1800 नवयुवकों के लिए अरुणाचल प्रदेश में रोजगार के द्वार
—अनुपम तिवारी, लखनऊ
लद्दाख सेक्टर में चीन के साथ तनातनी के समय ही भारतीय थल सेना ने 1800 नवयुवकों के लिए अरुणाचल प्रदेश में रोजगार के द्वार खोल दिये हैं. यह युवक सेना के आवश्यक साजो सामान और रसद इत्यादि को दूरदराज के पहाड़ी इलाकों में ले जाने वाले 39 पोर्टर 39 की भूमिका निभाएंगे. हालांकि यह रोजगार स्थायी नहीं है फिर भी बड़ी संख्या में युवकों ने इसके लिए रुचि दिखाई है. सामान्य तौर पर अरुणाचल में यह भर्तियां अगस्त और सितंबर में हुआ करती थीं. परंतु इस बार LAC पर चीन के साथ तनाव को देखते हुए समय से पहले ही 1 से 12 जुलाई तक यह भर्तियां आयोजित की गई हैं.
रोजगार रैलियों में अच्छी खासी भीड़ भी उमड़ रही है जानकारियों के अनुसार प्रदेश के श्रम मंत्रालय की सहायता से इस काम के लिए 3 कंपनियां बनाई जा
रही हैं. इनमें से एक तवांग क्षेत्र के लिए है जिस पर 1962 से ही चीन अपना दावा ठोंकता रहा है और जो सेना के साथ साथ वायु सेना को भी एक एडवांस लैंडिंग ग्राउंड उपलब्ध कराता है. इस प्रकार सामरिक रूप से तवांग घाटी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है.
क्यों आवश्यक हैं पोर्टर
लद्दाख और अरुणांचल समेत लगभग पूरे हिमालय क्षेत्र में अपनी अग्रिम चौकियों तक रसद, सामान और संसाधन पहुचाने के लिए सेना पोर्टरों की मदद लेती आयी है. क्योंकि एक तो वह स्थानीय परिस्थितियों के अच्छे जानकार होते हैं, उच्च दबाव व कम ऑक्सीजन वाली ऊंची चोटियों पर चढ़ने के
आदी होते हैं. साथ ही शारीरिक रूप से मजबूत होते हैं. शारीरिक रूप से स्वस्थ पोर्टर इन दुर्गम इलाकों में सेना के लिए बहुत उपयोगी होते हैं, सामान ढोने में
सहायता के साथ ही साथ, यह रास्ता बनाने, बन्द रास्तों को खुलवाने और नए रास्तों को ढूंढने में भी मददगार साबित होते हैं. वैसे सामान ढोने के लिए सेना घोड़ों व खच्चरों का इस्तेमाल भी करती है, परंतु इंसानी मदद और इंसानी सहायता का स्थान जानवर कभी नही ले सकते.
चयन प्रक्रिया और सेवा अनुबंध
सामान्यतः एक पोर्टर को 6 महीने के लिए अनुबंधित किया जाता है. और उनके व्यवहार एवं कौशल के आधार पर इस अनुबंध को बढ़ाया भी जा सकता है. ज्यादातर पोर्टर इन 6 महीनों में इतनी रकम और सम्मान जमा कर लेते हैं कि अगले 6 महीने, विशेषकर ठंड के महीनों में उनकी और उनके परिवार के
भरण पोषण संबंधी ज्यादातर समस्याओं का निवारण हो जाता है. चयनित हो जाने के बाद सेना इन पोर्टरों को जो वेतन देती है वह श्रम मंत्रालय द्वारा निर्धारित किया जाता है. मंत्रालय इन युवकों को 'अकुशल श्रमिकों ' के रूप में मान्यता देता है. और समय समय पर इनके वेतन और भत्तों संबंधी समस्याओ का निवारण एवं उनका रिव्यु भी किया जाता है. इस काम के लिए राज्य के श्रम मंत्रालय ने सेना के साथ मिल कर एक बोर्ड का गठन भी किया हुआ है.
इनकी उपयोगिता को देखते हुए सेना भी इनसे सामान्य सैनिकों जैसा ही व्यवहार करती है. उनको भोजन, आवास, मेडिकल सुविधाएं और विशेष प्रकार की यूनिफार्म भी दी जाती है. साथ ही इनका बीमा भी कराया जाता है और सीमित रूप में कैंटीन आदि की सुविधाएं भी दी जाती हैं. यदि कभी आवश्यकता
पड़ी तो इनको सैनिकों के समान प्रशिक्षित भी किया जा सकता है. और कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जब पोर्टरों की सामान्य सैनिकों के रूप में भर्तियां भी की गईं.
प्रदेश भर के युवकों को सेना की सहायता वाले इस काम से जोड़ने में "युवा अरुणाचल" नामक एक गैर सरकारी संगठन ने बड़ी भूमिका निभाई है. उन्होंने जगह जगह अपने संसाधनों का उपयोग कर के लोगो को इसके संबंध में जागरूक किया और दूरदराज के युवकों के भर्ती स्थल तक पहुचने में भी मदद की. इसका परिणाम भी शानदार दिख रहा है. राज्य सरकार ने खुद स्वीकार किया है, जहां पिछले वर्ष तक इस कार्य के लिए कुछ सैकड़ा युवक ही उपलब्ध हो पाते थे, इस बार इनकी संख्या हज़ारों में है.
भर्तियों में देशप्रेम का रंग
इसके राजनैतिक मायने भी निकाले जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने अपनी विभिन्न रैलियों के माध्यम से प्रदेश में हो रही इन भर्तियो पर देश प्रेम का रंग चढ़ा दिया है. गत 3 जुलाई को पश्चिम कामेंग जिले में पोर्टर भर्ती रैली में आये नवयुवकों को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा था कि ‘यह उचित अवसर है जब सेना के कंधे से कंधा मिला कर, हमारे बहादुर युवक देश के प्रति अपना प्रेम और कर्तव्य जाहिर कर सकते हैं’ उनके अनुसार यह देशसेवा का शानदार अवसर है. वह 22 महार रेजिमेंट द्वारा आयोजित इस भर्ती रैली में युवकों का उत्साह बढ़ाते दिखे. भारत मे ब्रिटिश शासन के दौरान एक ऑग्जिलरी लेबर कोर हुआ करती थी, जो इन पोर्टरों की भर्ती करवाया करती थी. 1987 में पृथक राज्य का दर्जा मिलने के बाद अरुणाचल में भी दूसरे राज्यों की तरह इनकी भर्तियां श्रम मंत्रालय के अधीन हो गईं. उन दुर्गम जगहों में, जहां न आवागमन के साधन होते थे और न ही सड़कें यह पोर्टर सेना के लिए किसी वरदान से कम नही हैं.
(लेखक सेवानिवृत्त वायु सेना अधिकारी हैं, एक स्वतंत्र लेखक एवं रक्षा विशेषज्ञ के तौर पर मीडिया स्वराज सहित तमाम समाचार चैनलों को अपनी सेवाएं दे रहे हैं)