ग्रीन वर्ल्ड आर्डर: भारत की भूमिका

ग्रीन ऑर्डर में भारत की भूमिका
प्रो. सतीश कुमार
कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल

पिछले दिनों उत्तरी कैलिफ़ोर्निया में लगी आग ने जीवन को अस्तव्यस्त कर दिया है।

मिलों दूर तक जंगल की आग बुझने का नाम नहीं ले रहा है।

पूरा आसमान आग की अंगीठी की तरह दिख रहा है।

यह सबकुछ दुनिया के एक ऐसे देश में हो रहा है जो प्रकृति का दोहन कर पिछले 100 वर्षो से दुनिया का मठाधीश बना हुआ है।

जब पूरी दुनिया ग्रीन एनर्जी की तरफ मुड़ने की बात कह रही थी वही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपने देश के प्रतिष्ठित उद्योग घराने को एक बंद कमरे में यह विश्वास दिला रहे थे कि कार्बन जनित ईंधन पर कोई पावंदी नहीं लगायी जाएगी बल्कि इसका प्रयोग किया जाएगा।

उल्लेखनीय है कि अमेरिका में सेल गैस के अकूत भंडार मिलने के बाद से अमेरिका की नियति बदल गयी है।

अमेरिका की हठधर्मिता

1945 से चली आ रही अमेरिकी घुसपैठ खाड़ी के देशों में थम गयी है।

अमेरिका तेल की जगह गैस के जरिये अपने आर्थिक ढांचे को बढ़ाने की कोशिश करेगा।

अर्थात ग्रीन एनर्जी को अभी भी अमेरिका उतनी अहमियत नहीं देता जितनी इसकी जरूरत है।

दरअसल दुखद आश्चर्य यह है कि कोविड आपदा में अमेरिका के लाखों लोग अपनी जान गवां चुके हैं, अभी भी लाखो जूझ रहे हैं, इसके बावजूद हठधर्मिता समझ से परे है।

इसलिए महान दार्शनिक रूसो ने कहा था कि समाज और दुनिया को जितना नुकसान बुद्धिजीवी से होता है  उतना अनपढ़ लोगों से नहीं होता।

दुनिया में एक नए विश्व व्यवस्था की बात पिछले एक दशक से कही जा रही है।

यह माना जा रहा है कि शक्ति का हस्तांतरण होना तय है।

वह पश्चिम से पूर्व की ओर अग्रसर है, अर्थात एशिया महादेश केंद्र बनेगा।

चीन पूरी तरह से अपने आपको राज्यारोहण की पूरी तैयारी में जुटा हुआ है।

2035 तक का रोड मैप चीन ने तैयार कर लिया है।

उस समय तक चीन दुनिया की सबसे बड़ी  आर्थिक शक्ति बन जाएगा, साथ ही उसकी सैनिक क्षमता भी बढ़ेगी।

लेकिन चीन की सोच के अनुसार दुनिया बदलती हुई दिखाई नहीं दे रही है।

पिछले 7 महीनों की आपदा में चीन का वैश्विक स्वरूप विखंडित हुआ है।

यूरोप के ज्यादातर देश जो उसके हिमायती थे, प्रश्न पूछने लगे हैं।

पूर्वी एशिया के पड़ोसी भी चीन के व्यापार और सैनिक विस्तार को एक खतरे के रूप में देखने लगे हैं।

चीन भारत के साथ गलवान वैली में संघर्ष को हवा देकर अपनी आतंरिक करतूतों को ढकने की जद्दोजहद में दिख रहा है।

इसलिए एक सामरिक विस्तार जो दुनिया में मठाधीश बनाने के लिए जरुरी था, वह दम तोड़ रहा है।

सुपर पावर बनने के लिए गुण

अंतराष्ट्रीय राजनीति के जानकर प्रोफ रिचर्ड हास का मानना है कि दुनिया के सुपर पावर बनने के लिए कई गुणों की जरुरत पड़ती है।

उसमे दो गुण विशेष हैं।

पहला ऐसा देश जो दुनिया के किसी भी हिस्से में सैनिक हस्तक्षेप की क्षमता रखता हो जैसा कि अमेरिका के पास आज भी जिन्दा है।

दूसरा दुनिया के किसी भी भाग में आणविक प्रक्षेपास्त्र दागने की कूबत हो। वह क्षमता भी अगर आज किसी देश के पास है तो वह अमेरिका ही है।

यहाँ पर दोनों ही मानकों पर चीन की मठाधीशी कारगर नहीं दिखती।

इसलिए परम्परागत विश्व ब्यस्था की बात अभी भी अधर में लटकी हुई नजर आएगी।

अगर कोई व्यवस्था कुछ वर्षों बाद बनेगी तो वह ग्रीन वर्ल्ड आर्डर की बनेगी, उसमे जो बाजी मरेगा, वह दुनिया का पुरोधा बनेगा।

मुश्किल प्रश्न  यह है कि यह क्षमता किस देश के पास है?

अमेरिका इस श्रेणी से पहले से ही बहार है।

क्योटो प्रोटोकॉल और पेरिस संधि को नकारने के बाद अमेरिका कभी भी ग्रीन वर्ल्ड आर्डर का नेतृत्व नहीं कर सकता। दुनिया इसको कबूल नहीं कर पाएगी।

दूसरा सबसे बड़ा नाम चीन का है। चीन ने पिछले कुछ वर्षो में ग्रीन एनर्जी में अद्भुत क्षमता विकसित की  है।

2018 में सोलर एनर्जी के जरिये चीन 180 गीगावाट एनर्जी उत्पन करने की क्षमता विकसित कर लिया था, उस दौरान भारत दोहरे अंक में ही कबड्डी खेल रहा था।

चीन में बड़ी-बड़ी बसें और कार्गो भी सोलर एनर्जी पर चलने लगे हैं।

विंड एनर्जी में भी चीन किसी भी देश से आगे है। ग्रीन एनर्जी के अन्य मानकों में भी उसकी शिरकत काबिलेतारीफ है।

ग्रीन वर्ल्ड रिकॉर्ड में चीन काफी नीचे

लेकिन इतना कुछ होने के बावजूद चीन का रिकॉर्ड ग्रीन वर्ल्ड के रिकॉर्ड में अत्यंत नीचे है। इसके कई कारण है।

पहला चीन की सोच दो मुहाने पर खड़ा है। देश के भीतर ग्रीन एनर्जी की हिमाकत करता है वही बाहरी दुनिया में जमकर कार्बन जनित आर्थिक ब्यस्था को अहमियत दे रहा है।

2013 से अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के देशो में ओबीआर को मजबूत बनाने में कोल् का जमकर प्रयोग किया जा रहा है।

इससे उन देशो में प्रदूषण की समस्या गंभीर बनती जा रही है।

2020 की रिपोर्ट में भी यह बात कही गयी है कि चीन दुनिया के अलग-अलग कोल उत्पादन को खरीद चुका है।

सबसे ज्यादा कोल उत्पादन करने वाला देश होने के बावजूद कोयले का सबसे बड़ा आयातक देश भी चीन ही है।

अर्थात अपने लिए ग्रीन और क्लीन एनर्जी और दूसरों के लिए कार्बन का ढेर। यह तर्क संगत नहीं है।

दूसरा, आज दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन पैदा करने वाला देश भी चीन ही है।

इस बात का भी आकलन किया गया है कि आने वाले 2 दशकों तक चीन के कार्बन उत्पादन में कोई क्रन्तिकारी परिवर्तन होने वाला नहीं है।

तीसरा, चीन का राजनीतिक परिवेश भेड़ियों जैसा है।

अंतराष्ट्रीय राजनीति के जानकार जॉन हाइमर अपनी पुस्तक ‘ग्रेट कनफ्लिक्ट ऑफ़ बिग पावर्स’ में कहते हैं कि चीन का उद्भव शांतिपूर्ण नहीं होगा।

अभी तक शक्ति स्थान्तरण शांतिपूर्वक हुआ था। ब्रिटेन से अमेरिका जब स्थान्तरण हुआ, उसमें कोई भूचाल नहीं आया।

शांतिपूर्ण तरीके से सुपर पावर नहीं बन सकता चीन

लेकिन चीन शांतिपूर्ण तरीके से सुपर पावर नहीं बन सकता। भूचाल कि स्थिति बन सकती है।

जॉन हाइमर ने यह भी माना है कि अगर खुदा-न-खास्ते ऐसा होता भी है तो दुनिया को कई तकलीफो से होकर गुजरना पड़ेगा।

जॉन के द्वारा यह बात 7 साल पहले कही गयी थी।

कोविड-19 आपदा में चीन की भूमिका से दुनिया पूरी तरह रू-ब-रू हो चुकी है।

किस तरीके से वर्ल्ड हेल्थ संस्था को गुमराह किया गया, दुनिया की आँखों में धूल झोंका गया।

और पूरा विश्व इस महामारी की चपेट में पिछले 7 महीनों से दमघोंटू स्थिति में जीने के लिए अभिशप्त है।

इसलिए चीन किसी भी तरीके से ग्रीन वर्ल्ड की अगुवाई नहीं कर सकता।

दुनिया के देश उसके साथ चलने को राजी नहीं हो सकते।

थाईलैंड, मलेशिया जो उसके अत्यंत सहयोगी देश के रूप में थे, उन देशो ने भी विरोधी बिगुल बजा दिया है।

यूरोप के छोटे-छोटे देश ग्रीन एनर्जी में काफी आगे हैं।

ग्रीनलैंड, आइसलैंड अफ्रीका के मोरक्को, घाना और एशिया में भूटान जैसे कई नाम हैं।

ये देश इतने छोटे हैं कि वह ग्रीन वर्ल्ड आर्डर का नेतृत्व नहीं कर सकते।

उसके बाद एक देश जो दुनिया कि निगाह पर है, वह है भारत, जिसकी अपनी शाख मजबूत है, लोकतंत्र की विश्वश्नीयता है।

भारत बन सकता है ग्रीन वर्ल्ड आर्डर का मुखिया

पिछले 6 वर्षों में भारत ने सोलर एनर्जी में 13गुना इजाफा किया है।

2022 तक अनुमान है कि भारत 175 गीगावाट एनर्जी ग्रीन साधनों से पैदा करेगा।

2030 तक यह अनुपात 450 गीगावाट तक पहुंच जाएगा।

भारत ग्रीन वर्ल्ड आर्डर का मुखिया बन सकता है। इसके कई कारण हैं।

पहला, भारत के पास 300 दिनों तक सूर्य की रौशनी का प्रकाश उपलब्ध है।

भारत ने पेरिस सम्मलेन के उपरांत अंतराष्ट्रीय सोलर कूटनीति की शुरुआत की जिसमें उसे बड़ी सफलता हासिल हुई।

फ्रांस के साथ तक़रीबन 67 देशों ने इसमें शिरकत की साझेदार बन गए। भारत के नेतृत्व में सोलर एनर्जी एक बेमिसाल मानक बनेगा।

दूसरा, ग्रीन एनर्जी के अन्य श्रोत भी भारत में उपलब्ध है, मसलन विंड एनर्जी, बायोमास और छोटे-छोटे हाइड्रो पॉवर।

तीसरा, एनर्जी का सीधा सम्बद्ध क्लाइमेट चेंज के साथ है। प्राकृतिक आपदा कार्बन के कारण से बन रहा है।

यह एक दिन में खड़ा नहीं हुआ। वायुमंडल में संघनित कार्बन पिछले २०० वर्षो के कल कारखानों से निकले कार्बन के कारण बने हैं।

इसके लिए सबसे ज्यादा दोषी यूरोप के औपनिवेशिक देश और बाद में अमेरिका है. अपनी विलासिता के लिए इन देशों ने प्रकृति का भरपूर दोहन किया।

जब संकट की घड़ी आयी तो इन देशों ने बराबरी के सिद्धांत को लागू करने की वकालत कर दी।

अर्थात 19वीं शताब्दी और 20वीं शताब्दी में जब गरीब देशों के पास कोई कल-कारखाने थे ही नहीं तो कार्बन प्रदूषण के लिए इनको क्यों दोषी माना जाये।

भारत क्योटो प्रोटोकॉल से लेकर पेरिस संधि तक यही बात दोहराता रहा।

आज भारत का ट्रैक रिकॉर्ड पेरिस संधि के मानक से पूरी तरह सामंजस्य बनाये हुए है।

चौथा, भारत भारत की प्राचीन आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह से प्रकृति जनित थी। आर्थिक विकास का मापदंड भी  भारी उद्योग-धंधों पर नहीं टिका हुआ था।

पर्यावरण की समस्या भौतिकवाद और विलासिता का नतीजा

19वी शताब्दी में ऐडम स्मिथ, जिन्हे अर्थशास्त्र का पितामह कहा जाता है, उन्होंने बड़े उद्योग को ही धन उपार्जन और देश को समृद्ध बनाने का कारण माना।

उसी दौरान राजनीतिक हलकों में लिबरल विचाधारा उफान मारने लगी थी।

दोनों  के मिश्रण से एक ऐसी व्यवस्था बनती चली गयी जिसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता राष्ट्र राज्य की मूल इकाई बन गयी, जो बाद में चलकर पूंजीवाद और भौतिक विलासिता में तब्दील हो गया।

आज पर्यावरण की समस्या उसी भौतिकवाद और विलासिता का नतीजा है।

20वीं शताब्दी के अर्थशास्त्री बेब्लेन थ्रेसटेइन ने भी भौतिकवाद को पर्यावरण के लिए दोषी माना है।

भारत की सोच प्रकृति के साथ जिन्दा रहने की बात करती है। जल, जमीन  और जंगल के सुनियोजित प्रयोग की सीख दी गयी है।

यह अलग बात है कि आजाद भारत गाँधी से हटकर पश्चिमी आर्थिक व्यवस्था का अभिन्न अंग बन गया।

आजादी के कुछ दिन पहले जब एक पत्रकार ने गाँधी से पूछा था कि क्या आजाद भारत ब्रिटिश आर्थिक व्यवस्था का अनुपालन करेगा?

गाँधी ने इस प्रश्न का जवाब देते हुए कहा था कि ब्रिटेन का लालच दुनिया के दो-तिहाई भाग हड़पने के बाद भी खत्म नहीं हुआ तो भारत की आबादी तो ब्रिटेन से पांच गुणा ज्यादा है।

भारत की क्षुधा भरने के लिए पृथ्वी जैसे 4 और प्लैनेट की जरुरत पड़ेगी।

अर्थात दुनिया को एक सूत्र में बांधने के लिए विश्व को अपना समझना होगा, अपने और पराये के बीच के अंतर को पाटना होगा।

वसुधैव कुटुम्बकम की परम्परा किसी भी देश की नहीं है। इसलिए ग्रीन वर्ल्ड की अगुवाई केवल भारत ही कर सकता है।

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