विश्वासमत में ही जालसाजी

दुष्यंत दवे

देश में बड़े पैमाने पर लोग जब कोविड -19 जैसी घातक वैश्विक बीमारी से जूझ रहे हैं, ठीक उसी समय देश के कुछ हिस्सों मुख्य रूप से राजस्थान में कुछ लोग डॉ भीम राव अंबेडकर को सही साबित करने में लगे हैं। मुझे ऐसा लगता है कि हमारा भारतीय संविधान चाहे जितना महान हो, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है क्योंकि इसे सहेजने वाले लोग ही भ्रष्ट हो चुके हैं।

राजस्थान के पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट और उनके सहयोगियों ने उस सरकार को गिराने की रणनीति बनाई, जिसने उन्हें पिछले विधानसभा चुनावों में अपने कैंडिडेट के तौर पर मौका दिया था। ऐसा करके वह संविधान की दसवीं अनुसूची के अनुच्छेद 191(2) में विहित प्रावधानों के अनुसार अयोग्य हो गए हैं। यही संविधान का नियम है और कोई इसे अन्यथा नहीं ले।सकता है।

ये समय पुनर्विचार का है और ये होना भी चाहिए।

अनुच्छेद 191 (2) स्पष्ट रूप से यह कहता है कि यदि कोई भी विधानसभा या विधान परिषद का सदस्य संविधान की दसवीं अनुसूची के अनुसार अयोग्य घोषित होने वाला कृत्य करता है तो वह स्वतः ही विधानसभा अथवा विधान परिषद की सदस्यता के अयोग्य हो जाएगा। संविधान की दसवीं अनुसूची यह कहती है कि दल-बदल के आधार पर सदस्यता से अयोग्य होने का सिद्धांत है। इसके पैरा 2(1) के अनुसार किसी भी सदन का सदस्य उस दल का भी सदस्य होना चाहिए जिसका वह निर्वाचन के समय सदस्य रहा हो।

यह अनुच्छेद उस राजनैतिक दल और सदस्य के बीच रिश्ते को मज़बूत करता है, जिसने निर्वाचन के दौरान उसे अपना प्रत्याशी बनाया हो। पैरा 2 अयोग्यता से संबंधित आधार प्रदान करता है, यदि उसने स्वैछिक रूप से अपने आधारभूत राजनैतिक दल की सदस्यता से इस्तीफा दिया हो।

सदस्यता का परित्याग करने के कई तरीक़े हैं। वह इसे जताकर अथवा बिना जताए या मंशा स्पष्ट किये बिना त्याग सकते हैं। वह अपने किसी कृत्य अथवा बगैर कुछ किये भी सदस्यता का परित्याग कर सकते हैं। लेकिन सदस्यता से अयोग्य करार देने का निर्णय सभापति का ही होता है। पैरा 6 के अनुसार सभापति का निर्णय ही अंतिम होता है। इसके उपखण्ड 2 के अनुसार अनुच्छेद 212 के आलोक में अयोग्यता संबंधी कार्यवाही की जा सकती है। इस अनुच्छेद की सीमा यह है कि न्यायालय इस कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं।

यह संवैधानिक नैतिकता की बात है जिसका तात्पर्य है संवैधानिक लोकतंत्र के सिद्धांतों पर अडिग रहना। डॉ भीमराव अंबेडकर ने भी संवैधानिक नैतिकता और न्यायिक सिद्धांतों पर अडिग रहने की वकालत की थी। उन्होंने यह भी कहा था कि संविधान के मूलभूत ढांचे को क्षति पहुंचाए बिना इसमें आमूल चूल परिवर्तन की संभावना है।

अनुच्छेद 172 के अंतर्गत किसी भी राजनैतिक दल का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे सदस्य जो पांच साल तक जनता की सेवा का प्रण लेकर सदन में आये हों, उन्हें संविधान के अतिक्रमण का अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 188 और तीसरी अनुसूची के फॉर्म VIII बी के अंतर्गत ली गई अपनी शपथ को भुलाने वाले सदन के सदस्य, जो यह शपथ लेते हैं कि , वह विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति पूरी निष्ठा रखेंगे और उसी के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेंगे, उन्हें संविधान के अतिक्रमण का अधिकार नहीं है।

सदन के सदस्य मनमाना आचरण नहीं कर सकते हैं। उन्हें संविधान में अपनी पूर्ण निष्ठा रखनी ही होगी और इसी आधार पर जो राजनैतिक दल उन्हें निर्वाचन का अवसर देते हैं उनके प्रति भी ईमानदार होना पड़ेगा।

यदि सत्ताधारी दल के निर्वाचित सदस्य को कोई प्रलोभन अथवा ऐसा ही कुछ दिया जाता है तो फ्लोर टेस्ट संवैधानिक रूप से अनैतिक है। दसवीं अनुसूची को तोड़ मरोड़ कर पेश करना और गतिरोध उत्पन्न करना न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से भी सही नहीं ठहराया जा सकता है।

यही सही समय है जब न्यायालय इस बात में हस्तक्षेप कर यह सुनिश्चित करे कि बहुमत साबित करने के लिए फ्लोर टेस्ट का प्रयोग कितना उचित है। यदि स्पष्ट बहुमत प्राप्त न करने वाला दल अपना बहुमत सिद्ध करने का प्रयास करे और सरकार बनाने का दावा करे तो उस दल के बहुमत को संविधान की नैतिकता न प्राप्त हो।

हम ऐसी आशा करते हैं कि न्यायपालिका इस दिशा में अवश्य प्रभावी कदम उठाएगी क्योंकि वही आखरी उम्मीद है। राजनैतिक दलों और उनके नेताओं में संविधान को दरकिनार कर सत्ता पाने का लोभ स्पष्ट रूप से दिख रहा है।

ऐसे सत्ताधारी दल जो केंद्र की सत्ता में हो और जिन्हें के राज्यों में भी बहुमत प्राप्त हो- ऐसी स्थिति को हवा देते नजर आ रहे हैं। यह ठीक बात नहीं है। गुजरात और मध्य प्रदेश इसका उदाहरण हैं, जहां एक विशेष राजनीतिक दल जिस प्रकार से सत्ता में आया और बाद में राज्यसभा में भी एक अतिरिक्त सीट पर विजय प्राप्त की। कांग्रेस का धीमी गति से ह्रास कहीं न कहीं लोकतंत्र का भी ह्रास है। लेकिन उस स्थिति में क्या कहा जाए जब ऐसे नेता जो राहुल गांधी का विकल्प हों उन्होंने अपने सिद्धांतों की ही बलि चढ़ा दी हो।

(लेखक एक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं और उच्चतम न्यायालय की बार कौंसिल के अध्यक्ष हैं)

(इसका अनुवाद सुधांशु सक्सेना द्वारा किया गया है)

(साभार: इंडियन एक्सप्रेस)

 

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