अब च्यवनप्राश खाकर बूढ़े जवान क्यों नहीं हो रहे !

च्यवनप्राश बनाने और खाने का सही तरीक़ा जानें

डाक्टर मदन गोपाल वाजपेयी
वैद्य डा मदन गोपाल वाजपेयी

च्यवनप्राश ऋषि के बाद कितने उदाहरण आये बूढ़े से जवान होने के !!आयुर्वेदिक औषधियों में यदि कोई सर्वाधिक विक्री वाला उत्पाद है तो वह है च्यवनप्राश। च्यवनप्राश कल्प का प्रथम उल्लेख चरक संहिता में ही प्राप्त होता है। इस रसायन का वैशिष्ट्य इसलिये भी सिद्ध है कि भगवान् पुनर्वसु आत्रेय की चरक संहिता के बाद भी जो भी संहितायें और ग्रन्थ रचित हुये, जैसे- योग रत्नाकर, अष्टाङ्ग संग्रह, अष्टाङ्ग हृदय, चिकित्सा कालिका, शाङ्र्गधर संहिता, भैषज्य रत्नावली आदि ग्रन्थकारों ने किंचित् परिवर्तन के साथ च्यवनप्राश को महत्व दिया। चिकित्सा कालिका ने तो इसका नाम च्यावनप्राश लिखा है। ​​​

​च्यवन ऋषि और सुकन्या के मिलन भारत वर्ष के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या द्वारा शरारत में तपस्यारत च्यवनप्राश ऋषि के आँखों में काँटा चुभाने की कहानी फिर प्रायश्चित्त रूप में सुकन्या की सहमति से ही महाराज शर्याति का च्यवन ऋषि से विवाह का प्रसंग पुराणों में भी उल्लिखित है। 

रसायन का नाम च्यवनप्राश कैसे पड़ा

​महर्षि तप करते-करते अत्यन्त क्षीण/कृश हो गये थे। च्यवन का अर्थ ही क्षीण होता है लोग उन्हें ‘च्यवन’ कहने लगे थे। एक क्षीण व्यक्ति जिस रसायन का प्राश कर स्वस्थ हुआ यहीं से इस रसायन का नाम च्यवनप्राश पड़ा। एक राजा की बेटी का विवाह तो च्यवन ऋषि से हो गया पर बेटी का पिता होने के नाते दामाद की क्षीणता देखकर राजा शर्याति चिन्तित रहते थे। जैसे आज भी समर्थ लोग विदेश से डॉक्टर बुलाते हैं या वे विदेश जाते हैं तो उस समय भी महाराज शर्याति ने अपनी पुत्री के सुख के लिये भारत के बाहर त्रिविष्टप् के चिकित्सक अश्विनी कुमारों को अपने दामाद की चिकित्सा के लिये बुलाया, अश्विनी कुमारों ने एक रसायन का अविष्कार किया जिसका बाद में च्यवनप्राश नाम पड़ा। इस रसायन के प्रयोग से च्यवन ऋषि जो बहुत बूढ़े हो चुके थे वे फिर से युवा हुए। (च्यवन: सुवृद्धोऽभूत पुनर्युवा ।। च० चि० रसा० १/१/७३।।) 

​अब प्रश्न यह आता है च्यवनप्राश ऋषि के बाद कोई व्यक्ति उदाहरण के रूप में आ सका जो अत्यन्त वृद्ध हो गया हो और फिर से युवा हो सके तो क्या हम यह मान लें कि पुनर्वसु आत्रेय जैसे महर्षि क्या झूठ बालते थे? जी नहीं!

वास्तविक फल निर्माण,  सेवन विधि पर निर्भर

​दरअसल किसी भी औषधकल्प का वास्तविक फल उसके सम्यक् निर्माण, सम्यक् सेवन विधि पर निर्भर है। आइये च्यवनप्राश के निर्माण पर संक्षिप्त समीक्षा करें, महर्षि चरक, च्यवनप्राश के निर्माण में मत्स्यण्डिका (खाँड) का प्रयोग करने का निर्देश देते हैं। (मत्स्यण्डिकाया: पूताया लेहवत्साधु साधयेत्।। च०चि०रसा० १/१/६७।।) किन्तु दक्षिण भारत की १-२ फार्मेसियों के अलावा अन्य किसी भी फार्मेसी में मत्स्यण्डिका (खाँड) का प्रयोग च्यवनप्राश के घटक द्रव्यों में उल्लिखित नहीं मिलता। व्यापारिक तौर से औषधि निर्माण करने वाले कहते हैं कि मत्स्यण्डिका (खाँड) से च्यवनप्राश का निर्माण करने में न तो वैसा स्वाद आता और न वैसी मिठास, जैसी मिठास और स्वाद चीनी के द्वारा निर्मित च्यवनप्राश में होती है। 

​भौतिकवाद के पक्ष में उनका यह तर्क माना जा सकता है पर जहाँ तक च्यवनप्राश के कहीं लाभ की चर्चा हो तो कहाँ मत्स्यण्डिका (खाँड) के गुण और कहाँ यह केमिकल युक्त चीनी।

​च्यवनप्राश का मुख्य उपकरण अष्टवर्ग हैं जो आज भी सन्दिग्ध और दुष्प्राप्य बना हुआ है। वंशलोचन की दुर्लभता जो सर्वविदित है। इसका प्रधान द्रव्य आँवला है। महर्षि चरक ने च्यवनप्राश के पश्चात् रसायन कल्प में ‘आमलक घृत’ वर्णन किया है, उसमें उन्होंने बताया है कि कैसा आँवला ग्रहण करना चाहिए- आमलकानां सुभूमिजानां कालजानामनुपहतगन्धवर्णरसानामपूर्णरसप्रमाणवीर्याणम् —–।। च०चि०रसा० १/२/४।। यानी ऐसे आँवलों का प्रयोग किया जाय जो उत्तम भूमि में उत्पन्न हों, उचित समय में संग्रह किये गये हों, उन आँवलों का गन्ध, रूप और रस विकृत न हुआ हो तथा जिन आँवलों में पूर्णरूप से रस, प्रमाण एवं वीर्य विद्यमान हो।

मार्च-अप्रैल (माघ-फाल्गुन) मास में ही आँवला पूर्णरूप से रस,प्रमाण, गंध, रूप एवं वीर्य सम्पन्न हो पाता है। किन्तु व्यवसायिकता के चलते अनेकों फार्मेसियाँ तो च्यवनप्राश के लिये जनवरी-फरवरी में ही आँवला एकत्र कराने लगती हैं। शीत गृहों में एकत्रित आँवलों से पूरे वर्ष भर च्यवनप्राश बनाती हैं। क्या शीत गृहों में एकत्रित आँवला वैसा रस, प्रमाण, गन्ध, रूप एवं वीर्य सम्पन्न रह सकता है? केवल आधुनिक वैज्ञानिक मानकों के अनुसार च्यवनप्राश के लिये आँवला का चयन करना कितना उचित है?

च्यवनप्राश की सही सेवन विधि क्या है

​अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न एक आता है कि च्यवनप्राश की सही सेवन विधि क्या है? महर्षि चरक बताते हैं कि-

अस्य मात्रां प्रयुञ्जीत योपरुंध्यान्न भोजनम्।

———————————।।

मेधां स्मृतिं कान्तिमनामयत्वमायु प्रकर्षं बलमिन्द्रियाणाम्।

स्त्रीषु प्रहर्षंपरमाग्निवृद्धिं वर्णप्रसादं पवनानुलोम्यम्।

रसायनस्यास्य नर: प्रयोगाल्लभेत जीर्णोऽपिकुटीप्रवेशात्।।

जराकृतं रूपमपपास्य सर्वं विभर्तिं रूपं नवयौवनस्य।।

।। च०चि०रसा० १/१/७३-७४।।

​च्यवनप्राश इतनी ही मात्रा ली जाय जो भोजन करने में रुकावट न डाले। इस रसायन कल्प का लाभ ‘कुटीप्रावेशिक प्रयोग विधि’ से सेवन करने पर ही प्राप्त होता है। कुटी प्रावेशिक विधि से सेवन करने से मेधा, स्मृति, कान्ति, आरोग्यता, आयु, मैथुन शक्ति, इन्द्रियों का बल, पाचकाग्नि की वृद्धि, रंग का निखार, वायु का अनुलोमन, बुढ़ापा के कारण रूप में आयी विकृति का निवारण होकर नवयौवन की प्राप्ति होती है।

​सन्मार्ग प्रेस वाराणसी से प्रकाशित ‘करपात्र चिन्तन अंक’ में एक प्रसंग आया है कि स्वामी करपात्री जी और पं० मदन मोहन मालवीय दोनों को कुटीप्रावेशिक विधि से रसायन सेवन का प्रयोग कराया गया था और उसके सुपरिणाम मिले थे।

कुटी प्रावेशिक विधि (Construction of Health Resorts)- इसके लिये ऐसे स्थान का चयन करना चाहिये जहाँ पर पुण्यकर्म स्नान,संध्या,यज्ञ, दान, अतिथि सेवा करने वाले स्वामी, चिकित्सक, और विद्वान्, रखवाले, व्यवस्थापक, व्यापारी और सज्जन मानव रहते हैं. इससे वहाँ का पर्यावरण और वातावरण पवित्र रहता है, सभी तरह सुविधा सुलभ हो, वास्तुशास्त्र के अनुसार सभी तरह से उपयुक्त भूमि में कुटी (Resort) का निर्माण करायें।

​कुटी का निर्माण ऐसा हो जो सभी ऋतुओं में सुखदायक हो, वहाँ अशुभ, दूषित शब्दों का प्रवेश न हो और स्त्रियाँ न जाएं। वहाँ मनोविनोद की सामग्री तथा दैनिक उपयोग की सामग्री हो, विद्वान, ब्रह्मण, चिकित्सक और उपयोगी औषधियों भी उपलब्ध हों। आचार्य चरक निर्देश देते हैं कि- 

मुहूत्र्तकरणोपेते प्रशस्ते कृतवापन:। 

धृतिस्मृतिबले कृत्वा श्रद्दधान: समाहित:।

विधूय मानसान् दोषान् मैत्री भूतेषु चिन्तयन्। 

देवता: पूजयित्वाऽग्रे द्विजातींश्च प्रदक्षिणम्।

देव गोब्राह्मणान् कृत्वा ततस्तां प्रविशेत् कुटीम्।।

​​​(च०चि० १/१/२१-२३)

​अर्थात् सूर्य उत्तरायण  समय में, शुक्लपक्ष में, क्षौर कर्म कराकर, धैर्य, स्मृति (विवेक), साहस को धारणकर, श्रद्धापूर्वक सावधान होकर, रजोगुण, तमोगुण, ईर्ष्या, द्वेष आदि से मुक्त होकर, समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रहकर, दिव्यात्माओं, विद्वान्, विवेकी ब्राह्मणों का सम्मान प्रणाम कर उत्तम भावना से भावित  होकर ऐसे रसायन सेवन हेतु कुटी (Resort) में प्रवेश करें।

​अंत में  महर्षि चरक (च०चि० १/४/२७) बताते हैं कि जो व्यक्ति सभी प्रकार के साधनों को जुटाने में समर्थन हो जो मानसिक विकारों से ग्रस्त हो और जिनके शरीर में कोई गंभीर बीमारी हो, बुद्धिमान् हो, इंद्रियों को वश में न रख सकते हों, स्थिर चित्त न हो, जिनमें समय का अभाव हो, जिनके पास पर्याप्त परिजन न हों, उन्हीं के लिये कुटीप्रावेशिक रसायन का लाभ नहीं प्राप्त कर सकता।

​आचार्य चरक यह भी कहते हैं कि जो पापकर्म करते हों, जिनकी आत्मा कर चुकी है जो गंभीर रोगी हो, विद्यावान् और संस्कारी न हो और जो गुरुजनों की सेवा न करते हों वे भी ऐसे रसायन सेवन के पात्र नहीं हैं। 

च्यवनप्राश के सेवन में ज़रूरी बातें

​महर्षि चरक द्वारा च्यवनप्राश सेवन के परिप्रेक्ष्य में पालनीय बातें, मानसिक पवित्रता, जप-तप, पुण्य कर्म की बातें पूरी तरह से वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी हैं। मिशिगन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने १९ हजार ७७५ लोगों पर किये सर्वे के आधार पर सात सितम्बर २०१८ का खुलासा किया कि नास्तिक लोग ज्यादा अवसाद के शिकार होते हैं, ऐसे लोग समाज से अलग-अलग महसूस करते हैं जबकि आस्तिक लोग, पूजा पाठ में भागीदारी रखने वाले लोग भगवान् को अपने मित्र की तरह देखते हैं ऐसे में वह सबसे अलग रहकर भी अलग नहीं रहता।

टेक्सास के वैज्ञानिक एरिक स्टाइस ने २०१७ में एक रिसर्च रिपोर्ट प्रकाशित की  है कि सकारात्मक विचार और ईश्वरवादी लोग निश्चित रूप से अन्य की अपेक्षा स्वस्थ रहते हैं। स्विट्जरलैण्ड में स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिख के वैज्ञानिकों ने अपने शोध में पाया कि संकीर्ण लोगों की अपेक्षा उदार लोगों के मस्तिष्क में ऐसे बदलाव आते हैं जिससे व्यक्ति बहुत ही ,खुशहाल रहता है। अमेरिका में स्थित सैन डिएगो हमोशन लैब यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक रिसर्च में पाया कि झूठ बोलना शारीरिक और मानसिक रूप से बहुत ही नुकसान पहुंचाता है भले ही वह झूठ अच्छे नियत से ही क्यों न बोला गया हो। इसलिये चरक ने च्यवनप्राश सेवन लाभ पाने के लिये सत्याचरण की बात कही है।

​इण्डियत जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में २५ वर्ष ४५ वर्ष तक के लोगों में फिर रिसर्च कर उसका प्रकाशन किया गया उसमें स्पष्ट बताया गया कि प्रार्थना, ध्यान, जप जैसे आध्यात्मिक कार्य हमारे मस्तिष्क  की प्रोसेसिंग की गति बढ़ा देते हैं।

​अब आप समझ सकते हैं कि च्यवनप्राश को कुटीप्रावेशिक सेवन करने और उत्तम आचरण, धार्मिक, आध्यात्मिक मानसिकता पूर्वक सेवन करने के लिये आचार्य चरक ने क्यों कहा। आप यह भी समझ सकते हैं कि च्यवनप्राश ऋषि के बाद च्यवनप्राश सेवन करने से बूढ़े से जवान बनने का उदाहरण क्यों नहीं सामने आ सका? क्योंकि यह च्यवनप्राश वैसे तरीके से सेवन किया नहीं जा रहा जैसा चरक कहते हैं। जैसे कोई नॉर्मल सैलाइन लगाये भाग – दौड़ करे तो उसे नार्मल सैलाइन से कितना फायदा होगा यह विचारणीय है ऐसा ही च्यवनप्राश सेवन करने वालों के साथ हो रहा है।

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