भारत का नैतिक नेतृत्व और गांधी की प्रासंगिकता

वी के पंत, अल्मोड़ा

भारत का नैतिक नेतृत्व और गांधी की प्रासंगिकता: इतिहास से आज तक की एक चेतावनी. आज  जब विश्व युद्ध के कगार पर खड़ा है, जब कूटनीति का स्थान रणनीतिक गठबंधनों ने ले लिया है, और जब हथियारों की दौड़ शिक्षा, स्वास्थ्य और मानवता पर भारी पड़ रही है, तब यह प्रश्न और अधिक प्रासंगिक हो गया है: क्या गांधी अब भी हमारे मार्गदर्शक हो सकते हैं? और क्या भारत, जो कभी नैतिक नेतृत्व का प्रतीक था, अब स्वयं अपने मूल्यों से भटक गया है?

1. स्वतंत्र भारत की नैतिक विदेश नीति: स्वर्ण अध्याय आज के युवाओं को यह जानना आवश्यक है कि भारत जब आर्थिक रूप से कमज़ोर, तकनीकी रूप से पिछड़ा और सैनिक रूप से अल्पशक्ति वाला देश था — तब भी वह दुनिया में नैतिकता और विवेक की आवाज़ बनकर उभरा था।

• दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का विरोध (1946): भारत पहला देश था जिसने संयुक्त राष्ट्र में रंगभेद के विरुद्ध औपचारिक शिकायत की। यह गांधी की विचारधारा का सीधा प्रभाव था। भारत ने वर्षों तक दक्षिण अफ्रीका से कूटनीतिक संबंध भी समाप्त किए और नस्लीय न्याय के पक्ष में स्पष्ट रुख बनाए रखा। 

• भारत ने फिलिस्तीन के प्रश्न पर एक स्पष्ट और नैतिक रुख अपनाया। भारत ने 1947 में संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीन के विभाजन प्रस्ताव (जिससे इज़राइल की स्थापना संभव हुई) के विरुद्ध मतदान किया था, क्योंकि वह इसे औपनिवेशिक ताकतों द्वारा थोपे गए अन्यायपूर्ण समाधान के रूप में देखता था। भारत  का मानना था कि यहूदियों के दुःख की भरपाई फिलिस्तीनियों के अधिकारों को कुचलकर नहीं की जानी चाहिए।

भारत ने लंबे समय तक इज़राइल को कूटनीतिक मान्यता नहीं दी और फिलिस्तीन की स्वतंत्रता, आत्मनिर्णय और न्यायपूर्ण समाधान का समर्थन करता रहा। यह नीति गांधीवादी दृष्टिकोण से प्रेरित थी, जिसमें हर पक्ष की गरिमा और न्याय को प्राथमिकता दी गई थी।

• स्वेज संकट (1956): जब ब्रिटेन, फ्रांस और इज़राइल ने मिस्र पर स्वेज नहर के लिए हमला किया, तो भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इन औपनिवेशिक शक्तियों की निंदा की और मिस्र के साथ खड़े होने की घोषणा की। भारत ने यह स्टैंड बिना किसी रणनीतिक लाभ की अपेक्षा के लिया — यह विशुद्ध रूप से एक नैतिक और उपनिवेशवाद विरोधी दृष्टिकोण था।  स्वेज संकट ने यह सिद्ध किया कि भारत को प्रभावशाली बनने के लिए महाशक्ति नहीं बनना पड़ता — बल्कि विवेक, नैतिकता और न्याय की आवाज़ बनना होता है।

• इंडोनेशिया की स्वतंत्रता का समर्थन: डच उपनिवेशवाद के खिलाफ भारत ने न केवल इंडोनेशिया के पक्ष में कूटनीतिक दबाव बनाया, बल्कि सैन्य और तकनीकी सहयोग देने से भी इंकार कर दिया जिससे डच सेनाएं एशिया में प्रवेश न कर सकें। यह समर्थन पूरी तरह से स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय के सिद्धांत पर आधारित था।

• हंगरी संकट (1956): जब सोवियत संघ ने हंगरी में सैनिक हस्तक्षेप कर वहां के स्वतंत्र आंदोलन को कुचलने की कोशिश की, तब भारत ने  सोवियत कार्रवाई की आलोचना की। यह एक कठिन निर्णय था क्योंकि भारत सोवियत संघ से मित्रता बनाए रखना चाहता था, लेकिन फिर भी उसने स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय की सार्वभौमिकता को महत्व दिया।

• गुटनिरपेक्ष आंदोलन की स्थापना (1961): भारत ने यूगोस्लाविया, मिस्र, इंडोनेशिया और घाना जैसे देशों के साथ मिलकर ऐसा मंच खड़ा किया जो अमेरिका या सोवियत संघ के प्रभाव में न आकर स्वतंत्र नीति और नैतिक दृष्टिकोण की बात करता था। यह गांधी की सोच से उपजा हुआ एक वैश्विक नैतिक आंदोलन था।

• दलाई लामा को शरण (1959): तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद जब दलाई लामा भारत आए, तो भारत ने राजनीतिक दबाव की परवाह किए बिना उन्हें शरण दी। यह निर्णय केवल मानवीय करुणा नहीं, बल्कि धर्मनिरपेक्ष नैतिक नेतृत्व का प्रमाण था।

यह सब एक ऐसे भारत का परिचय देते हैं जिसकी अर्थव्यवस्था, सैन्य ताकत कमजोर  थी  पर नैतिकता अडिग। यह गांधी के विचारों का मूर्त रूप था — सत्य, न्याय, और विवेक से युक्त वैश्विक उपस्थिति।  गांधी के इन सिद्धान्तों को उनके उत्तराधिकारी पंडित जवाहर लाल नेहरू ने बखूबी विश्व पटल पर क्रियान्वित किया।

भारत ने न केवल बयानबाजी की बल्कि वैश्विक समस्याओ पर सकारात्मक हस्तक्षेप किया। विश्व  ने भारत के नैतिकबल  को सराहा और एक नेता ने तो  भारत को “दुनिया की  अंतरात्मा” कहा। 

अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा का भाषण जो उन्होंने 2010 मे भारत की संसद के संयुक्त सत्र मे दिया था उसमे  उन्होंने कहा अगर गांधी और उनका संदेश अमेरिका तथा विश्व तक नहीं पहुँच होता तो मैं आपके सामने अमेरिका के प्रेसीडेंट के रूप मे नहीं खड़ा होता।  

आज का भारत: रणनीति का प्रभुत्व, नैतिकता का ह्रास वर्तमान भारत अपनी विदेश नीति को रणनीतिक साझेदारियों, सैन्य सहयोगों और व्यापारिक लाभों के आधार पर तय करता है।

• फिलीस्तीन जैसे मानवीय संकटों पर अस्पष्ट रुख,

• रूस-यूक्रेन युद्ध पर विवेकशील मध्यस्थ बनने के बजाय चुप्पी,

• गुटनिरपेक्षता की ऐतिहासिक पहचान से दूरी,

• सैन्य खर्चों और हथियारों की खरीद पर गर्व,

यह दिखाता है कि भारत का नैतिक नेतृत्व अब केवल स्मृति शेष है। परिणामस्वरूप:

• भारत वैश्विक मुद्दों पर न तो नेतृत्व कर पा रहा है,

• न ही उसे नैतिक दिशा-निर्देशक के रूप में देखा जा रहा है,

• बल्कि वह अलग-थलग पड़ता दिख रहा है।

• अगर यही रहा तो विश्व मे भारत की विश्व  मे विश्वशनीयता खोने का खतरा भी हो सकता है  

3. गांधी की प्रासंगिकता: युद्ध नहीं, विवेक की पुकार गांधी का विचार केवल उपदेश नहीं था। वह एक व्यावहारिक राजनीतिक और नैतिक दर्शन  था:

• सत्य, जिससे संवाद की भूमि बनती है,

• अहिंसा, जिससे दीर्घकालीन शांति संभव होती है,

• ट्रस्टीशिप, जिससे संसाधनों का न्यायपूर्ण बंटवारा होता है,

• और स्वदेशी सोच, जिससे आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान पनपते हैं।

आज जब हथियारों की गूंज में नैतिकता की आवाज़ दबती जा रही है, गांधी की विचारधारा वैकल्पिक नहीं — आवश्यक हो गई है। वह विश्व युद्ध, औपनिवेशिक शासन, और नस्लीय अन्याय के दौर में एक नैतिक लौ की तरह खड़े रहे — और आज भी उनकी आवश्यकता पहले से अधिक है।

4. युवाओं के लिए संदेश: भारत की आत्मा को पुनः खोजो युवा यदि चाहें तो भारत की नीति को फिर नैतिक दिशा दे सकते हैं:

• शांति, संवाद और न्याय के लिए आवाज़ उठाकर,

• सोशल मीडिया, लेखन और जन संवाद के ज़रिए गांधी के विचारों को पुनर्जीवित कर,

• शिक्षा, राजनीति और कूटनीति में विवेक को प्रमुख बना कर,

• और यह याद रख कर कि भारत का असली गौरव उसकी परमाणु शक्ति में नहीं, बल्कि उसकी अंतरात्मा की शक्ति में था।

भारत को यदि फिर से वैश्विक मंच पर नेतृत्व करना है, तो उसे हथियारों से नहीं, विवेक और नैतिकता से करना होगा। गांधी को स्मारक नहीं, दिशा-निर्देशक बनाना होगा। तभी भारत न केवल शक्तिशाली, बल्कि प्रेरणादायक राष्ट्र बन पाएगा — वैसा भारत, जैसा विश्व को एक बार पहले दिखाया गया था।

 

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