जाति पाँति पूछे नहीं कोई ,हरि को भजा सो हरि का होई। 

भारत में संत समाज का एक बृहद इतिहास और सनातन परंपरा है

डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी, प्रयागराज 

    समाज के हर वर्ग में समता और समरसता के अमृतत्व से मानव को सांस्कृतिक एकता के एक सूत्र में पिरोने का महत्वपूर्ण कार्य इस देश के भक्त संतों ने किया। प्रेम ही एकता का मूल तत्व है तथा जातिविहीन समाज से ही एक सुदृढ़ राष्ट्र की नीव पड़ सकती है। ऐसे समाज की संरचना के लिए मनीषी संतो ने सम्पूर्ण भारत में जो त्याग ,तपस्या और संघर्ष का आदर्श रखा वह वंदनीय है। इस सामाजिक क्रांति का मूलमंत्र रहा -जाति पाँति पूछे नहि कोई हरि को भजे सो हरि का होई। दक्षिण भारत के आलवार वैष्णव संतों तथा नायनार शैव संतों की भक्ति  धारा को रामानंद जैसे भक्त शिरोमणि उत्तर में ले आये जिसकी कई धाराओं ने भक्तिरस से उत्तर पूरब को रससिक्त किया। तुलसी ,कबीर ,रैदास ,दादू ,सेन ,धन्ना जैसे संतों ने भक्ति के इस प्रकाश से जातीयता ,द्वेष संघर्ष के अंधकार को दूर किया। उत्तर में विष्णु के स्थान पर राम की भक्ति को जन जन ,घर घर तक पहुँचाने में रामानंद का बड़ा योगदान रहा जिनके बारे में कहा जाने लगा -जगतगुरु आचारज रूपा रामानंद राम के रूपा। 

        रामानंद के शिष्य कबीर जिनका जन्म 1398 ई में हुआ था , ने भारत का ध्यान एक ऐसे सार्वजनिक धर्म की और आकृष्ट किया जो न हिन्दू था न मुसलमान था। कबीर ने दोनों धर्मो के कर्मकांडों ,मतभेदों की कड़े शब्दों में निर्भीकता के साथ आलोचना की। राम शब्द का उपयोग उन्होंने ईश्वर के रूप में उपयोग किया पर यह भी स्पष्ट किया कि  -सिरजनहार न ब्याही सीता ,जल पाषाण न बंधा। ईश्वर की खोज के विषय में कबीर ने कहा –मोको कहाँ ढूंढे बन्दे मैं तो तेरे पास में। ना मैं देवल ना मैं मस्जिद ना काबे कैलाश में। 

       कबीर की भांति नानक जिनका जन्म 1469 ई में हुआ था ,का धर्म भी एकता और प्रेम का धर्म था। नानक के संप्रदाय में हिन्दू और मुस्लमान दोनों शामिल हुए। नानक मक्का पहुंच कर एक खुदा का प्रतिपादन करते हुए अपने को उसका खलीफा बताया –ला इलाह इल्लल्लाह गोविन्द नानक ख़लफ़ल्लाह –अर्थात अल्लाह केवल एक है यही गोविन्द है नानक उसका खलीफा है। 

      कबीर और नानक के अलावा उत्तर भारत में मानव धर्म की भक्ति धारा को धन्ना जाट ,पीपा ,सेना नाई ,रैदास तथा दादू मलूकदास जैसे संतों ने प्रवाहमान किया। मूर्तिपूजा ,तीर्थयात्रा ,जाति पाँति इत्यादि का इन लोगों में विरोध किया। दादू ने कहा –ब्रह्मा, विष्णु ,महेश को कौन पंथ गुरुदेव तथा मुहम्मद किसके दीन में जबराइल किस राह –अर्थात ब्रह्मा ,विष्णु ,महेश का पन्थ क्या है। मोहम्मद का दीन क्या है ,जिबराईल का मार्ग क्या है। 

       सन 1550 के समीप हिन्दू धर्म और इस्लाम को मिलाकर संत बीरभान ने सत्तनामी संप्रदाय की स्थापना की जो मनुष्य मात्र की समता के साथ ध्यान और सदाचार पर बल देते थे। उसी समय हिन्दू मुस्लिम एकता का नारायणी संप्रदाय भी अस्तित्व में आया. इस संप्रदाय के लोग पूर्व की और मुँह करके पांच बार ईश्वर की प्रार्थना नित्य करते थे। उनके ईश्वर के नाम में एक नाम अल्लाह का भी था। पंद्रहवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक कई और संप्रदाय और संत अस्तित्व में आये जिन्होंने सामाजिक समरसता और एकता का प्रचार प्रसार किया जिसमे प्रमुख है रामसनेही संप्रदाय और शिवनरायणि संप्रदाय। संतों में उल्लेखनीय हैं दाराशिकोह के गुरु बाबालाल , बुल्लासाहेब  , जगजीवन दास। 

     परहित सरिस धर्म नहि भाई परपीड़ा सम नहीं अधमाई –परोपकार को सबसे बड़ा धर्म और परपीड़ा को सबसे बड़ा अधर्म कहने वाले तुलसी ने समाज में समता लाने के लिए ऐसे राम को प्रतिष्ठित किया जो –बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर रामसरिस कोउ नाही। 

      बंगाल में पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में चैतन्य महाप्रभु और बाउल संतों ने जाति भेद का कड़ा विरोध किया। चैतन्य के शिष्यों में हिन्दू मुसलमान ,ऊंच जाति ,नीच जाति के सब लोग शामिल थे। चैतन्य के मुख्य शिष्यों में से तीन -रूप ,सनातन और हरिदास मुसलमान थे। 

     महाराष्ट्र के पहले संत जिन्होंने जाति भेद ,कर्मकांड ,और धार्मिक संकीर्णता के  बंधन को तोड़कर स्वतंत्रता प्रेम और भक्ति का सन्देश दिया वह नामदेव थे। महाराष्ट्र के एक दरजी या रंगरेज परिवार में 26 अक्टूबर 1270 में जन्मे पहले संत पुरुष हैं जिन्होंने यह स्थापित किया की गुरु ही ईश्वर है तथा भक्त और भगवान एक ही हैं। विठ्ठल भगवान के अनन्य भक्त वैष्णव निर्गुण संत परंपरा के बीज रूप नामदेव के सम्बन्ध में प्रचलित रहा की वे पांडुरंग से मित्रवत बात किया करते थे।

         संस्कृत के विष्णु मराठी के विट्ठल कृष्णावतार के बालरूप हैं। विट्ठल के भक्तों का परिवार बड़ा विचित्र है -संतज्ञानेश्वर, निवृत्तिनाथ और मुक्ताबाई जैसे भक्त ब्राह्मण कुल में जन्म ले कर भी बहिष्कृत रहे। नामदेव दरजी हैं ,गोरा कुम्हार है ,चोखामेला महार दलित है। विट्ठल भक्त इस समाज का लक्ष्य रहा –समता वर्तावी -अहंता खांडवी अर्थात सबके साथ समता का व्यवहार और अहंकार का खंडन। 

    विप्र वंश में सन 1633 में जन्मे संत एकनाथ ने महाराष्ट्र में अनेक परम्पराओं का भंजन कर महारों ,दलितों को समानता का अधिकार दिया। संस्कृत के प्रकांड पंडित होते हुए भी उन्होंने लोकभाषा मराठी में भागवत की रचना की ,इसके लिए उन्हें काशी के पंडितों के कोप को भी सहना पड़ा। एकनाथ ने ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य ,शूद्र ,चांडाल सबके समान अधिकार की घोषणा करते हुए कहा –ब्रह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र चाण्डालादि अधिकार ,एक भावे गावें नाम। 

    महाराष्ट्र में सन 1608 में जन्मे संत तुकाराम कबीर के समान जात पाँत ,छुआ छूत ,मूर्तिपूजा ,यज्ञ हवन जैसे कर्मकांडों के कट्टर विरोधी और हरि की भक्ति के सर्वमान्य प्रचारक रहे। शूद्रकुल में जन्मे तुकाराम के शिष्यों में विप्रवंश के लोग भी थे जिन्हे हर प्राणी में हरि ही दिखलाई देते थे। संत तुकाराम ने इस्लाम और हिन्दू धर्म को मिलाने का भी कार्य किया। छत्रपति शिवा जी महाराज संत तुकाराम का बहुत आदर करते थे। 

   महात्मा गाँधी के प्रिय भजन –वैष्णव जन तो तेणे कहीये ,जे पीड़ पराई जाणे रे –के अमर उद्बोधक संत नरसी मेहता सन 1414 में गुजरात में जन्मे। श्रेष्ठ ब्राह्मण नागर होते हुए भी नरसी अस्पृश्य वर्ग में भजन कीर्तन करते थे और उनके बीच में काफी लोकप्रिय भी हुए ,फलस्वरूप नागरों ने उन्हें जाति बहिष्कृत कर दिया। संत नरसी मेहता ने भक्तिमार्ग का सार तत्व बताते हुए कहा –हरिना जन मुक्ति न मांगे ,मांगे जन्मोजनम अवतारे रे –अर्थात भगवान का भक्त मुक्ति नहीं मांगता वह बार बार जन्म लेकर प्रभु की सेवा करना चाहता है। 

 सन 1127 में कर्नाटक में जन्मे संत बसवेश्वर जन्मना विप्र थे इन्हें  देश के क्रन्तिकारी संतो में अग्रगण्य माना जाता है। बसवेश्वर  के पिता जी वेद के प्रकांड पंडित थे पर बालक बसवेश्वर  शिवभक्त कण्णप्पा और दलित संत चन्नय्या से इतना प्रभावित हुआ  की जब उसके परिवार लोग आठ वर्ष की अवस्था में उनका  यज्ञोपवीत संस्कार करना चाहे तो वह बालक विरोध करते हुए कहने लगा की ये कर्मकांड और भगवद्भक्ति एक दूसरे के विरोधी हैं। बसवेश्वर ने गौतमबुद्ध की भांति सामाजिक क्रांति ला दिया था।

बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर भारत में जिस वाल्तेयर की कल्पना करते थे वे कदाचित बसवेश्वर थे। मेरा निजी मत है की यदि बाबा साहेब भारत के भक्ति आंदोलन और बसवेश्वर के योगदान से भली प्रकार परिचित होते तो कदाचित बौद्धधर्म में दीक्षित न होकर बसवेश्वर की परम्परा को आगे बढ़ाते जिसने मंदिर निर्माण से अधिक महत्त्व निर्धनों को दिया.  देह ही मंदिर है बसवेश्वर यह कथन बहुत प्रसिद्द है —जिनके पास धन है वे शिवालय बनवाते हैं। मैं धनहीन क्या कर सकता हूँ ,मेरे पैर ही खम्भे हैं तथा मेरी देह देवालय। मेरा सिर ही सोने का कलश है ,हे कुडल संगम देव ज़रा सुनना। स्थावर नश्वर है पर जंगम का नाश नहीं हो सकता। 

       भारत में संत समाज का एक बृहद इतिहास है और सनातन परंपरा है। उड़ीसा के विप्र संत जगन्नाथदास  जी ने शूद्र संत बलरामदास जी से दीक्षा मन्त्र ली थी। कश्मीर में शिवोपासना  भक्ति लहरी में सभी सम्प्रदायों को आत्मसात करके शैव साधिका लल्लेश्वरी ने समतामूलक पंथ की स्थापना की। 

       पांचवी से नवीं सदी तक दक्षिण भारत में भक्ति का बोलबाला रहा। पूरे देश में भगवद्भक्ति के प्रचार प्रसार में आलवार वैष्णव संतों तथा नायनार शैव संतों का बड़ा योगदान है.  इन संतों ने  भारत में सांस्कृतिक एकता और अखंडता स्थापित किया जिससे देश में धर्म और समाज का स्वरूप ही  बदल गया।  भक्त संतो ने स्थापित किया की प्रेम ही एकता का मूलतत्व है तथा जातिविहीन समाज से ही सांस्कृतिक रूप से सुदृढ़ राष्ट्र हर प्रकार के झंझावातों को झेल सकने में समर्थ हो सकता है। 

      आज देश को संत समान चित की आवश्यकता है  –हित अनहित नहि कोउ। 

 

photo of writer Chandra Vijay Chaturvedi
चंद्रविजय चतुर्वेदी         

लेखक एक वैज्ञानिक एवं शिक्षाविद हैं 

 

          

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