अफगानिस्तान : क्यों खतरनाक है तालिबान

अफगानिस्तान से अमरीकी सेना जाने के बाद चल रही भीषण लड़ाई में तालिबान राजधानी काबुल में प्रवेश कर चुके हैं और वे जल्द ही अपनी सरकार की घोषणा करने जा रहे हैं. बड़ी संख्या में लोग जान बचाकर राजधानी काबुल से भाग रहे हैं.खबरें हैं कि राष्ट्रपति अशरफ़ गनी ने अफगानिस्तान छोड़ दिया है. तालिबान क्यों इतने ख़तरनाक हैं – अनुपम तिवारी का लेख

अनुपम तिवारी, लखनऊ
अनुपम तिवारी, लखनऊ

काबुल का तालिबान के सामने ढह जाना अब शायद नियति ही है. और नियति यह भी है कि 3 दशकों बाद अफगानिस्तान फिर से मजहबी कट्टरवाद, आतंकवाद, और हिंसा के उसी अंधे कुवें में फसने जा रहा है, जो कि सभ्य समाज के लिए अकल्पनीय है. यह सवाल भी वाजिब है कि कैसे यह संगठन अपनी ताकत बढ़ाता है, इसके पीछे कौन है. इसे पैदा किसने किया?

क्यों खतरनाक है तालिबान

शरिया कानूनों के नाम पर मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन, विरोध करने वालों का नृशंस उन्मूलन, स्त्रियों – बच्चों और धार्मिक अल्पसंख्यकों पर अमानवीय अत्याचार, मध्ययुगीन सोच के साथ सभ्यताओं का सांस्कृतिक बलात्कार इस व्यवस्था को परिभाषित किया करता था जिसे हम तालिबान कहते हैं.

विचारणीय है कि इस खतरनाक संगठन को इतना बल कैसे मिलता है जो यह इतना शक्तिशाली बन जाता है कि अमेरिका जैसा देश भी 20 सालों तक लगातार प्रयास करने के बाद भी इसका समूल नाश नहीं कर पाता. अफ़गानिस्तान की धरती से उसके हटते ही तालिबान ठीक उस तरह उठ खड़ा हो जाता है जैसे कि कोई मिथकीय जिन्न हो.

पाकिस्तान और सऊदी अरब की देन है तालिबान?

उत्पत्ति के समय से ही कुछ देश तालिबानियों को संरक्षण दे रहे थे. पाकिस्तान का नाम इनमे सबसे ऊपर आता है. इस्लाम की देवबंदी विचारधारा का लड़ाकू इस्लाम में परिवर्तन पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई एस आई के दिमाग की उपज मानी जाती है. 

अफ़ग़ानिस्तान से सटे पाकिस्तानी इलाकों में ऐसे कई मदरसों में यह अभिनव प्रयोग किया गया जिनमे शिक्षा के नाम पर जेहाद, और आतंक के पाठ पढ़ाए गए. इन विद्यार्थियों को मुजाहिदीन से मिला कर ऐसा घालमेल तैयार किया गया जो अफ़गानिस्तान को विनाश के रास्ते पर ले जाने वाला था. आतंकियों को प्रशिक्षण और असलहे देने का जिम्मा पाकिस्तानी सेना ने उठाया.

वहाबी इस्लाम का गढ़ रहा सऊदी अरब उस समय दुनिया भर के सुन्नी चरमपंथियों के लिए आदर्श था. आतंक की नर्सरी को बढ़ावा देने का काम अरब ने भी बखूबी किया. माना जाता है कि 2001 में जब अमेरिकी सेना ने अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता से तालिबान को बेदखल किया तो करीब 2500 अरब मूल के आतंकियों ने ओसामा बिन लादेन की अगुवाई में अमेरिका के खिलाफ संघर्ष में तालिबान का साथ दिया था। 

तालिबान का इतिहास और अमेरिका की भूमिका

शीत युद्ध के समय जब तत्कालीन सोवियत संघ अपनी ताकत दिखाने का कोई अवसर नहीं जाने दे रहा था, उसने अफ़गानिस्तान पर आक्रमण कर दिया. सोवियत संघ की यह चुनौती अमेरिका के लिए भी थी, जिसने अफ़गानिस्तान के लड़ाकों को हर संभव मदद दी. यह लड़ाके मुजाहिदीन कहलाए. अफ़गानिस्तान के नागरिकों के लिए वह हीरो थे क्योंकि शक्तिशाली सोवियत सेना का मुकाबला कर रहे थे.

इन मुजाहिदीनों को हथियार और गोला बारूद अमेरिका समेत कई पश्चिमी राष्ट्रों से मिल रहे थे. यह मुख्यतः स्थानीय कबीलाई गुट थे. जो अपने अपने स्तर पर सोवियत सेनाओं का मुकाबला कर रहे थे और अंततः बिना कुछ हासिल किए सोवियत संघ को अफ़गानिस्तान छोड़ना पड़ा.

अमेरिका द्वारा तालिबान का इस्तेमाल

स्थिति सामान्य होने के बाद यह मुजाहिदीन भी नेपथ्य में चले गए. 90 के दशक के शुरुआती दिनों में सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व एक ध्रुवीय हो गया था. अमेरिका अब दुनिया का निर्विवाद नेता था. खाड़ी युद्ध के दौरान अमेरिका को एक बार फिर अफ़गानिस्तान के मुजाहिदीन याद आए. वह इनका इस्तेमाल इराक, ईरान, सीरिया से ले कर रूस तक में करने की योजना बनाने लगा. 

उधर अफ़गानिस्तान इस समय यानी 1990 से 94 तक गृह युद्ध से जूझ रहा था. राजनैतिक सत्ता को ले कर तमाम गुट हिंसात्मक आंदोलन का सहारा ले रहे थे और इन्ही तमाम गुटों में से एक तालिबान भी था.

तालिबान का मदरसों से सत्ता तक का सफर

तालिबान शब्द का अर्थ होता है विद्यार्थी. वास्तव में यह लोग पूर्वी और दक्षिणी अफ़गानिस्तान के इस्लामी मदरसों में पढ़ने वाले छात्र थे. ज्यादातर संख्या इनमे पश्तूनों की थी. विशेष बात यह थी कि इन छात्रों में अधिकतर वही लोग थे जो मुजाहिदीनों के भेष में सोवियत सेना के खिलाफ कई साल पहले लड़ चुके थे. और इनको अमेरिका का वरदहस्त प्राप्त था. 

चूंकि प्रारंभ में मुजाहिदीनो को समाज में स्वीकार्यता प्राप्त थी, इसलिए तालिबान लड़ाकों का वहां के समाज ने अधिक विरोध भी नहीं किया और 2 साल के भीतर ही तालिबान, गृह युद्ध में सबसे शक्तिशाली गुट बन कर उभर आया. तमाम युद्धों में पारंगत यह लड़ाके, जल्द ही सब पर भारी पड़ने लगे और अफ़गानिस्तान की राजनैतिक सत्ता भी मुल्ला उमर के नेतृत्व में अपने हाथों में ले ली.

तालिबान के कब्जे में बर्बाद हुआ अफ़गानिस्तान

तालिबान ने काबुल को फतह किया और कंधार, जो कि उनका गढ़ था, को देश की नई राजधानी घोषित कर दिया. सन 1996 से 2001 तक अपने शासन के दौरान तालिबान ने अपने चरमपंथी रुख के कारण अफ़गानिस्तान की स्थिति बद से बदतर कर दी. अर्थव्यवस्था की कमर टूट गई. आम शहरियों का जीवन नारकीय हो गया. मध्ययुगीन कानूनों के माध्यम से आज के समाज को चलाना कितना अतार्किक और अपराधिक हो सकता है, यह दुनिया ने देख लिया.

जिस समय तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में अपनी जड़ें जमा लीं, केवल तीन देश ऐसे थे जिन्होंने तालिबानी सरकार को मान्यता दी थी, पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात. यह देश लगातार उसका समर्थन और सहायता करते रहे जब तक कि तालिबान के सहयोगी आतंकी संगठन अल कायदा ने अमेरिका पर 9/11 का हमला नहीं कर दिया. 

तालिबान का सफाया किंतु पाकिस्तान को राहत

9/11 के बाद घटनाक्रम बड़ी तेजी से बदला और अमेरिकी हस्तक्षेप ने तालिबान को सत्ता से बेदखल कर दिया. साथ ही अल कायदा के सरगना बिन लादेन को पाकिस्तान में पकड़ कर मार डाला. लगा था कि शायद आतंक की वह फैक्ट्री भी नष्ट हो जाएगी जिसके बल पर तालिबान, अल कायदा, लश्करे तैयबा जैसे संगठन फलते फूलते हैं, परंतु ऐसा हो ना सका. 

यह अबूझ पहेली है कि वह क्या कारण थे जिसकी वजह से आतंक की फैक्ट्री यानी पाकिस्तान को दंड नहीं दिया गया. कुछ प्रतिबंध जरूर लगाए गए, अमेरिका समेत तमाम देशों ने पाकिस्तान से रणनीतिक दूरियां बनानी शुरू कर दीं. किंतु पाकिस्तान की गलतियां माफ़ करने योग्य नहीं थीं. आर्थिक रूप से कंगाल हो चुके इस देश ने अमेरिका को छोड़ चीन का दामन थाम लिया और वह फैक्ट्री जो बंद होने ही वाली थी, फिर धड़ल्ले से चल पड़ी. इस बार स्पॉन्सर चीन था. कच्चा माल़ अब भी पाकिस्तान ही दे रहा था.

क्या बातचीत से निकलेगा हल?

और शायद यही वजह है कि तालिबान खत्म नहीं हुआ और मौका मिलते ही फिर उसी तेजी से उठ खड़ा हुआ जिससे सिर्फ अफगानी ही नही पूरी दुनिया भयभीत है. आज अगर काबुल भी ढह जाता है तो पश्चिमी देशों के मुंह पर यह तमाचा होगा कि जिस जिन्न को उन्होंने जन्म दिया, वह घायल होने के बाद एक बार फिर विकराल रूप में सामने आया है. दुनिया को डरने की जरूरत है. इनका खात्मा नही कर सकते तो अन्य उपायों पर विचार करना होगा. युद्ध से हल नहीं निकला तो अब बातचीत ही एक विकल्प बचा रहता है. किंतु सावधानी और सतर्कता बेहद जरूरी है.

(लेखक पूर्व वायुसेना अधिकारी हैं, रक्षा मामलों पर मीडिया स्वराज सहित तमाम चैनलों पर अपनी बेबाक राय रखते हैं)

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