करीब तीन दशक से किसान आंदोलन का गवाह है टिकैत का सिसौली गांव, जानिए करीब से…

इस आंदोलन ने पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरा. 24 दिनों तक कमिश्नरी के घेराव के बाद अचानक चौधरी साहब ने आंदोलन समाप्त कर दिया तो बहुत से सवाल उठे. हालांकि मेरठ के किसान जमावड़े से दिल्ली औऱ लखनऊ की सरकार हिल गयी थी लेकिन यह दिखाने के लिए कि वे किसानों की ताकत से नहीं डरते कोई मांग मानी नहीं गयी और किसान खाली हाथ लौटे लेकिन निराश नहीं, नयी उम्मीद के साथ.

चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत और सिसौली गांव की दास्तान

किसान नेता राकेश टिकैत आज ग़ाज़ीपुर बार्डर से अपने गांव सिसौली पहुंचे, जहां भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष व राकेश टिकैत के बड़े भाई नरेश टिकैत समेत पूरा सिसौली गांव उनके स्वागत के लिये पलक पांवड़े बिठाये था. जी हां, वही सिसौली गांव, जो क़रीब तीन दशक से किसान आंदोलन का गढ़ रहा है. इस गांव की कहानी के बिना तो किसान आंदोलनों की कहानी कभी पूरी हो ही नहीं सकती.

राकेश और नरेश टिकैत के पिता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के जमाने से ही सिसौली गांव किसान आंदोलनों का गढ़ रहा है और यह सब खुद चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के अथक प्रयासों की बदौलत. आइए, आज जानने की कोशिश करते हैं चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत और उनके गांव सिसौली के साथ किसान आंदोलन के रिश्ते और उसकी कहानी को…

दोनों टिकैत भाईयों के पिता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के जीवन का सफर कांटों भरा था. 1935 में मुजफ्फरनगर के सिसौली गांव में जन्मे चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत का पूरा जीवन ग्रामीणों को संगठित करने में बीता. भारतीय किसान यूनियन के गठन के साथ ही 1986 से उनका लगातार प्रयास रहा कि यह अराजनीतिक संगठन बना रहे.

कांटों भरा था चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का जीवन

दोनों टिकैत भाईयों के पिता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के जीवन का सफर कांटों भरा था. 1935 में मुजफ्फरनगर के सिसौली गांव में जन्मे चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत का पूरा जीवन ग्रामीणों को संगठित करने में बीता. भारतीय किसान यूनियन के गठन के साथ ही 1986 से उनका लगातार प्रयास रहा कि यह अराजनीतिक संगठन बना रहे. 27 जनवरी 1987 को करमूखेड़ा बिजलीघर से बिजली के स्थानीय मुद्दे पर चला आंदोलन किसानों की संगठन शक्ति के नाते पूरे देश में चर्चा में आ गया लेकिन मेरठ की कमिश्नरी 24 दिनों के घेराव ने चौधरी साहब को वैश्विक क्षितिज पर ला खड़ा किया.

इस आंदोलन ने पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरा. 24 दिनों तक कमिश्नरी के घेराव के बाद अचानक चौधरी साहब ने आंदोलन समाप्त कर दिया तो बहुत से सवाल उठे. हालांकि मेरठ के किसान जमावड़े से दिल्ली औऱ लखनऊ की सरकार हिल गयी थी लेकिन यह दिखाने के लिए कि वे किसानों की ताकत से नहीं डरते कोई मांग मानी नहीं गयी और किसान खाली हाथ लौटे लेकिन निराश नहीं, नयी उम्मीद के साथ. मेरठ के घेराव ने किसानों का संगठन और एकता की परिधि को व्यापक बना दिया और उनको एक ईमानदार नायक मिल गया था, जिसके साथ देश के करीब सारे छोटे बड़े किसान जुड़ कर एक झंडे तले आने के लिए उतावले थे.

किसानों के हकों के सवाल पर राज्य और केंद्र सरकार से टिकैत की बार बार लड़ाई हुई, लेकिन उन्होंने आंदोलन को अहिंसक बनाए रखा. उनकी राह गांधी की राह थी और सोच में चौधरी चरण सिंह से लेकर स्वामी विवेकानंद तक थे. 110 दिनों तक चला रजबपुर सत्याग्रह हो या फिर दिल्ली में वोट क्लब की महापंचायत, फतेहगढ़ केंद्रीय कारागार हो या फिर दिल्ली की उनका तिहाड़ जेल जाना, हर आंदोलनों ने किसान यूनियन की ताकत का विस्तार किया.

मंच नहीं हुक्का गुड़गुड़ाते भीड़ में बैठते थे टिकैत साहब

टिकैत दिल्ली-लखनऊ कूच का ऐलान करते तो सरकारों के प्रतिनिधि उनको मनाने रिझाने सिसौली रवाना होने लगते लेकिन टिकैत जो चाहते थे, करते वही थे. प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक, उनके फोन को तरसते थे लेकिन यह उनकी ताकत का असर था, जो उनकी सादगी, ईमानदारी और लाखों किसानों में उनके भरोसे के कारण थी. आंदोलनों में चौधरी साहब हमेशा मंच पर नहीं होते थे. वे हुक्का गुड़गुड़ाते हुए किसानों की भीड़ में शामिल रहते थे. बहुत से विदेशी पत्रकारों को उनसे मिल कर समझ नहीं आता था कि वे जिससे मिल रहे हैं, वे वही चौधरी साहब हैं. धूल माटी से लिपटा उनका कुर्ता, धोती और सिर पर टोपी के साथ बेलाग वाणी, उनको सबसे अलग बनाए हुई थी.

जब पूरा देश उनकी ओर देखता था तो भी वे रूटीन के जरूरी काम उसी तरह करते हुए देखे जाते थे, जैसा भारत में आम किसान अपने घरों में करता है. उनमें कभी कोई दंभ नहीं दिखा. आंदोलन सफल हुए हों या विफल, हरेक से वे सीख लेते थे. किसी आंदोलन के लिए उन्हें कभी किसी ने किसी बड़े आदमी से चंदा मांगते नहीं देखा. किसान अपना आंदोलन भी अपने दम खम पर करते थे और खुद नहीं, बाकी लोगों को खिलाने के लिए भी साथ सामग्री ले जाते थे. विशाल आंदोलनों को नियंत्रित करना आसान काम नहीं होता है लेकिन टिकैत इस मामले में बहुत सफल रहे. बड़ा से बड़ा और सरकार को हिला देने वाला आंदोलन क्यों न रहा हो, वह अनुशासनहीन नहीं रहा. मेरठ या दिल्ली में लाखों किसानों के जमावड़े के बाद भी न कहीं मारपीट न किसी दुकान वालों से लूटपाट या कोई अवांछित घटना कभी नहीं हुई.

आंदोलनों में भीड़ को नियंत्रित करना सरल नहीं होता लेकिन चौधरी साहब ने आंदोलनों को अलग तरीके से चलाया. गांव से महिलाएं खाने पीने की सामग्री, हलवा, पूड़ी, छाछ, गुड़ इतनी मात्रा में भेजती थीं कि किसान ही नहीं पुलिस, पत्रकार और आम गरीब लोग सब खा पी लेते थे, कम नहीं पड़ता था. हर आंदोलन में टिकैत पूर्व सैनिकों को भी जोड़ लेते थे.

मेरे मित्र और किसान आंदोलन के तमाम अहम पड़ाव को करीब से देखने वाले अशोक बाल्यान, नरेश सिराही से लेकर तमाम किसान हितैषियों को इस आंदोलन ने पैदा किया. हर आंदोलन में चौधरी टिकैत ने किसानों के वाजिब दाम को केंद्र में रखा. जीवन भर वे किसानों की लूट के खिलाफ सरकारों को आगाह करते रहे. उनका यह कहना एक हद तक सही है कि अगर 1967 को आधार साल मान कर कृषि उपज और बाकी सामानों की कीमतों का औसत निकाल कर फसलों का दाम तय हो तो एक हद तक किसानों की समस्या हल हो सकती है.

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भारत की किसान राजनीति के चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत वो शख़्सियत थे, जिन्होंने एक मौजूदा प्रधानमंत्री से रिश्वत से जुड़ा सवाल पूछ लिया था, वो किसान नेता, जो सरकारों तक नहीं जाता था, सरकारें खुद चलकर उनके पास आती थीं…

पी. वी. नरसिम्हा राव सरकार के दौरान हर्षद मेहता (harshad mehta) कांड हुआ, जिसने राजनीतिक गलियारे में तूफान ला दिया. चौधरी साहब की नरसिम्हा राव जी से ठीक ठाक दोस्ती थी. वे जब चाहते थे मिल लेते थे. उस दौरान कांग्रेस पार्टी राव साहब में आस्था व्यक्त कर रही थी और समर्थकों की भीड़ को तो ऐसा करना ही था. चौधरी साहब उसी दौरान किसानों की समस्या को लेकर प्रधानमंत्री से मिले तो उनसे सीधे पूछ लिया कि क्या आपने एक करोड़ रुपया लिया था? प्रधानमंत्री से सवाल पूछने की हिम्मत रखने वाला किसान राव साहब सन्न. कोई प्रधानमंत्री से ऐसा सवाल सीधे कैसे पूछ सकता है. राव साहब ने उनसे कहा कि चौधरी साहब क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं?

चौधरी टिकैत प्रधानमंत्री से लखनऊ में हुई किसानों पर मुलायम सिंह सरकार की ज्यादती का मसला रखने गए थे. वह बात रखी लेकिन जो बात उनके मन में आ रही थी उसे बेबाकी से पूछ लिया. हर्षद मेहता का नाम लेकर प्रधानमंत्री से यह भी पूछ लिया कि वह आदमी तो पांच हजार करोड़ का घपला करके बैठा है, कई मंत्री घपला किए बैठे हैं औऱ सरकार उनसे वसूली नहीं कर पा रही है, लेकिन किसानों को 200 रुपये की वसूली के लिए जेल भेजा जा रहा है. आजादी के बाद भारत की किसान राजनीति के वे सबसे बड़े चौधरी थे. वैसे तो आजादी के पहले और 1917 के बाद कई किसान आंदोलन हुए और महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल से लेकर स्वामी सहजानंद और प्रो. एनजी रंगा जैसे दिग्गज भी उससे जुड़े रहे. आजादी के बाद तमाम इलाकों में किसान संगठन बने और किसानों के कई बड़े नेता उभरे.

समय के साथ वे बदल गए, उनका रंग ढंग औऱ तेवर बदल गया, लेकिन चौधरी टिकैत उन सबसे अलग और सबसे बड़े किसान नेता के तौर पर भारत के किसानों के दिलों में जगह बनाने में कामयाब रहे. जो दिल में आया वह कहा और किया. इसमें किसी हानि लाभ की परवाह नहीं की. मैं उनसे पहली बार 1988 में मेरठ कमिश्नरी धरने पर मिला था तो आखिर तक उनके साथ संपर्क बना रहा. मेरठ धरने के कुछ समय बाद तो मैं अमर उजाला अखबार में आ गया और किसान मेरे कार्यक्षेत्र का हिस्सा बना इस नाते भी उनसे लगातार संपर्क और संवाद कायम रहा. उनसे जुड़ी तमाम निजी घटनाओं का गवाह मैं हूं और बहुत सी यादें उनसे जुड़ी है. अंग्रेजी मीडिया उनको लेकर काफी नकारात्मक रही, उनको कुछेक किसानों का नायक बना कर पेश किया जाता रहा लेकिन उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की. उन्होंने ऐसे दौर में किसानों को संगठित किया और उसकी आवाज बने जिस समय किसानों को संगठन की सबसे अधिक जरूरत थी.

वे जीते जी किंवदंती बन गए थे. किसानों का ये दिग्गज नेता अपनी सादगी के लिए भी जाना जाता था, वो किसानों के बीच बैठकर खाना खाते थे, आंदोलनों के दौरान भी मंच के बजाए किसानों के बीच बैठते थे. मेरठ आंदोलन से लेकर दिल्ली के बोट क्लब की महापंचायत तक 15 मई चौधरी साहब की पुण्यतिथि के रूप में याद किया जाता है. चौधरी टिकैत के नेतृत्व में भारत में किसानों का जो आंदोलन खड़ा हुआ, उसने भारत ही नहीं पूरी दुनिया पर असर डाला. वही अकेला आंदोलन था, जिसमें विदेशी मीडिया हैरानी के साथ मेरठ, गंग नहर के किनारे भोपा, सिसौली, शामली और बोट क्लब पर पहुंच कर इस संगठन और करिश्माई व्यक्तित्व के तमाम पहलुओं की तलाश करती हुई पायी गयी.

1987 के बाद अपनी आखिरी सांस तक वे भारत के किसानों के एकछत्र नेता बने रहे. इसके बावजूद कि तमाम मौकों पर सरकारें उनकी ताकत को मिटाने के लिए सभी संभव प्रयास करती रहीं. वे भारत के अकेले किसान नेता थे जिन्होंने किसानों को जाति, धर्म और क्षेत्रीयता के खांचे में बंटने नहीं दिया.

1987 के बाद अपनी आखिरी सांस तक वे भारत के किसानों के एकछत्र नेता बने रहे. इसके बावजूद कि तमाम मौकों पर सरकारें उनकी ताकत को मिटाने के लिए सभी संभव प्रयास करती रहीं. वे भारत के अकेले किसान नेता थे जिन्होंने किसानों को जाति, धर्म और क्षेत्रीयता के खांचे में बंटने नहीं दिया. उनका नेतृत्व दक्षिण के उन किसानों ने भी स्वीकार किया, जो न उनकी भाषा जानते थे न बोली बानी. लेकिन उनको इस बात का भरोसा था कि चौधरी टिकैत ही हैं, जो ईमानदारी से उनके लिए खड़े रहेंगे. किसानों के आगे कई बार सरकारों को झुकने पर मजबूर करने वाले किसान नेता के रूप में जाने जाते थे महेंद्र सिंह टिकैत.

उदारीकरण की आंधी से किसानों को काफी हद तक बचाया

चौधरी टिकैत के नेतृत्व में किसान आंदोलन ने दो अहम उपलब्धियां हासिल की है. पहला यह कि किसानों के संगठन ने उदारीकरण की आंधी में खेती बाड़ी और भारत के कृषि क्षेत्र को एक हद तक बचा लिया. नीतियों में बदलाव के नाते यह क्षेत्र बेशक प्रभावित हुआ लेकिन वैसा नहीं जैसा विश्व व्यापार संगठन या ब़ड़े देश चाहते थे. भारत सरकार को किसानों की ताकत के नाते कई मोरचों पर झुकना पड़ा. इसके लिए टिकैत दिल्ली ही नहीं विदेश तक आवाज उठाने पहुंचे.

जब एक मुस्लिम युवती को न्याय दिलाने केे लिए छेड़ा आंदोलन

दूसरी अहम बात यह थी कि टिकैत ने उत्तर प्रदेश के पश्चिमी अंचल और समग्र रूप से पूरे राज्य में किसानों को जाति और धर्म में बंटने नहीं दिया. किसान आंदोलन के सबसे अहम पड़ाव यानि करमूखेड़ी बिजलीघर पर हुए पुलिस गोलीकांड में दो नौजवानों जयपाल और अकबर की शहादत को भाकियू ने कभी नहीं भुलाया. उनके नेतृत्व में हुए अधिकतर विशाल पंचायतों की अध्यक्षता सरपंच एनुद्दीन करते थे और मंच संचालन का काम गुलाम मोहम्मद जौला.

1987 में मेरठ में भयावह सांप्रदायिक दंगे हुए थे लेकिन टिकैत ने ग्रामीण इलाकों में एकता का मिसाल जलाए रखी. विरोधी हमेशा भारतीय किसान यूनियन को जाटों का संगठन बताते रहे, लेकिन अगर जमीन पर आप जाकर देखें तो पता चलता था कि जाट ही नहीं उस जमावड़े में समाज की पूरी धारा समाहित होती थी. उनका सफर आम किसान से महात्मा बनने का सफर था. उनकी आवाज को हिंदू मुसलमान सभी सुनते थे और मानते थे. 1989 में मुज़फ्फरनगर के भोपा क्षेत्र की मुस्लिम युवती नईमा के साथ न्याय के लिए चौधरी साहब ने जो आंदोलन चलाया उसने एक अनूठी एकता का संकेत दिया.

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चौधरी देवीलाल से दोस्ती

चौधरी साहब की एक ब़ड़ी खूबी यह भी थी कि वे दोस्तों के दोस्त थे. अपना कितना भी नुकसान हो जाये इसकी परवाह नहीं करते थे. जब चौधरी देवीलाल को उप प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त किया गया तो उनके हाथों मंत्री और मुख्यमंत्री पद तोहफे में पाने वाले भी दुबक गए थे. केवल चौधरी टिकैत थे जो अस्पताल में होने के बावजूद लगातार उनके पक्ष में खड़े रहे. वे केंद्र की सत्ता से इसके बावजूद टकराये कि उनको रोकने के लिए सरकार ने सभी संभव प्रयास किया था. वे किसानों और ग्रामीण भारत के सच्चे हितैषी और दूरदर्शी थे.

कुछ समय पहले मैने लुधियाना में किसान नेता अजमेर सिंह लाखोवाल से मुलाकात की और उनसे चौधरी साहब पर तमाम संस्मरण सुने. 85 बार के जेलयात्री किसान नायक लाखोवालजी चौधरी साहब के हर किसान आंदोलन का हिस्सा रहे. भारतीय किसान यूनियन पंजाब का नेतृत्व करते हुए एक दशक तक कैबिनेट मंत्री के दरजे के साथ पंजाब राज्य कृषि मंडी बोर्ड के अध्यक्ष भी रहे. लेकिन सरकार से प्रतीकात्मक एक रूपया लिया. आंदोलन के पुराने दिनों की बहुत सी यादों के साथ वे इस बात के लिए आशान्वित थे कि चौधरी साहब ने जो संगठन खड़ा किया है, उसी में भारत के किसानों को संगठित करने की ताकत है.

कुछ समय पहले मैने लुधियाना में किसान नेता अजमेर सिंह लाखोवाल से मुलाकात की और उनसे चौधरी साहब पर तमाम संस्मरण सुने. 85 बार के जेलयात्री किसान नायक लाखोवालजी चौधरी साहब के हर किसान आंदोलन का हिस्सा रहे. भारतीय किसान यूनियन पंजाब का नेतृत्व करते हुए एक दशक तक कैबिनेट मंत्री के दरजे के साथ पंजाब राज्य कृषि मंडी बोर्ड के अध्यक्ष भी रहे. लेकिन सरकार से प्रतीकात्मक एक रूपया लिया. आंदोलन के पुराने दिनों की बहुत सी यादों के साथ वे इस बात के लिए आशान्वित थे कि चौधरी साहब ने जो संगठन खड़ा किया है, उसी में भारत के किसानों को संगठित करने की ताकत है.

15 मई 2011 को किसानों का ये मसीहा छोड़ गया दुनिया चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत भारतीय किसान राजनीति में एक प्रकाश पुंज की तरह उभरे थे. मेरठ से शुरू यह आंदोलन बुलंदियों तक गया और दुनिया के तमाम हिस्सों में इसकी गूंज दिखी. मैंने उस आंदोलन को बहुत करीब से देखा. उनकी सादगी, ईमानदारी और बेलागपने का हमेशा से मुरीद रहा औऱ उनका स्नेहपात्र भी. 1989 में उनके नेतृत्व में किसान संगठनों ने दिल्ली में बोट क्लब पर जो विशाल आयोजन किया था वैसा आयोजन फिर नहीं हुआ. चौधरी टिकैत भले पढ़े-लिखे नेताओं में शुमार न होते हों लेकिन उनमें जैसी गहरी समझ थी वैसी डाक्टरेट की डिग्री वालों में भी नहीं दिखती. साहसी टिकैत को सड़क और गांव की पगड़ंडिय़ों से उनको दृष्टि मिली थी.

15 मई 2011 को 76 साल की आयु में उनका निधन हुआ लेकिन किसान आंदोलन आज भी उनकी ही तरफ देखता है. भारतीय किसान यूनियन की मीडिया में कवरेज वो सरकार नहीं, सरकार उनके दरवाजों तक आती थी चौधरी साहब कभी बदले नहीं न उनमें कभी दंभ आया. आजादी के बाद के वे एकमात्र किसान नेता थे जिनको पश्चिमी समाचार माध्यमों ने महत्व दिया. लेकिन इसके पीछे उनका संगठन और सोच ही नहीं आंदोलन के तमाम अभिनव तरीके भी थे. तमाम छोटी जगहों पर टिकैत ने किसानों को जुटा कर अपनी बात मनवा ली. हर चीज के लिए उनको दिल्ली और लखऩऊ जाना गंवारा नहीं था. बड़े बड़े नेताओं के साथ उनके रिश्ते बने. कोई और होता तो उनका उपयोग कर कहां से कहां पहुंच जाता, संसद और विधान सभाओं में तो वे कब के पहुंच जाते. बड़ा से बड़ा पद भी ले सकते थे लेकिन टिकैत ने किसानों के हितों को तरजीह दी खुद को नहीं. टिकैत खुद में एक संस्था थे. राह चलते भी तमाम मसलों को निपटा देते थे क्योंकि उनमें एक अजीब सी ताकत थी. लोग उनकी बातें मानते थे। किसानों के लिए वे मसीहा थे.

आखिरी बात एक अपने साथ बीती घटना से समाप्त करूंगा. चौधरी साहब 1990 में गंगा राम अस्पताल में भर्ती हुए. लोग हैरान कि अस्पताल में इतने किसान कहां से आ रहे हैं. मैं रोज वहां जाता था और एकाध खबर करता था. एक दिन मैं चौधरी साहब के कमरे में गया तो वे काफी नाराज दिख रहे थे. काफी कुरेदने पर वे बोले कि तू तो मेरे दूसरे पैर पर भी प्लास्टर चढावाना चाहता है… चाहता है क्या तू. मैंने ऐसा कुछ लिखा नहीं था. चौधरी साहब ने अमर उजाला बरेली का अखबार दिया जिसमें मेरी खबर की हेड़िंग लगी थी कि दूसरे पैर में भी प्लास्टर चढवाएंगे टिकैत. मैंने चौधरी साहब को बताया कि किसी ने हेडिंग में गलत कर दिया है बरेली में. मेरठ संस्करण देखा गया उसमें ऐसा कुछ नहीं था. मैंने चौधरी साहब को कहा कि मैं आपको आगरा संस्करण भी कल दिखा दूंगा. चौधरी साहब ने मेरी पीठ पर हाथ रखा और बात समाप्त हो गयी. वे मन में कभी कुछ नहीं रखते थे.

(साभार: गांव कनेक्शन
लेखक- अरविंद कुमार सिंह, ग्रामीण मामलों और कृषि के प्रख्यात पत्रकार, जानकार और लेखक हैं.)

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