एन॰ई॰ई॰टी (NEET) और जे॰ई॰ई॰ (JEE) की परीक्षाएं स्थगित किये जाने चौतरफा मांग 

अम्बरीष राय, राष्ट्रीय संयोजक, राइट टू एजुकेशन फोरम, नई दिल्ली

नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (NTA) द्वारा सितम्बर महीने में NEET और JEE की परीक्षाओं के आयोजन को लेकर देश भर में पक्ष और विपक्ष में बहस छिड़ी हुई है। लगभग 28 लाख छात्रों को इन परीक्षाओं में शामिल होना है मगर वे और उनके माता-पिता देश में करोना मरीजों की बढ़ती संख्या से डरे हुए हैं और परीक्षाओं को स्थगित किये जाने की मांग कर रहे हैं। उन्हें अपने बच्चों के कैरियर से पहले उनके जीवन की सुरक्षा की चिंता है।

परीक्षाएं स्थगित किये जाने को लेकर देश भर में सोशल मीडिया पर भी बहसें चल रही हैं और लोग मौजूदा हालात को देखते हुए ऐसे किसी फैसले को लेकर “प्रोटेस्ट” दर्ज करा रहे हैं।  Chang.Org पर अब तक 1 लाख से ज्यादा लोगों ने हस्ताक्षर कर परीक्षाएं स्थगित करने की मांग की है।

कल कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गाँधी द्वारा बुलाई गयी बैठक में ७ प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों ने भी सरकार से इन परीक्षाओं को तत्काल स्थगित किये जाने की गुहार लगाई है। इन मुख्यमंत्रियों ने पूछा है कि जब सितम्बर महीने में करोना महामारी के उच्च स्तर पर पहुंचने की आशंका जताई जा रही हो तो हम लाखों बच्चों की परीक्षाएं आवश्यक सावधानी रखते हुए कैसे करा सकते हैं?”

मुख्यमंत्रियों ने सरकार के अड़ियल रुख होने पर सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटीशन दाखिल करने पर जोर दिया है। इन राज्यों में पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान और पांडुचेरी शामिल है। ओडिशा और दिल्ली पहले ही परीक्षाओं को स्थगित किये जाने की मांग कर चुके हैं। इसके अलावा सांसद डॉ॰ सुब्रह्मण्यम् स्वामी और तमिलनाडु के विपक्ष के नेता स्टालिन ने भी महामारी के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए इसे स्थगित किये जाने की मांग की है, मगर सरकार अपने फैसले पर दृढ़ता से कायम है। आज ही केंद्रीय शिक्षा सचिव ने कहा कि वे परीक्षा स्थगित कर छात्रों के एक शैक्षणिक सत्र को बेकार नहीं करना चाहते हैं इसलिए परीक्षाएं समय से होंगी।  भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और समर्थक परीक्षा कराये जाने का समर्थन कर रहे हैं।  यह मामला भी पार्टीलाइन पर बँटता नजर आ रहा है। 

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इस सारे विवाद ने तब तूल पकड़ा जब सुप्रीम कोर्ट ने परीक्षाओं को रद्द करने की मांग करने वाली याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि “छात्रों के शैक्षणिक भविष्य को लम्बे समय तक खतरे में नहीं डाला जा सकता है” और सरकार को हरी झंडी दे दी।

यह हैरान कर देने वाली बात है कि इतने विरोधों के बावजूद भी सरकार अपने फैसले से टस-से-मस होने का नाम नहीं ले रही है जबकि कोरोना महामारी के विस्तार के साथ ही देश के कई हिस्से बाढ़ में डूबे हुए हैं। असम, बिहार और गुजरात में बाढ़ के कारण कई इलाकों में स्थिति काफी नाजुक बनी हुई है। अभी तक ट्रेनों, बसों और हवाई यात्राओं का आवागमन सामान्य नहीं हो सका है। होटल, गेस्ट हाउस वगैरह बंद पड़े हैं। ऐसे में दूर-दराज के इलाकों से परीक्षा केंद्र पर आकर परीक्षा में शामिल होने को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है। छात्र ठहरने में होने वाली असुविधाओं और सावधानियों को लेकर भी वाजिब सवाल उठा रहे हैं।

वैसे भी पिछले पांच महीने से स्कूल-कॉलेज बंद हैं और लाखों छात्र-छात्राएं इस मुश्किल घड़ी में मानसिक अवसाद से गुजर रहे हैं। ऐसे हालात में परीक्षाओं के लिए दबाव बनाना एकदम न्यायोचित नहीं है। मगर सरकार ने इन सारे तर्कों को अनसुना करने का मन बना लिया है।

  दरअसल, शिक्षा मंत्रालय जमीनी हकीकत को नजरंदाज कर इन दिनों कॉरपोरेट फाउंडेशन और प्राइवेट सेक्टर की सलाह पर शिक्षा क्षेत्र के लिए नीतियां बनाने में जुटा हुआ है। यह जानते हुए भी कि देश में 45 फीसदी से ज्यादा लोगों के पास इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध नहीं और न ही उनके पास उसके लिए आवश्यक एंड्रोएड फोन, कम्प्यूटर आदि की सुविधा है,  सरकार ऑनलाइन एजुकेशन पर जोर बनाये हुए है।

जाहिर है कि यह टेक्नोलॉजी कम्पनियों को अपने लैपटाप, कम्प्यूटर और स्मार्टफोन बेचने और मुनाफा कमाने के लिए अवसर प्रदान करने के लिए किया जा रहा है। जमीनी हालात तो ये है कि तकरीबन 73 फीसदी अभावग्रस्त परिवारों के बच्चे शिक्षा के अपने मूलभूत अधिकार से भी वंचित किये जा रहे हैं। इस तरह के कई और वाकये हैं जो इस बात को साबित करते हैं। 

कोरोना महामारी के कारण उपजे गंभीर संकट और वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए सरकार को संवेदनशीलता दिखानी चाहिए और इन परीक्षाओं को दिसंबर महीने तक स्थगित कर देना चाहिए और छात्रों को जोखिम के मुंह में झोंकने से बचना चाहिए। 

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