क्या उपराष्ट्रपति का वक्तव्य न्यायपालिका की स्वतंत्रता के खिलाफ है?

(मीडिया स्वराज डेस्क)

भारत के उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ ने सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना करते हुए उसे “सुपर संसद” और अनुच्छेद 142 को “लोकतांत्रिक शक्तियों के विरुद्ध परमाणु मिसाइल” की संज्ञा दी। यह बयान केवल अलंकारिक नहीं, बल्कि न्यायपालिका की वैध और संवैधानिक शक्तियों को चुनौती देने वाला है।श्री धनखड़ द्वारा 17 अप्रैल 2025 को दिए गए इस भाषण ने एक बार फिर देश की संवैधानिक संस्थाओं के बीच शक्ति संतुलन और न्यायपालिका की भूमिका को लेकर गंभीर बहस छेड़ दी है।

Vice President Jagdeep Dhankhar
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़

न्यायपालिका की संवैधानिक भूमिका

भारत का संविधान स्पष्ट रूप से तीनों शाखाओं — विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — के बीच शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत स्थापित करता है। लेकिन यह भी मान्यता प्राप्त है कि जब विधायिका या कार्यपालिका अपने संवैधानिक कर्तव्यों से च्युत होती है, तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट का यह कर्तव्य है कि वह संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करे, चाहे वह संसद द्वारा पारित कानूनों की समीक्षा हो या कार्यपालिका के निर्णयों की संवैधानिकता पर निगरानी।

(विस्तृत जानकारी के लिए कृपया यह वीडियो देखें )

देखिएवरिष्ठ पत्रकार राम दत्त त्रिपाठी और कुमार चंद्र का विश्लेषण — सुप्रीम कोर्ट पर हो रहे हमलो  के पीछे की राजनीति क्या है?

अनुच्छेद 142: न्याय के लिए विशेष अधिकार

अनुच्छेद 142 भारतीय संविधान की एक विशिष्ट व्यवस्था है, जो सुप्रीम कोर्ट को “पूर्ण न्याय” सुनिश्चित करने के लिए किसी भी आदेश को पारित करने की शक्ति देता है। इसका उपयोग उस स्थिति में किया जाता है, जब विधायिका या कार्यपालिका किसी विषय पर मौन हो, या जहां अन्य साधन उपलब्ध न हों। यह शक्ति न्यायिक अराजकता नहीं, बल्कि न्याय की अंतिम गारंटी है।

लेकिन श्री धानखड़ सुप्रीम कोर्ट के इस इस अधिकार की तुलना परमाणु मिसाइल से करते हैं। वह भूल गए कि सुप्रीम कोर्ट के आईसीई अधिकार का इस्तेमाल करके अयोध्या विवाद में विवादित जमीन हिंदुओं को राम मंदिर बनाने के लिए सौंपी थी।

राष्ट्रपति को निर्देश: क्या यह न्यायिक अतिक्रमण है?

धनखड़ का यह तर्क कि सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को निर्देश नहीं दे सकता, संविधान की व्याख्या की सीमित समझ को दर्शाता है। जब राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेदों के अंतर्गत विधायिका या राज्यपालों के प्रस्तावों पर निर्णय लेना होता है, और यदि इसमें अत्यधिक विलंब या निष्क्रियता होती है, तो सुप्रीम कोर्ट समयसीमा तय कर सकता है — यह संवैधानिक जवाबदेही सुनिश्चित करने की प्रक्रिया है, न कि कार्यपालिका पर अतिक्रमण।

लोकतंत्र में न्यायपालिका की जवाबदेही

उपराष्ट्रपति का यह कहना कि न्यायपालिका की कोई जवाबदेही नहीं है, भ्रमित करने वाला है। न्यायपालिका की जवाबदेही उसके निर्णयों की पारदर्शिता, अपील की प्रक्रिया, न्यायिक समीक्षा और सार्वजनिक आलोचना के माध्यम से होती है। न्यायपालिका को संसद के प्रति नहीं, बल्कि संविधान और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के प्रति जवाबदेह होना चाहिए।

सत्ता बनाम संतुलन: सुप्रीम कोर्ट पर अभियान क्यों?

यह वक्तव्य तब आया है जब सोशल मीडिया और विभिन्न सरकारी प्रवक्ताओं की ओर से सुप्रीम कोर्ट के विरुद्ध लगातार नकारात्मक प्रचार किया जा रहा है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह संगठित अभियान न्यायपालिका को दबाव में लेने का प्रयास है? क्या सरकार न्यायपालिका को “अनुकूल” बनाने की दिशा में बढ़ रही है?

सुप्रीम कोर्ट समय – समय पर संविधान के मौलिक स्वरूप की रक्षा के लिए फैसले देता रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति का अधिकार भी एक फ़ैसले से अपने पास ले रखा है, जबकि सरकार चाहती है कि जजों की नियुक्ति वह करे।

वर्तमान सत्तारूढ़ दल और उसके सहयोगी घोषित रूप से भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। लेकिन वर्तमान संविधान और उसकी सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई व्याख्या के चलते यह संभव नहीं है। इसलिए भी सुप्रीम कोर्ट से चिढ़ना स्वाभाविक है।

विवादास्पद वक़्फ़ क़ानून के कुछ प्रविधानों पर सुप्रीम कोर्ट की अंतरिम रोक भी सत्ताधारी दल को पसंद नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने उपराष्ट्रपति की आलोचना करते हुए कहा है कि अदालत ने अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं किया।

निष्कर्ष

भारत के उपराष्ट्रपति जैसे उच्च संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वे संविधान की गरिमा बनाए रखें और संस्थाओं के बीच संतुलन को सुदृढ़ करें। उनके भाषण में प्रयुक्त कठोर शब्दावली और सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों पर सवाल संवैधानिक व्यवस्था के लिए चिंताजनक संकेत हैं।

भारत के उपराष्ट्रपति जैसे उच्च संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वे संविधान की गरिमा बनाए रखें और संस्थाओं के बीच संतुलन को सुदृढ़ करें। उनके भाषण में प्रयुक्त कठोर शब्दावली और सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों पर सवाल संवैधानिक व्यवस्था के लिए चिंताजनक संकेत हैं।

लोकतंत्र में बहस आवश्यक है, लेकिन जब कार्यपालिका और विधायिका एक मजबूत बहुमत के साथ सत्ता में हों, तब न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों की अंतिम रक्षक बनती है। यदि उस पर भी संदेह और दबाव डाला जाएगा, तो लोकतंत्र का स्तंभ हिल सकता है।

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