राजपथ की यादें , कर्तव्य पथ का अनुभव

रमेश चंद शर्मा
राजपथ पर अनेक बार राष्ट्रपति भवन के परिसर से लेकर इण्डिया गेट पैदल, दौड़कर, साईकिल, स्कूटर, मोटर साईकिल, कार से अकेले, समूह में, परिवार, साथियों के साथ छः दशक से ज्यादा घूमने फिरने, दौड़ने भागने, चलने फिरने, घास पर बैठने, लेटने, बातचीत करने, कविता, गीत, गाने, भजन सुनने सुनाने, कथा , रामायण, कीर्तन का आनंद उठाया है। राजपथ होते हुए भी चना चबेना, चने मुरमुरे, मीठी खील, मूंगफली, चना जोर गरम बाबू, मलाया मजेदार, मटके वाली कुल्फी, लंबी तिनके वाली चुस्की, सस्ती सुंदर बर्फ, बर्फ के गोले, आईसक्रीम, बूढिया के बाल, औंरंज वाली खट्टी मीठी गोलियां, नमकीन चने वाली दाल, तरह तरह के पक्षी, जानवर, डिजाइन बना कर बेचने वाले चिंगम जैसी चीज़ जिसका नाम ही भूल गए, फलों की चाट, गोलगप्पे, पानी के पताशे, गुपचुप, चाट पकौड़ी, दही भल्ले, आलू की टिकिया, आलू कचालू की चाट, तरह तरह के पापड़, पकौड़ी, दालमोट, दौलत की चाट, घर से साथ लेकर गए जलपान, नाश्ता, भोजन आदि का आनंद दिन ही नहीं शाम के बाद देर रात तक भी उठाया। कितनी बार गिनती करना आसान नहीं है। राजपथ पर हम मस्ती से, सहजता सरलता से आराम से घूमते थे। घर से चद्दर, दरी, चटाई ले गए अगर यह नहीं तो घास पर ही सही। कोई रोक टोक नहीं, आम जन, आम खोमचे वाला, टोकरी वाला, थैला, बोरा, थैली में सामान बेचने वाला बच्चे से लेकर बूढ़े तक अपना पेट पालने का जुगाड उस राजपथ पर कर सकता था। सैकड़ों नहीं हजारों लोगों का मेला लग जाता था।
राजपथ का किस्सा संक्षिप्त में बताया।
अब कर्तव्य पथ की भी आप बीती सुनलो। 2022 का सितंबर का महिना दोपहरी का समय, खिलखिलाती, चिलचिलाती धूप। अपन कर्तव्य पथ का आनंद लेने, कर्तव्य पथ का सुख लेने, कर्तव्य का अहसास करने पहली बार कर्तव्य पथ पर अग्रसर हुए। पुलिस का टैंट या चौकोर गुमटी जैसा ढांचा नजर आया तथा साथ ही पुलिस के बैरियर भी। पास जाने पर हरे रंग के बोर्ड पर विभिन्न भाषा में लिखा कर्तव्य पथ पढ़ने को मिला, हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी, उर्दू में। सोचा जीवन में कर्तव्य तो अनेक बार, बार बार निभाया या निभाने का प्रयास किया है। लगा चलो आज पहली बार कर्तव्य पथ पर चलकर भी देखेंगे। आगे बढ़ें किसी ने रोका नहीं, टोका नहीं। अब हम कर्तव्य पथ पर चढ़ गए। खूब ढ़ेर सारा बदलाव नजर आया। लोग बहुत ही कम नजर आ रहे हैं। दोपहरी है इसलिए क्या।
मगर पहले दोपहरी में, लंच समय पर जगह जगह पेड़ों के नीचे लोगों के झूंड के झूंड नजर आते थे। विभिन्न क्रियाकलापों में। कहीं धर्म चर्चा, भजन, कीर्तन, बातचीत तरह तरह की, कहीं गप्प लड़ाते, हंसते हंसाते, आराम फरमाते, सुस्ताते, थकान उतारते लोग नजर आते। अलग ही रौनक रहती राजपथ पर जनता की। कोई आओ, कोई बैठो, कोई लेटो, कोई खाओ, कोई सो जाओ। सबके लिए खुला था राजपथ।
कभी कभी बड़ी छोटी रैली, बैठक, धरना, प्रदर्शन, विरोध, समर्थन, यात्रा, जुलूस भी आयोजित होता, जो बोट क्लब तक जाता। मंच सज्जता, दर्जनों से लेकर लाखों की संख्या तक लोग जुटते। धीरे धीरे रोक बढ़ती गई, कानून नियम लागू हुए, यह सब राजपथ से दूर किए जाने लगे। इन सबके बावजूद फिर भी आम जन, लोगों का मेला, मिलाप, आवागमन जारी रहा।
अब कर्तव्य पथ दूर दूर तक खाली नजर आ रहा है। कर्तव्य पथ पर चलना आसान थोड़े ही है। कर्तव्य पथ पर चलने को हिम्मत, क्षमता, शक्ति, ऊर्जा, काबिलियत, हक पैदा करना है। आज्ञा भी चाहिए इस पथ पर चलने की।
सड़क के दोनों किनारे पर कच्ची मिट्टी, भूमि रहती थी। कर्तव्य पथ सख्त होता है इसलिए दोनों ओर सड़क के समतल ही सुंदर बढ़िया चमकदार रंगीन पत्थर लगाए गए है।
समतल इसलिए कि गाड़ी सड़क से सीधे इस पर आसानी से पहुंचे। ऐसे में इसे पैदल पटरी नहीं कह सकते। यह सड़क का एक हिस्सा है केवल रंग अलग और पत्थर से बना है।
कर्तव्य पथ के दोनों ओर आजकल अधिकतर पेड़ पौधे पंक्तिबद्ध है। दूर दूर तक का हिस्सा एक जगह खड़े होकर देखा जा सकता है। अनुशासन विविधता, अनेकता, भिन्नता को सहन नहीं कर सकता।
जो इधर उधर थे उन्हें अनुशासित कर सबक सीखा दिया गया है। अपनी औकात में रहो अन्यथा कर्तव्य का कानून, नियम, डंडा तड़ीपार करने की ताकत रखता है और उसने कर दिखाया। इस क्षेत्र के बहुत सारे पेड़ बदरपुर बॉर्डर के पास पहुंचा दिए गए हैं। एक एक पेड़ का स्थान बदलने में मोटा खर्च आया है तो क्या हुआ। सौंदर्यकरण कर्तव्य पथ पर जरूरी है। राजपथ पर उन्हें अधिकार, हक था सीना तान कर खड़े रहना का। लंबे समय तक उन्होंने यहां के जलवे, दुःख सुख, अच्छाई बुराई देखी, झेली है। अब कर्तव्य पथ पर इनका स्थान नहीं है।
कुछ कुछ दूरी पर पेड़ के नीचे दो दो की संख्या में दिल्ली पुलिस के जवान कहीं पुरुष एवं कहीं महिला बैठे हैं। भला हो मोबाइल फोन का कि वे इसके कारण अपने काम में व्यस्त हैं।
अच्छा है कि फोन है अन्यथा समय काटना मुश्किल हो जाता।
कहीं कहीं सुरक्षा बलों के जवान भी तैनात हैं। वे भी पेड़ की छाया में, घास पर बैठे हुए है। उधर सड़क पर सुरक्षा बल का वाहन आ रहा है, दोपहर का समय है। संभव है सुरक्षा कर्मियों के लिए कुछ खाद्य सामग्री हो।
सड़क किनारे चलने पर अपन को गर्मी लगी सोचा पेड़ की छाया में चलकर रास्ता तय किया जाए या थोड़ी देर छाया में बैठकर पुरानी यादें ताजा कर ली जाए।
ऐसा किया था कि कुछ कदम के बाद एक नौजवान नीली वर्दी वाले ने जो वहां ड्यूटी पर तैनात है, ने बड़ी ही शालिनता, सहज आवाज में कहा बाबाजी आप क्या तो सड़क किनारे चलें या पेड़ों के पार जो पत्थर की राह बनी है, उस पर चलें। मैंने कहा बेटा किसी पेड़ की छाया में थोड़ी देर बैठने का मन है। युवा को मेरी उम्र पर तरस आया होगा उसने कहा इजाजत तो नहीं है मगर आप दूर उस किनारे की ओर चले जाओ। नियम कानून नहीं मगर उस युवक का संस्कार, व्यवहार, परिवार की परवरिश या मेरी उम्र के अपने परिवार का किसी का चेहरा मुझमें नजर आया हो जिसके कारण मैं कुछ क्षण एक पेड़ के नीचे सुस्ताने के बाद उठा और कर्तव्य पथ के किनारे किनारे चलता हुआ राष्ट्रपति भवन की ओर, उद्योग भवन की ओर पहुंचा।
अभी भी कहीं कहीं विकास कार्य में मजदूर लगे हैं। भूमिगत पैदल पारपथ बहुत सुंदर भारी भरकम खूबसूरत विशालकाय पत्थरों से निर्मित है, लंबा चौड़ा। ऐसे सुंदर पथ तो राजपथ पर कहीं नजर नहीं आते थे। लोगों का खूब आवागमन था। आज लोग नहीं नजर आ रहे हैं।
राजपथ की यादें ताजा हो गई मगर कर्तव्य पथ की यादें बनने ही नहीं दी जा रही है।
ऐसे कर्तव्य पथ जहां जन नहीं केवल विशेष, विशिष्ट, सत्ता के लोग ही ज्यादा चलेंगे। उनकी मर्जी से लोग चलेंगे। एक दिन का अनुभव ऐसा है। आगे क्या होगा देखते जाइए। संभावना बहुत अच्छी नहीं लगती।
नाम राजपथ था मगर जनता की जोरदार उपस्थिति दर्ज थी।
आज भी एक पेड़ पर दो बोर्ड लगे नजर आए जिन पर अंकित है कि यहां दोपहर में कार्यक्रम आयोजित किए जाते रहे हैं। संभव है वे किसी अधिकारी की नजर में नहीं आए इसलिए अभी तक बच गए। इसके बाद कब तक बचेंगे मालूम नहीं।
राजपथ तुझे सलाम। केवल नाम मात्र से कुछ नहीं होता। काका हाथरसी ने तो नामों को लेकर पूरी कविता ही रच डाली, सत्ता उसे पढ़ लेती, समझ लेती तो संभव है केवल नाम बदलने, कथनी के बजाय करनी और काम को जमीन पर उतारने में लग जाती। कर्तव्य पथ से जन को, जनता को, आम लोगों को दूर किया जा रहा है।
गरीब दास के महल अटारी, दुर्बल सिंह राजा पर भारी,
निर्मल सिंह गंदगी के मारे,
शादी लाल मर गए कुंवारे।।
यह गीत भी याद आ रहा है।
सच्चे फांसी चढ़ते देखे,
झूठा मौज मनाए, उड़ाए,
लोग कहें यह रब दी माया,
मैं कहता अन्याय ,
कि मैं झूठ बोल्या,
कोई ना भई कोई ना।।
रमेश चंद शर्मा

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