नई शिक्षा नीति: नक्सलवाद और अलगाववाद को मात देने में सक्षम

—प्रो सतीश कुमार

नई शिक्षा नीति 34 वर्षो बाद बनी है. प्रधानमंत्री ने इसे समाज और देश को बदलनेवाला बताया. विपक्षी  दलों ने इसकी खूब आलोचना भी की. खैर लोकतांत्रिक ब्यवस्था में ऐसा होना स्वाभाविक और लाजिमी भी है. लेकिन इसके विभिन्न पहलुओ को देखने पर लगता है कि पहली बार कोई ऐसी शिक्षा नीति को लाया गया है जो देसज ज्ञान की बात करता है. विशेषकर जनजातीय इलाकों में जहाँ पर पढ़ाई दम तोड़ चुका होता है. भाषयी अड़चन एक बीमारी बन चुकी होती है. नक्सलवाद और अलगाववाद लोगो के बीच अपनी पहचान और आत्मीयता बना चुका होता है. ऐसे हालात में सबसे पहला शिकार स्कूल और उसमे पढ़ने वाले बच्चे बनते है. झारखण्ड और बिहार में अनेको ऐसे स्कूल है जो दो दशकों से बंद पड़े है क्योंकि वहाँ या तो स्कूल नक्सलियों का कब्जे में है या वह विद्यालय पुलिस छावनी बन चुका है. बिहार में पिछले एक दशक में काफी बदलाव दिखा है लेकिन झारखण्ड के कुछ जिले आज भी पूरी तरह से प्रभावित है. 2020 की शिक्षा नीति कैसे नक्सलवाद से लड़ने में सक्षम  और कारगर है, इस बात कि चर्चा जरूरी है.

इसमें कई नयी बातें जोड़ी गयी है जो पहले कभी शिक्षा ब्यवस्था की अंग बनी ही नहीं. मसलन छेत्रीय भाषा में पढ़ाई की ब्यवस्था. ट्राइबल राज्यों में स्कूल नहीं चलने का सबसे अहम् कारण भाषायी मुसीबत थी. बच्चे न तो इंग्लिश समझते और न ही हिंदी बोल पाते है.उनके बीच उन्ही की भाषा में शिक्षा की ब्यस्था से बहुत कुछ बदल जाएगा. दूसरी विशेषता समाज को मजबूत और महत्वपूर्ण इकाई बनाने की भी है. बालभवन की स्थापना और उसकी देख रेख में गावं वालों की भूमिका. गावं में नक्सल वाद ने अपना पैर कैसे जमाया? जब गावं कमजोर बन गया, स्कूल गावं के लोगो के प्रभाव में काम करता था, वह भी टूट गया. बच्चे दूर दराज ब्लॉक के स्कूल में जाने लगे, साधन सम्पन्न शहरों की ओर चले गए. गावं के भीतर एक सामाजिक ढांचा टूटता चला गया और इसका फायदा नक्सलियों को मिलने लगा. वही स्तिथि भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में अलगाववाद को लेकर बनी. इन समस्याओं के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारण और भी है लेकिन शिक्षा की कमी ने हिंसा को फैलने का रास्ता दिया. 2020 की शिक्षा ब्यस्था में जनजातीय ज्ञान को भी अहमियत दी गयी है. देसज ज्ञान को बढ़ाने के लिए विशेष महत्व दिया गया है. जनजातीय समुदाय के बीच संचित ज्ञान को भी बटोरने और संग्रहित करने की बात इस नीति में कही गयी है.

पर्यावरण की सुरक्छा और सतत विकाश की अवधारणा को भी मजबूत बनाने की योजना है. रोजगार जनित ब्यस्था इसका सबसे मजबूत अंग है. अभी तक स्कूली शिक्षा के बीच ही गावं और शहर की खायी खुद जाती थी. रोजगार स्कूल के आधार पर मिलता है. गावं और देश की समझ बड़े बड़े अनुष्ठान से उत्तीर्ण होने वाले आई.आई.टी के विधार्थी को भी नहीं बन पाती है, क्योंकि गावं के संदर्भ में उनकी समझ शिक्षा तंत्र के जरिये पनप ही नहीं पायी. लेकिन नयी शिक्षा योजना में लोकल से ग्लोबल के बीच एक मजबूत सेतु बनाने की कवायद की गयी है. ट्राइबल बच्चो के लिए बॉर्डिंग और फ्री शिक्षा का प्रबंध भी इसकी विशेषता है. अगर गावं और शहर के बीच स्कूली दरार खत्म हो गया तो शहरो की ओर पलायन भी बहुत हद तक थम जाएगा. इसलिए प्रमुख समाजसेवी और चिंतक सुनील अम्बेकर जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में राष्ट्रीय-सह प्रचारक प्रमुख है, इस शिक्षा ब्यस्था को राष्ट्र निर्माण के लिए एक मुख्य करक मानते है. प्रमुख शिक्षा विद और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्छ प्रोफ डी.पी सिंह शिक्षा नीति को एक क्रन्तिकारी कदम मानते है. भारतीय शिक्षा कभी भी भारत की नहीं रही. स्कूल में बच्चों को समर वर्कशॉप में जो काम दिए जाते है, वह अपने देश को जानने को छोड़कर सबकुछ होता है.

इटली की वास्तुकला, चीन की चित्रकला और यूरोप के इतिहास की जानकारी. वहां अपना देश कही नहीं है. ब्रिटिश नीतिकार मैकाले ने सही कहा था कि भारत आनेवाले कई शताब्दियों तक ब्रिटेन का गुलाम शिक्षा पद्धति की वजह से बना रहेगा. इतने वर्षो में भारत को कोई भी सामाजिक वैज्ञानिक एक नए सिद्धांत को देने में सफल नहीं रहा है. केवल विदेशी ढांचे का अनुपालन हम तन्मयता से करते गए. उच्च शिक्षा में बनाए गए विषय भी पश्चिमी नक़्शे कदम पर थे. आजादी के बाद शिक्षा के छेत्र में कई चुनौतियां देश के सामने आयी, उसमे एक बेहद गंभीर समस्या भाषा की समस्या थी. भाषाई विषमता ने देश को खंडो में बाँट दिया. एक वर्ग अंग्रेजी स्कूलों से निकलने वाला इलीट वर्ग बनता गया, और शेष सरकारी स्कूलों में पढ़कर बेतरतीब ब्यस्था के शिकार बनते गए. प्रतियोगिता परीक्छाओ में उच्च कोटि की नौकरिया भी अंग्रेजी में पढ़ने वालो की मिलती गयी. 70 वर्षो में मातृभाषा की स्थति अछूतो जैसी हो गयी. यह परिवर्तन समाज के लिए काफी पीड़ादायक रहा. गांधीजी ने इस समस्या के सन्दर्भ आगाज किया था. उनकी दिव्य दृष्टि ने भविष्य का लेखा जोखा कर लिया था. गाँधी जी की नयी तालीम बच्चो को उनकी मातृभाषा में पढ़ाने पर बल देती है. ट्राइबल छेत्र ज्ञान से भरपूर है. केंद्र और राज्य की राजनीतिक ब्यस्था ने उनके सामाजिक, आर्थिक तंत्र को कभी स्वीकृति नहीं दी.

उनके साथ प्रगतिशील नहीं होने का एक धब्बा लग गया. फिर उनका अनादर और त्रिष्कार किया गया जो नक्सलवाद और अलगाववाद में दिखाई देने लगा. नक्सलवाद सही मायने में आर्थिक से ज्यादा सामाजिक विद्वेष के कारण पनपा. जब समाज ने उनके सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत को त्रिष्कृत कर दिया. सामाजिक विषंगतियो ने आर्थिक मुसीबत को जन्म दिया. खेत खलिहानों से उनसे काम छीने जाने लगे. उसी दौरान माओवादी आंदोलन अपना शिकंजा कस रहा था. उनके बच्चे स्कूल और कॉलेज से दूर चलते गए. राज्य इस गैप को पाटने में कारगर नहीं बन पाया. इस तरह रेड कॉरिडोर भारत के अनेको राज्य और जिलों में फैलता चला गया. अपने दूसरे प्रारूप नक्सली आतंकी और लुटेरों के रूप में दिखाई देने लगे. उनका मुख्य प्रयास राज्य के द्वारा किये जा रहे काम में बाधा डालने की बन गयी. सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता ने नक्सलवाद को और हवा दी. जिस तरीके से शिक्षा नीति में जनजातीय और अनुसूचित जाति के लिए विशेष ब्यस्था की गयी है उससे भारत की आत्मा जो आज भी गावं में बसती है, पुनः निखरकर खड़ी हो जाएगी और नक्सलवाद और अलगाववाद को पनपने को कोई रास्ता नहीं मिल पाएगा.

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