आइये जानते हैं कालानमक चावल के बारे में, जिसे सेंटेड ब्लैक पर्ल भी कहते हैं

 

प्रदीप नाथ त्रिपाठी

कालानमक चावल भारत में पैदा होने वाले चावलों में एक बेहतरीन गुणवत्ता और सुगंध वाला चावल है। इसकी भूसी का रंग काला होने के कारण इसका नाम ‘कालानमक’ पड़ा।
उत्तर प्रदेश का सुगंधित काला मोती (सेंटेड ब्लैक पर्ल) के रूप में भी जाना जाता है। इसका उल्लेख संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य और कृषि संगठन द्वारा प्रकाशित पुस्तक ” स्पेशियलिटी राईस ऑफ द वर्ल्ड” में भी किया गया है।
भारत के उत्तरी छोर पर स्थित हिमालय की तराई ,नेपाल की 68 किलोमीटर की सीमा को छूने वाली ये जगह उत्तर प्रदेश का जनपद सिद्धार्थनगर है। जोकि 29 दिसम्बर 1988 के पूर्व तक बस्ती जनपद का हिस्सा था।
वैसे ये जनपद अपने गौरवशाली इतिहास के लिए भी प्रसिद्ध है प्राचीन काल में यह क्षेत्र साकेत अथवा कोशल राज्य का हिस्सा था। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में शाक्यों ने कपिलवस्तु को अपनी राजधानी बनाया। यहीं से तथागत भगवान बुद्ध के इस जगह के अस्तित्व के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती है। 1897-98 में डब्लू सी पे पे ने इस स्थल की खुदाई करवाई जो कि “पिपरहवा स्तूप” के नाम से जाना जाता है। सन् 1898 ई० में यह “जनरल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी” में भी प्रकाशित हुआ। पुनः1973-74 ई० में इस स्थल की खुदाई के एन श्रीवस्तव के नेतृत्व में हुई। प्राप्त अवशेष से ‘पिपरहवा’ के ‘कपिलवस्तु’ होने पर मुहर लगाई गई। तथागत भगवान महात्मा बुद्ध के जीवन से जुड़ी अनेकों घटनाओं के इसी क्षेत्र में होने की भी पुष्टि हुई। खुदाई के दौरान चावल के दाने जैसा एक भंडार मिला, जिसकी पहचान इतिहासकारों ने रसोईघर या अन्न भंडार के रूप में की, यही चावल “कालानमक” था। इस विषय में प्रसिद्ध चीनी भिक्षु फाह्यान ने लिखा है “जब गौतम बुद्ध ने आत्मज्ञान प्राप्त करके पहली बार कपिलवस्तु का दौरा किया तो कपिलवस्तु के मार्ग में पड़ने वाले लोगों ने उनसे प्रसाद के रूप में कुछ माँगा तो उन्होंने चावल के कुछ दाने लोगों को दिए और उनसे कहा कि इसे दलदली जगह पर बो दो। तब लोगों से सिद्धार्थ ने कहा कि इसमें ‘विशिष्ट’ सुगंध होगी और इसकी सुगंध हमेशा मेरा स्मरण आप लोगों को कराती रहेगी।” इस बात की पुष्टि इससे भी होती है कि आज भी कालानमक चावल की पैदावार और विशिष्ट सुगन्ध वाली जगह कपिलवस्तु जाने वाले मार्ग पर ही पड़ती है। इससे ये प्रतीत होता है कि कालानमक की खेती बौद्ध काल 600 ई०पूर्व से ही होता रही है।
परंतु वास्तविक रूप से इसको प्रसिद्धि दिलाने का कार्य अंग्रेज ज़मीदार विलियम पे पे, एच हम्प्रे, एडेनवाकर आदि लोगों ने किया ।
1944 में अंग्रेज ज़मीदार गोरखपुर के तत्कालीन कमिश्नर मिस्टर पे पे ने कालानमक के उत्पादन को बढ़ावा दिया। एक सुनियोजित योजना बनाई गई।चूंकि कालानमक धान की लंबी अवधि का और प्रचुर मात्रा में पानी वाले जगह पर होने वाली प्रजाति है इसके लिए मिस्टर पे पे ने कृत्रिम जलाशयों का निर्माण कराया, जिसमें प्रमुख बजहा,बटुआ,मझौली, मर्थी, सिसवा,मोती सागर आदि आज भी है। इन्ही कृत्रिम जलाशयों से लगभग 500 किलोमीटर की नहरों का एक जाल कालानमक गुणवत्ता पूर्ण उत्पादन करने वाले इलाकों में बिछाया गया जिसमें प्रमुख रूप से बजारडीह,बजहा,दुबरीपुर, देवरा,मोहनजोत,सौनिहवा,रमवापुर,मोहनजोत,डोहरिया खुर्द, नौगढ़, अलीगढवा, और अदिलापुर आदि गांवों में है । ये जलाशय नेपाल से आने वाली पहाड़ी नदी नालों से जुड़े थे जिससे इन जलाशयों में साल भर पानी भरा रहता था और उसका संरक्षण कर बाढ़ की विभीषिका से बचाव और उनसे खेती की जाती थी। आज कालानमक चावल की उत्पादकता कम हो गई है। पूरे जिले में लगभग 3000 हेक्टेयर में ये पैदा किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने ‘एक जिला -एक उत्पाद’ में जनपद की इस ऐतिहासिक धरोहर कालानमक को चुना है। 2012 में कालनमक धान के उत्पादन वाले इलाकों की जी आई टैगिंग भी कराई गई है। 17 जून 2015 को कपिलवस्तु के निकट सिद्धार्थ विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, जिसमें कालानमक चावल के गुणवत्ता पूर्ण उत्पादन के लिए रिसर्च करने की बात कही गई है।
अंग्रेज ज़मीदारों द्वारा बनाया गया कृत्रिम जलाशय आज नेपाल से आने वाले पानी के साथ के गाद से पट गया है। संरक्षण के अभाव में वो अपना अस्तित्व खोता जा रहा है। नहरों का जो विशाल जाल अंग्रजो ने बिछा के कालानमक का नाम पूरी दुनिया मे फैलाया वो धीरे धीरे पटता जा रहा है।
अगर सरकार इस तरफ ध्यान दे तो एक बेहतर रोजगार का सृजन होने की अपार संभावना है। वहीं, जनपद को बाढ़ की विभीषिका से भी बचाया जा सकता है।
सबसे पहले उन कृत्रिम जलाशयों का पुनरोद्धार कराकर भलीभांति संरक्षण किया जाए और उन्हें पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित किया जाए। नहरों के विशाल जाल को साफ करा कर टेल तक पानी पहुँचाया जाए। कालानमक धान के गुणवत्ता पूर्ण बीजों का वितरण किया जाए। समय- समय पर उसके अच्छे उत्पादन के लिए किसान गोष्ठी की जाए ,पैदावार को बढ़ाने के साथ-साथ उसके उचित मूल्य का भी भुगतान करने की जरूरत है जिससे कि पुनः जनपदवासी अपनी उस धरोहर को विश्व पटल पर स्थापित कर सके। जिस चावल की खीर को खाकर तथागत भगवान बुद्ध ने आत्मज्ञान प्राप्ति के बाद अपना उपवास तोड़ा था और इस माटी की महक को “कालानमक” के साथ जोड़ दिया था।

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