुद्ध-स्थिति –बुद्धत्व की प्राप्ति है। यह स्थिति असाधारण है, लेकिन इसका मार्ग सीधा है, एवं  सबको सुलभ अथवा प्राप्य हैI इस सम्बन्ध में जापानी विद्वान डोगेन जेनजी का निम्नलिखित कथन अति साधारण प्रतीत होने पर भी, न्यूनाधिक (एक सीमा तक), सारगर्भित है:    

“बुद्ध बनने का एक सरल उपाय है: जब आप व्यर्थ के कर्मों से बचते हैं, तो आप जन्म और मृत्यु से जुड़े हुए नहीं होते, आप समस्त संवेदनशील प्राणियों के प्रति दयालु (करुण) होते हैं, तथा वरिष्ठों के प्रति सम्मान एवं कनिष्ठों के प्रति दयालुता (करुणा) रखते हैं। किसी वस्तु को छोड़कर अथवा उसकी इच्छा न करते हुए, किसी विचार या चिन्ता से मुक्त होते हैं, तो (ऐसी स्थिति में) आपको बुद्ध कहा जाएगा। किसी अन्य वस्तु की (आप) खोज मत करो।“ 

आर्य आष्टांगिक मार्ग के प्रतिपादन के सम्बन्ध में, जिसके सभी मार्ग सम्यक् (उचित, कल्याणकारी व योग्य) अथवा मध्य मार्ग से प्रारम्भ होते हैं, स्वयं गौतम बुद्ध ने यह कहा है, “आर्य आष्टांगिक मार्ग ही, जिसमें सम्यक् दृष्टि,  सम्यक् वचन, सम्यक् संकल्प, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् स्मृति एवं सम्यक् समाधि सम्मिलित हैं, दुख दूर करने, रोकने और इससे पृथक होने का वास्तविक मार्ग है; यही मुक्ति का मार्ग भी है।”

चिन्ता, तनाव और दबाव से मुक्त बनाने का आह्वान

गौतम बुद्ध ने लोगों का सम्यक् अथवा मध्य मार्ग का अनुसरण करते हुए जीवन को चिन्ता, तनाव और दबाव से मुक्त बनाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि शान्ति और समृद्धि प्राप्त करना जीवन का उद्देश्य है। किसी को भी चिन्ता की स्थिति में नहीं रहना चाहिए। विपरीत इसके, सभी को दुखों के मूल कारण का पता लगाना चाहिए, और एक नायक की भाँति दुखों से मुक्त होना चाहिए। 

दुख-स्थिति की सत्यता, दुख के कारण, निवारण और उपाय के सम्बन्ध में तथागत गौतम बुद्ध की प्रतिपादना स्वयं प्रयासों द्वारा मावनोत्थान के लिए सुझाया गया एक अभूतपूर्व मार्ग था; उस मार्ग की महत्ता –प्रासंगिकता आजतक भी अक्षत है। वह, जैसा कि कहा है, सरल है, सुलभ है, व्यावहारिक है, और कारगर है। इस सन्दर्भ में ब्रिटिश लेखक और शिक्षक स्टीफन बेचलर का कथन महत्त्वपूर्ण और विचारणीय है। उन्होंने कहा है, “चार आर्य सत्य हठधर्मिता की अपेक्षा व्यावहारिक हैं। ये सिद्धान्तों के संग्रह होने की अपेक्षा (जीवन में) अनुकरणीय कृत्यों का मार्ग सुझाते हैं। चार आर्य सत्य वास्तविकता के विवरण होने की अपेक्षा (सुचारु मानवीय) व्यवहारों के लिए निर्देश हैं। बुद्ध ने स्वयं अपनी तुलना एक ऐसे चिकित्सक से की, जो अपने चिकित्सीय कार्य से व्यक्ति के जीवन को रोगमुक्त करता है –उसे स्वस्थ बनता है। ऐसी चिकित्सा का प्रारम्भ किसी को  (एक दम) सत्य के निकट लाने की योजना नहीं, अपितु व्यक्ति के जीवन को तुरन्त फलने-फूलने हेतु सक्षम बनाना है, आशानुसार (इसके माध्यम से) एक विरासत को छोड़कर जाना है, जो एक के बाद एक लाभकारी परिणामों को मृत्यु के बाद भी निरन्तर बनाए रखे।“   

जीवन-दृष्टि को एक अभूतपूर्व आयाम

गौतम बुद्ध ने अपने गहन दार्शनिक अध्ययन और विश्लेषण के माध्यम से भारतीय मार्ग और जीवन-दृष्टि को एक अभूतपूर्व आयाम दिया। परिणामस्वरूप, बौद्ध विचार भारतीय दर्शन में एक श्रेष्ठ प्रकटीकरण के रूप में स्थापित हुआ। स्वयं गौतम बुद्ध के जीवनकाल में उनका विचार –बौद्ध दर्शन, आध्यात्मिक क्षेत्र में अभूतपूर्व ऊँचाइयों तक पहुँचा। भारत के साथ ही बौद्ध दर्शन दक्षिण, दक्षिण-पूर्व, उत्तर, मध्य-पूर्व और सुदूर पूर्व एशिया के भागों तक भी पहुँच गया। बौद्ध दर्शन लाखों-करोड़ों जन के जीवन का मार्गदर्शक बन गया। शाक्यमुनि गौतम की अनुकूल-अनुकरणीय, व्यावहारिक, सरल और सुलभ शिक्षाएँ आमजन के जीवन की उद्धारक सिद्ध हुईं। बौद्ध विचार शीघ्र ही दर्शन की एक उच्च शाखा के रूप में विकसित हुआ; आध्यात्मिक क्षेत्र में इसने क्रान्ति कर डाली। बौद्ध धर्म दर्शन आज भी विश्वभर में  अपनी महत्त्वपूर्ण स्थिति रखता है। यह विश्वभर में करोड़ों जन के जीवन का निर्देशक –मार्गदर्शक है।

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गौतम बुद्ध ने जीवन के सभी क्षेत्रों में मानव समानता का आह्वान किया और इस  सम्बन्ध में उन्होंने जो कार्य किए, वे सामाजिक व्यवस्था में मौलिक परिवर्तन कर्ता सिद्ध हुएI उन्होंने मानव समानता का मार्ग प्रशस्त किया; उनका अनुकरण करते हुए अनेक ने समानता को अविलम्ब अपने जीवन का अभिन्न भाग बनाया। उन लोगों ने समानता को न केवल एक सिद्धान्त अथवा आदर्श के रूप में ही स्वीकार किया, अपितु इसे परस्पर व्यवहारों के साथ भी सम्बद्ध किया। इसीलिए, भारत में शाक्यमुनि गौतम के जीवनकाल में ही एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आया, जिसने बाद में संसार के कई अन्य देशों के लोगों के जीवन पर भी गहन छाप छोड़ी। गौतम बुद्ध के समानता के आह्वान का प्रभाव, दो हजार पाँच सौ से अधिक वर्षों के बाद भी, वर्तमान में विश्व में पचास करोड़ से भी अधिक बौद्ध दर्शन के अनुयायिओं –बौद्धों के जीवन में स्पष्टतः प्रकट होता है, जो जाति प्रथा के अभिशाप से मुक्त हैं। उनमें से अधिकांश लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान करते हैं, और समानता के आधार पर समृद्धि की ओर बढ़ने की इच्छा रखते हैं।

जनतंत्र ही शासन की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली

बहुत से लोग आज, कदाचित्, इस वास्तविकता से अवगत नहीं हैं कि गौतम बुद्ध न केवल भारत की मूल सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था, लोकतांत्रिक शासन प्रणाली, के प्रबल समर्थक और प्रशंसक थे, अपितु उन्होंने जनतंत्र को ही शासन की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली घोषित किया था। तथागत ने लोकतंत्र के महत्त्व, विकास और इसकी परिपक्वता पर अपने विचार भी प्रकट किए थे। उन्होंने लोगों का, वृहद् जन-कल्याण के उद्देश्य की पूर्ति के लिए, लोकतांत्रिक मूल्यों के सम्मान एवं उनके संरक्षण का आह्वान किया था। यद्यपि सिद्धार्थ गौतम के जन्म से शताब्दियों पूर्व भी, अर्थात् वैदिक युग में, भारत में “सभा”, “समिति” और “नरिश्त” जैसी लोकतांत्रिक संस्थाएँ कार्यरत रहीं थीं, लेकिन जिस प्रकार गौतम बुद्ध ने विषम सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों में लोगों का लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति वचनबद्धता –जनतांत्रिक मूल्यों के सम्मान का आह्वान किया, और इनकी दीर्घकालिक महत्ता को उनके मस्तिष्क व हृदयों में उतारने का कार्य किया, वह, वास्तव में, अभूतपूर्व था। यही नहीं, तथागत गौतम ने नैतिकता और सदाचार को राजनीतिक क्षेत्र में कामकाज के साथ सम्बद्ध कर आम और खासजन को नैतिक मूल्यों के प्रति, समानता की परिधि को विशाल बनाने के उद्देश्य से, सम्मान और प्रतिबद्धता हेतु प्रेरित करने का जो कार्य किया, वह भी असाधारण था। वह लोकतंत्र को, स्वयं उसके मूलाधार, नागरिक समानता, के बल पर विकसित और सुदृढ़ करने वाली अभूतपूर्व और ऐतिहासिक घटना थी। 

लोक व्यवस्था (लोकतंत्र) की प्रमुख और आधार रूपी विशेषताओं –व्यापक सहमति और स्वीकृति के सम्बन्ध में तथागत गौतम बुद्ध के आनन्द के साथ हुए एक वार्तालाप को, जिसमें सदाचार, महिलाओं और वृद्धों के प्रति समुचित आदर और पर-मत तथा पर-श्रद्धा को मान्यता देना सम्मिलित है, हम श्रेष्ठ उदाहरण के रूप में यहाँ प्रस्तुत कर सकते हैं। ऐसा करते हुए, हम लोकतान्त्रिक व्यवस्था के महत्त्व एवं जनकल्याण में जनतंत्र की भूमिका को भी, न्यूनाधिक, जान और समझ सकते हैं। वार्तालाप के प्रमुख अंशानुसार, अपनी एक यात्रा के समय तथागत गौतम बुद्ध जब आनन्द के साथ वज्जि संघ की राजधानी वैशाली के निकट पहुँचे, तो शाक्यमुनि ने आनन्द से पूछा:     

“क्या …यह वैशाली है?”

“हाँ भन्ते”, आनन्द ने उत्तर दिया। 

“आनन्द, क्या तुमने सुना है कि यहाँ के वज्जि निरन्तर जनसभाएँ करते हैं?”

“भगवन्, मैंने ऐसा ही सुना है।”

“क्या सभाओं में सभी सम्मिलित होते हैं?”

“हाँ तथागत! मैंने ऐसा भी जाना है।”

“आनन्द, वज्जि जब तक पूर्ण एवं निरन्तर जनसभाएँ करते रहेंगे, तब तक उनके पतन की नहीं, समृद्धि की आशा करनी चाहिए।”

“हाँ भन्ते”, आनन्द ने अपनी सहमति दी।

“और, आनन्द, जब तक वज्जि एक-दूसरे के साथ सामंजस्य रखते हैं, (वे) सामंजस्य से कार्य करते हुए, उन्नति करते हैं, सहमति को उन्नति का आधार बनाए रखते हैं, तब तक उनके पतन की नहीं, अपितु समृद्धि की आशा करनी चाहिए। (और) आनन्द, जब तक वे ऐसा कुछ नहीं करते, जो पूर्व स्थापित (अलोकतांत्रिक, सामंजस्यहीन, सहमतिविहीन) नहीं है (तथा जो सनातन नियम –व्यवस्था के विपरीत नहीं है); उस पूर्व स्थापित (लोकतांत्रिक, सामंजस्य तथा सहमतिमय) में से कुछ भी रद्द नहीं करते हैं, तब तक उनके पतन की नहीं, अपितु समृद्धि की आशा की जानी चाहिए।”

“मेरा भी ऐसा ही मानना है, भगवन्। “

“तथा, हे आनन्द! जब तक वज्जि बड़ों का आदर-सत्कार करते हैं, वे बड़ों के प्रति श्रद्धा रखते हैं, (सेवा-भाव से) उनकी सहायता करते हैं; (वे) उनके परामर्श तथा उनके (द्वारा कहे गए) शब्दों का आदर करना अपना कर्त्तव्य मानते हैं, तब तक उनके पतन की नहीं, अपितु समृद्धि की आशा करनी चाहिए।…और हे आनन्द ! जब तक वे किसी महिला या बालिका को बलपूर्वक, उसका अपहरण करके (और) रोककर नहीं रखते, तब तक उनके पतन की नहीं, अपितु समृद्धि की आशा करनी चाहिए। आनन्द ! तुम (यह भी) जान लो कि जब तक वज्जिजन नगर और देश के पवित्र स्थानों का आदर-सम्मान करते हैं, वे उनमें श्रद्धा व्यक्त करते हैं, उन्हें समुचित सहायता प्रदान करते हैं;  जब तक वज्जि पूर्व स्थापित (सु) संस्कारों को स्वीकारते हैं तथा उनमें गतिरोध उत्पन्न नहीं करते, तब तक उनके पतन की नहीं, अपितु समृद्धि की आशा की जानी चाहिए।…आनन्द ! मैं यह भी कहता हूँ कि जब तक वज्जि अर्हतों (सामान्यतः धर्म-कार्यों में संलग्न सम्माननीयों –अन्तर्ज्ञानियों) को समुचित संरक्षण प्रदान करते हैं, अर्हतों के शान्तिमय विहार और विचरण को सुनिश्चित करते हैं, तब तक वज्जियों के पतन की नहीं, अपितु उनकी समृद्धि की आशा की जानी चाहिए।”

गौतम बुद्ध
महात्मा बुद्ध

गौतम बुद्ध ने, इस प्रकार, अपने वार्तालाप के माध्यम से सात बातें स्पष्ट कीं। तथागत की वे बातें देशकाल की परिस्थितियों में वांछित आवश्यकताओं के अनुसार लोक व्यवस्था (जनतंत्र) की उन्नति और समृद्धि के लिए महत्त्वपूर्ण थीं; वे ग्राह्य थीं। मानव-समानता के विकास का मार्ग प्रशस्त करने वाली थीं। तथागत गौतम बुद्ध की उन बातों का वर्तमान में भी, परिस्थितियों की माँग के अनुरूप व्यवस्था की समृद्धि हेतु, आवश्यक परिमार्जन-परिष्करण के साथ अपनाए जाने की स्थिति में, पूरा-पूरा महत्त्व है। वे एक बड़ी सीमा तक वृहद् मानव-कल्याणार्थ सक्षम हैं। वे सात बातें थीं:

1. निरन्तर बैठना और सामूहिक निर्णय लेना;

2. लिए गए निर्णय को कर्त्तव्य मानकर सर्व सहयोग द्वारा क्रियान्वित करना;

3. स्थापित (सनातन) व्यवस्था और विधि का पालन करना; 

4. वृद्धों का सम्मान करना और उनके दिशानिर्देशों को स्वीकार करना (इस सम्बन्ध में तथागत गौतम का यह मानना था कि वृद्धजन, जो परिपक्व होते हैं, अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर परामर्श देते हैं; इसलिए, अधिकांश अवसरों पर उनके परामर्श लाभकारी सिद्ध होते हैं। साथ ही, कनिष्ठों द्वारा बड़ों का आदर-सत्कार किया जाना नैतिकता एवं सदाचार को अत्यधिक बल प्रदान करता है);

5. बालाओं-महिलाओं पर दबाव नहीं, उनके विरुद्ध बल प्रदर्शन नहीं (यह बात, निस्सन्देह, शाक्यमुनि गौतम की महिला-पुरुष समानता और साथ ही नारी-उत्थान की प्रबल इच्छा की द्योतक थी);

6. सहिष्णुता और सहनशीलता को (जो मानवीय व्यवहारों में अहिंसा का प्रकटीकरण हैं) केन्द्र में रखते हुए धर्म-पालन (विशेषकर सत्कर्मों में संलग्नता और समुचित रूप में कर्त्तव्य-पालन हेतु तत्परता); एवं       

7. धर्म-ज्ञानियों –धर्माचार्यों के प्रति श्रद्धा (जो पुनः व्यक्ति और व्यवस्था को नैतिकता एवं सदाचार से पुष्ट करने, कर्त्तव्य-निर्वहन और पर-मत तथा पर-श्रद्धा के आदर के लिए प्रेरणा देती है) I

ये सभी बातें, पुनरावृत्ति कर सकते हैं, देशकाल की परिस्थितियों और समय की माँग के अनुसार आवश्यक परिमार्जन-परिष्करण का विषय हैं। ये सार्वजनिक स्वच्छता का सन्देश देती हैं, जो भारतीयता की मूल भावना भी है। साथ ही, वृहद् मानव-कल्याण केन्द्रित होने के कारण ये सम्पूर्ण मानवता के लिए अनुकरणीय बन जाती हैं। 

कृपया इसे भी देखें :

गौतम बुद्ध प्रत्येक चल-अचल व दृश्य-अदृश्य को –हर एक उत्पन्न, निर्मित या गढ़ी गई वस्तु और विकसित विचार को अपरिहार्य और शाश्वत परिवर्तन नियम की परिधि में लाए, जो भारत के मूल दर्शन –विचार की अभिव्यक्ति और सम्पुष्टि थी। समय और स्थान की माँग के अनुसार परिमार्जन या परिष्करण इस शाश्वत परिवर्तन नियम का अनिवार्य भाग है। शाक्यमुनि गौतम ने प्रत्येक का, शाश्वत परिवर्तन नियम को केन्द्र में रखकर, समस्त गतिविधिओं –कार्यों और व्यवहारों के सञ्चालन का आह्वान किया। तथागत ने इसी शाश्वत परिवर्तन नियम को केन्द्र में रखते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ने का सन्देश दिया और, इस प्रकार, भारतीय मार्ग और जीवन दर्शन, साथ ही सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के उद्देश्य से तृतीय अतिमहत्त्वपूर्ण और दीर्घकालिक व स्मरणीय योगदान दिया। अपने विचारों और कार्यों की ऊँचाई के बल पर सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में ऐतिहासिक क्रान्ति करने वाले गौतम बुद्ध, निश्चित रूप से, गत दो हजार पाँच सौ वर्षों की समयावधि में उत्पन्न होने वाले महानतम भारतीयों में प्रथम होने के अधिकारी हैं। हम, भारतीय, भारत भूमि पर उत्पन्न हुए तथागत गौतम बुद्ध के “एशिया के महाप्रकाश” होने पर गर्व करते हैंI

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैंI

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