सीमांत गांधी को भुलाने का नतीजा
काश पाकिस्तान ने अपने गांधी को सता सता कर मारने के बदले उनको सुना होता तो वहां लंबा सैनिक शासन नहीं चलता
राम शरण
अहिंसा की प्रतिमूर्ति खान अब्दुल गफ्फार खां को हमने भुला दिया। हम लोगों ने उन्हें भले ही ‘भारत रत्न‘ दिया हो पर उन्हें अपना नहीं माना। यह सही है कि उनकी पहली जिम्मेदारी पख्तूनों अफगानों के प्रति थी। इसलिए वे पाकिस्तान चले गए और आजीवन संघर्ष करते रहे। और हम उनके तकलीफों के प्रति दया दिखाते रहे। दया तो पाकिस्तान पर आनी चाहिए थी। काश पाकिस्तान ने अपने गांधी को सता सता कर मारने के बदले उनको सुना होता तो वहां लंबा सैनिक शासन नहीं चलता। पाकिस्तान और अफगानिस्तान को दुनिया में आतंकवाद की जड़ नहीं माना जाता।
लेकिन बिनोवा जी, नेहरू जी जैसी विभूतियों के समकक्ष सीमांत गांधी को पराया मान लिया गया। भारत सरकार ने जबसे गांधी विरोधी नीतियों को अपनाया तो उन्हें टोकने का अधिकार था। आज इस देश में गरीबी, बेरोजगारी, दमन और अन्याय मौजूद है तो उन नीतियों के ही कारण है। समाज में विभाजन है तो उन नीतियों के ही कारण है। यदि जयप्रकाश बंगलादेश मे अनाचार के खिलाफ आवाज उठा सकते थे तो सीमांत गांधी को भी यह हक मिलना चाहिए था।
उनके चले जाने का सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों को उठाना पड़़ा। जो मुसलमान भारत में गांधी पर भरोसा करके रह गये थे, उनकी आवाज चली गयी। देश के करोडों बुनकरों कारीगरों की तबाही की आवाज उठाने वाला नहीं बचा। उनका नेतृत्व उन लोगों के हाथ मे चला गया जिनके लिए समप्रदाय ही सब कुछ था। इस धारा ने ध्रवीकरण को मजबूत करके आर एस एस को मदद ही पहुंचायी। इनमें से अधिकांश लोग सत्ता से जुडकर या मोलभाव करके लाभ उठाते रहे। यदि सीमांत गांधी को उचित दर्जा मिला होता तो देश के हिंदू मुसलमानों के बीच इतना अपरिचय नहीं होता। उन्हें मुख्य धारा में शामिल होने मे इतना समय नहीं लगता।
आज भी राजनीति हो या सामाजिक कार्य, उनमें मुसलमानों की भागीदारी बहुत कम है। इसलिए यह जरूरी है कि हम सीमांत गांधी और उन जैसे उदार मुस्लिम नेताओं को याद करें।
इसे भी पढ़ें: