पिड़िया-भोजपुरी इलाके की लड़कियों के आत्म सम्मान का एक लुप्त प्राय पर्व

                                                                    

                                                                         *डॉ.आर.अचल

पिड़िया शब्द क तत्सम करने पर पिण्डिया होता है।प्रचीन लोक परम्परा में मूर्तियों के बजाय शक्ति उपासना में शक्ति की प्रतीक पिण्डियों की उपासन की जाती रही है आज भी हर गाँवो में काली-शीतल स्थानों में सात पिण्डियाँ स्थापित मिल जायेगी।प्रचीन शक्तिपीठों जैसे विन्ध्याचल आदि में मूलतः पिण्डियाँ ही है,आगे चल कर पिण्डियों के साथ मूर्तियाँ स्थापित होने लगी,स्थिति यह हुई कि मूल स्वरूप खो गया।

यहाँ बात हम पिड़िया त्यौहार की कर रहे है,भोजपुरी इलाके कायह कन्याओं का महत्वपूर्ण त्यौहार मुझे भूल ही गया था।शायद आपको भी भूल गया होगा,परन्तु आज प्रातःभ्रमण में कच्चे पोखरे की ओर जाते समय डीजे की तेज आवाज सुनायी दी,कुहरे में कुछ दिख नहीं रहा था,फिर गेहूँ बोये खेत में पानी के लिए मेड़ बनाते एक युवक से पूछ ही लिया यह कैसा डीजे और भीड़ है-तब पता चला कि आज पिड़िया है,फिर बचपन की यादे ताजा हो गयीं,जब आज के दिन सुबह बिना दातून किय, चावल के भूजा(फरूही) और गुड़ पोखरे पर खाया करते थे। 

   पिड़िया की शुरुआत गोवर्धनपूजा के दिन से होती है।कन्यायेगाय क गोबर से बनाये गोर्धन(पुरुष आकृति एवं पूरा घर परिवार)को कूट कर गोबर उठा लाती है।वैसे तो गोवर्धन पूजा की अनेक कथायें प्रचलित है,परन्तु कूटने की परम्परा की कथा बहुत कम प्रचलित है।इस संबंध में इस लाके में एक कथा है कि जब गोपियाँ यमुना में वस्त्ररहित होकर स्नान करती थी,उस समय कृष्ण उनके वस्त्र चुरा लेते थे।जिससे काफी अनुनय विननय के बाद वस्त्र देकर वहाँ से हट जाते थे।इसी से प्रेरित होकर श्रीकृष्ण के बाल मण्डली के एक युवा गोवर्धन वस्त्ररहित कन्याओं को देखने के लोभ में सिर पर हड़िया( मिट्टी का घड़ा) सिर पर रखकर यमुना के पानी में प्रवेश कर गये।श्रीकृष्ण को यह बात पता चल गयी।उस दिन वे स्नान करती कन्याओं से उस घड़े पर कंकड़ मारने को कहे,जिसस हड़ियाँ फूट गयी,उनके सिर पर चोटें भी आ गयी जिससे उनकी मृत्यु हो गयी। मरते समय गोवर्धन ने श्रीकृष्ण से अपने प्रयाश्चित के लिए वर माँगा कि हर साल इसी दिन लड़कियाँ गाय के गोबर से बनी मेरी आकृति के सिर पर हड़िया रख कर,मूसल के कूटेगी,जिसे देख कर कोई दूसरा व्यक्ति महिलाओं के साथ छेड़खानी करने का साहस न कर सके।

इस लोक कथा में यह संदेश है कि कन्यायें,महिलायें अपने सम्मान की रक्षा स्वयं करे,तथा अपने अपराधी को स्वयं दण्डित करें।

इस परम्परा में गाय के गोबर से लड़कियाँ खुद गोवर्धन बनाती है।अपने भाई को शाप देते हुए जीभ पर बेर आदि का कांटे चुभा कर गोवर्धन क गोबर प्रतिमा पर फेंक देती है,फिर पूजन कर मूसल से हड़िया पर प्रहार गोबर्धन को कूट देती है।इसके बाद पूरे गाँव की लड़कियाँ गोबर्धन से गोबर लूटती है,जिसे एक घर परइकठ्ठा,रात में घर के किसी बाहर वाले कमरे या एकांत वाले खाली घर में दीवार पर पिड़िया बनाती है।इस कमरे में पुरुष प्रवेश वर्जित होता है।पिड़िया बनाने से प्रतिदिन पूरे एक माह कार्तिक शुक्ल द्वितीया से अगहन शुक्ल द्वितीया तक, इस स्त्रीकी प्रतीक पिड़िया को भोग लगाकर गीत-नृत्य और प्रहसन कर अपने विजय का उत्सव मनाती है। 

इस बीच गाँव-मुहल्ले में यदि कोई रिश्तेदार आ गया तो उसकी खैर नहीं है।उसके साथ तमाम तरह से प्रहसन कर तंग करती है।यह प्रक्रिया पूरे एक माह यानि कार्तिक शुक्ल द्वितया से अगहन शुक्ल द्वितिया तक चलती है।अंतिम दिन व्रत रख कर,उसे दीवार से उखाड़ कर,एक टोकरी में रख कर, उस दीप जलाकर,अपनी विधा से पूजन करती है इसके बाद गाँव के किसी खास पोखरे में भोर के समय प्रवाहित कर देती है।इस समय वस्त्राभूषण के साथ सज धज कर,गीत नृत्य के साथ पोखरे पर अपने सम्मान व स्वतंत्रता का हर्षोल्लाल मनाती है। 

पिछले कुछ सालो से समान्यतया लड़कियाँ स्कूल जाने लगी तब से इसका यह पर्व लुप्त प्राय लग रहा था,परन्तु इस साल डीजे और लाइट के साथ इस त्यौहार को पुनर्स्थापित होते देख कर प्रसन्नता हुई।

दरअसल यह पर्व स्त्री के स्वत्व सम्मान का पर्व है।यहाँ कन्यायेपूरी स्वतंत्रता के साथ आत्मलाप गाती है,पिड़िया के गीतो में स्त्री जीवन की वेदना,आनन्द और विजय का भाव एक साथ होता है।

     पहले समय में जब कन्याओं का विवाह के समय विदाई नही होती थी,कन्याये मायके में ही रह जाती थीएक या पाँच, सातया नवें साल में विदाई होती है।उस समय पिड़िया के दिन ससुराल पक्ष से मिठाइयाँ और कपड़े भेजने की प्रथा था।यह प्रथा अब नहीं रही, क्योकि विवाह मे ही कन्याये विदा कर दी जाती है।

यह रवि अर्थात गेंहूँ के बुआई का समय होता है,पहले बैलों खेती होती थीदिन-रात काम करने के बाद, जीवन का उत्सव,आनन्द,मनोरंजन,सृजन का पर्व है पिड़िया,जिसे आज भी भोजपुरियाँ गाँवो ने जीवित रखा है।

                                         *लेखक-ईस्टर्न साइंटिस्ट शोध पत्रिका के सम्पादक,आयुर्वेद चिकित्सक,वर्ल्ड आयुर्वेद कांग्रेस के संयोजक सदस्य,लेखक एवं विचारक है।

Leave a Reply

Your email address will not be published.

fifteen + 16 =

Related Articles

Back to top button