जापान में भगवान गणेश का अद्भुत रूप

अनुपम तिवारी, स्वतंत्र, लेखक—अनुपम तिवारी, लखनऊ

जापान अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के लिए विश्व प्रसिद्ध है. इस सुंदरता को चार चांद लगाते हैं, यहां के मंदिर. ज्यादातर लकड़ी से बने और बौद्ध धर्म से ताल्लुक रखने वाले यह मंदिर बहुत प्राचीन हैं, एक हज़ार वर्ष से भी ज्यादा पुराने.

इन्ही खूबसूरत मंदिरों में कुछ अनोखे मंदिर है जो भारतीय पर्यटकों का ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींचते हैं. यह मंदिर है, 8वीं शताब्दी में निर्मित ‘मशुचियामा शोडन’ मंदिर, जो कि जापान के एक देवता कांगिटन को समर्पित है. यह देवता कोई और नहीं, भारतीय देवता गणेश का जापानी रूप हैं.

जापान में गणेश को कांगिटन, शोडन, गनबची या बिनायकटन आदि नामों से जाना जाता है. इनकी मूर्तियां या चित्र, दो भिन्न भिन्न प्रकार के मिलते हैं. यहां हिन्दू परंपरा के ठीक समान, गज मुख धारी, पद्मासन में बैठे गणेश की प्रतिमा मिलती है. किंतु अधिक प्रसिद्ध रूप वह है जिसमे गजमुखी गणेश, एक अन्य मादा हाथी के साथ आलिंगन की अवस्था मे दर्शाए जाते हैं.

भगवान कांगिटन की पूजा जापान में 8वीं-9वीं शताब्दी से शुरू हुई थी. इसको शुरू करने का श्रेय बौद्ध धर्म के ‘शिनगों’ नाम के एक सम्प्रदाय को जाता है जो असल मे बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा का एक भाग थी. वज्रयान शाखा तांत्रिक शाखा भी कहलाती है और इसका उद्भव भारत के ओडिशा में हुआ माना जाता है. ओडिशा से चीन होते हुए यह परंपरा जापान पहुची.

शिनगों सम्प्रदाय की स्थापना का श्रेय 8 वीं सदी के एक जापानी विद्वान ‘कुकई’ को दिया जाता है जो तत्कालीन जापान राजदरबार में एक अधिकारी थे. सन 804 ई. में कुकई ने चीन की यात्रा की और वहीं पर वे बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के संपर्क में आये, जो उस समय ओडिशा से आ कर चीन में अपनी जडें जमा रहा था. कुकई की मुलाकात नालंदा विश्वविद्यालय से स्नातक और बौद्ध धर्म की गांधार शाखा के प्रसिद्ध विद्वान ‘प्रांजा’ से हुई. प्रांजा के बारे में कहा जाता है कि वह प्राचीन बौद्ध ग्रंथों को चीन ले कर गए थे और वहां के निवासियों का बौद्ध धर्म से परिचय इन्होंने ही करवाया था. करीब एक दशक तांत्रिक बौद्धमत के संपर्क में रहने के बाद कुकई वापस जापान लौट गए और वहां पर उन्होंने तांत्रिक बौद्ध मत और हिन्दू देवी देवताओं का प्रचार प्रसार किया.

भगवान गणेश या कांगिटन भी शुरुआत में बौद्ध धर्म की शिनगों शाखा के बहुत सारे देवताओं में से एक थे, और इनका कोई खास महत्व नही था. कालांतर में ‘हिआन’ शासकों के समय (794-1185 ई) में, जिसे जापानी इतिहास का स्वर्णयुग कहा जाता है, कांगिटन ‘बेस्सों’ यानी एक स्वतंत्र देवता के रूप में प्रसिद्ध होने लगे. 861 ई. में लिखी गयी तांत्रिक बुद्धिज़्म की पुस्तक ‘शो कांगिटन शिकिहो’, कांगिटन के विषय मे लिखी गयी प्राचीनतम रचना मानी जाती है. ‘बेस्सों गाइड’, जापान के देवी देवताओं से संबंधित धार्मिक ग्रंथ हैं जो इसी काल मे लिखे गए हैं, इनमें कांगिटन का खूब जिक्र हुआ है.

जापानी मूर्तिकला में कांगिटन को हमेशा एक मादा हाथी के साथ आलिंगन में दर्शाया जाता है, मादा हाथी, स्त्रैण ऊर्जा या ‘शक्ति’ का प्रतीक मानी जाती है. परंपरागत रूप से बौद्ध कला की तांत्रिक शाखा में अक्सर देवी और देवताओं को कामुक आलिंगन की अवस्था में ही दिखाया जाता रहा है. जो कि प्रकृति और पुरुष के मिलन के साथ ही साथ ‘अद्वैत’ का भी प्रतीक है। सामान्यतया कांगिटन की मूर्तियों को लकड़ी के एक बक्से के अंदर रखा जाता है. भक्त इन्ही बक्सों की पूजा अर्चना करते हैं. इसके पीछे कारण यह है कि जापान में कन्फ्यूशियस धर्म के प्रसार के बाद कामुकता भरे आलिंगन को दर्शाने वाली मूर्तियों को छिपा कर रखने का चलन हो गया था. कुछ विशेष अवसरों और त्योहारों पर ही मूर्तियां बक्से से बाहर निकाली जाती हैं.

मजेदार बात यह है कि हिन्दू धर्म के देवता गणेश की तरह कांगिटन की छवि भी शुरुआत में ऐसे सर्वशक्तिमान देवता की थी, जो मानव के मार्ग में अड़चनें उत्पन्न कर सकते थे. उनकी पूजा इसलिए की जानी आवश्यक थी ताकि जीवन की संभावित कठिनाइयों से बचा जा सके. धीरे धीरे यही देवता खुशी, समृद्धि और ज्ञान के देवता माने जाने लगे. यही कारण है कि यह जापान के व्यापारी वर्ग में अधिक लोकप्रिय हो गए. जो प्रायः धन की चाह और व्यापार में उन्नति की आस में इनकी पूजा करने लगे.

दक्षिणी जापान के ओसाका नगर के निकट इकोमा पहाड़ी की ढलान पर स्थित ‘होजान-ज़ी’ मंदिर कांगिटन की पूजा के लिए बहुत प्रसिद्ध है. कहा जाता है कि प्रसिद्ध जापानी भिक्षु ‘टंकाई’ ने इसे 17 वीं शताब्दी ईसवी में बनवाया था। टंकाई का दूसरा नाम ‘होजान’ भी है. लोक कथाओं के अनुसार टंकाई कुछ विशेष सिद्धियों की खोज में जब निकले तो कांगिटन उनकी इस खोज में तमाम रोड़े अटकाने लगे. इस कारण टंकाई को कोई सफलता मिल नही पा रही थी. सन 1678 ई. में उनके गुरु ने इकोमा पर्वत के विषय मे बताते हुए कहा कि यह पृथ्वी पर स्थित सबसे दिव्य स्थान है, “जो न तो स्वप्न है और न ही वास्तविकता”

टंकाई ने उस स्थान पर जाने का निश्चय किया और गज मुख वाले देवता कांगिटन, जिनके चलते उनके प्रयास सफल नही हो पा रहे थे, को संतुष्ट करने के लिए उन्होंने कांगिटन की एक दिव्य मूर्ति उसी पर्वत पर स्थापित करने और उनको इकोमा पर्वत और आसपास के स्थानों का संरक्षक देवता मान लेने की प्रतिज्ञा की. कांगिटन प्रसन्न हुए और उन्होंने टंकाई से वरदान मांगने को कहा, वरदान स्वरूप टंकाई ने उनसे वह सिद्धियां मांग लीं जिनकी खोज में वह दर दर भटक रहे थे.

उसी दिव्य स्थान पर 1680 में टंकाई और उनके शिष्यों ने कांगिटन का एक भव्य मंदिर बनवाया. जिसे आज ‘होजां-जी’ के नाम से जाना जाता है. ओसाका नगर के व्यापारी वर्ग में यह मंदिर बहुत लोकप्रिय हुआ, लोग धन और व्यवसाय की सफलता की आस में यहां आने लगे और देखते ही देखते समूचे जापान के सबसे धनी मंदिरों में यह गिना जाने लगा. लोकप्रियता और तीर्थ यात्रियों की सुविधा को देखते हुए 1918 में जापान की पहली केबल कार इसी मंदिर में चलाई गईं.

आज पूरे जापान में कांगिटन या गणेश को समर्पित लगभग 250 मंदिर पाए जाते हैं. इन मंदिरों में मूली और साके (चावल से बनी एक खास तरह की शराब) प्रसाद रूप में चढ़ाने की परंपरा है. मंदिरों के बाहर दुकानों में कांगिटन देव की छोटी मूर्तियां बिकती हैं जिनको देख सहसा विश्वास नही होता कि भारत की धरती से हजारों मील दूर इस स्थान में भी प्रथम पूज्य भगवान गणेश विद्यमान हैं.

(इतिहास के जानकार और स्वतंत्र लेखक, अनुपम तिवारी वायुसेना से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं)

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