किसान आंदोलन की अगली मंज़िल क्या हो!
राम दत्त त्रिपाठी
विवादास्पद कृषि क़ानून तो वापस हो गए , लेकिन अब किसान आंदोलन की अगली मंज़िल क्या हो? आशंका है कि मौक़ा पाकर प्रधानमंत्री मोदी ये क़ानून फिर किसी न किसी रूप में वापस ला सकते हैं। इसके अलावा ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को पुनर्जीवित करने का काम अभी बाक़ी ही है। अंग्रेज़ी हुकूमत ने ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को बर्बाद करने की जो मुहिम शुरू की थी उसे ग्लोबलाइज़ेशन की मुहिम आगे बढ़ा रही है।दुर्भाग्य से भारत के सारे राजनीतिक दल राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ा रहे हैं।
ऐतिहासिक कारणों से कांग्रेस पार्टी ग्लोबलाइज़ेशन का काम थोड़ा हिचक कर और मनरेगा, शिक्षा की गारंटी जैसे कुछ सुरक्षात्मक उपायों के साथ लागू कर रही थी। कांग्रेस के पास एक ऐसा थिंक टैंक था, जिसकी मदद से वह एहतियात के साथ आगे बढ़ रही थी और मनमोहन सिंह को एक सीमा नहीं लांघने दे रही थी। लेकिन नरेंद्र मोदी के लिए पार्टी संगठन, मंत्रिमंडल, संसद और राष्ट्रपति का उपयोग रबर स्टाम्प जैसा ही है।
इसके बाद ही इस लाबी ने उदारीकरण यानी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए कांग्रेस या मनमोहन सिंह को एक किनारे ढकेल नरेंद्र मोदी का अपना नायक चुना। अन्ना हज़ारे आंदोलन इसी की उपज था, जिसे इस लाबी ने अपने अर्थ पोषित स्वयं सेवी संगठनों के ज़रिए आगे बढ़ाया।
पिछले सात सालों में तीनों विवादास्पद क़ानूनों, डिमोनिटाइजेशन , पब्लिक सेक्टर को बेंचने, श्रम क़ानूनों में बदलाव आदि निर्णय हमें इस पृष्ठभूमि में देखना चाहिए। क़रीब साठ फ़ीसदी आबादी अस्सी करोड़ लोगों को फ़्री राशन, ग़रीबों को फ़्री आवास या चिकित्सा के लिए आरोग्य कार्ड आदि सिर्फ़ इसलिए दिए जा रहे हैं ताकि लोग चुप रहें, आंदोलन न करें।
लेकिन समय बड़ा बलवान होता है। वह ज़रूरत के हिसाब से नेतृत्व भी पैदा कर लेता है। जब सारे राजनीतिक दल पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का काम कर रहे थे, किसानों ने आगे बढ़कर मोर्चा लिया। लाठी, गोली, पानी की बौछार और यहाँ तक कि कार से कुचलने पर भी उनके हौसले पस्त नहीं हुए।राकेश टिकैत के आंसुओं ने तो ऐसे मौक़े पर किसान आंदोलन को फिर से टेक कर दिया जब कि वह निस्तेज हो चुका था।
लखीमपुर खीरी में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री के समर्थकों द्वारा किसानों को कर से कुचल कर मार डालने के बाद भी राकेश टिकैत एवं अन्य किसान नेताओं ने बड़ी सूझ-बूझ से काम लिए और आंदोलन को भटकने नहीं दिया।
माना जा सकता चंपारन, खेड़ा, बारदोली और मुंशीगंज रायबरेली के किसान आंदोलन वर्तमान में प्रेरणा के स्रोत बने।
शांतिपूर्ण सत्याग्रह के अमोघ अस्त्र की जीत
राजनीतिक समीक्षक अक्सर कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार जो ठान लेते हैं, उससे पीछे नहीं जाते। लेकिन शुक्रवार को गुरु पर्व पर राष्ट्र के सम्बोधन में उन्होंने तीनों कृषि क़ानूनों को जिस तरह बिना शर्त वापस लेने का फ़ैसला लिया वह क्या दर्शाता है।
मेरी राय में यह अंततः लोकतंत्र और शांतिपूर्ण सत्याग्रह के अमोघ अस्त्र की जीत है जो महात्मा गांधी और स्वतंत्रता आंदोलन की देन है।
संयुक्त किसान मोर्चा ने जिस तरह एक साल में देश भर के तमाम किसान संगठनों को एक मंच पर लाकर बिना झुके, बिना रुके आंदोलन चलाया, सरकार की तमाम उत्तेजनात्मक कार्यवाहियों के बावजूद आंदोलन को शांतिपूर्ण रखा उसके लिए वह बधाई के पात्र हैं।
लेकिन अगर प्रधानमंत्री मोदी शुरू में ही किसानों की बात मान लेते तो इस दौरान सात सौ से अधिक किसानों ने अपने जीवन का बलिदान नहीं देना पड़ता।किसानों ने यह बलिदान इसलिए दिया क्योंकि इन क़ानूनों के चलते यह आशंका हो गयी थी कि देश में कृषि उपज का बिज़नेस कुछ बड़े व्यापारियों के हाथ में चला जाएगा और कांट्रैक्ट खेती के एक तरफ़ा क़ानून से उनकी ज़मीन भी हाथ से निकल जाएगी।
विशेषकर जब सुप्रीम कोर्ट में तीनों कृषि क़ानूनों का क्रियान्वयन स्थगित कर दिया था, उसके बाद भी सरकार का तीनों विवादास्पद क़ानून वापस लेने में हीलाहवाली करने का कोई औचित्य नहीं था।
प्रधानमंत्री ने अपने सम्बोधन में कहा कि तीनों कृषि क़ानूनों को वापस करने की औपचारिक प्रक्रिया सांसद के अगले सत्र में पूरी की जाएगी। लेकिन हम याद दिलाना चाहते हैं कि मोदी सरकार ने ये विवादास्पद क़ानून बनाते समय इस संसदीय प्रक्रिया का पालन नहीं किया था, बल्कि अध्यादेश के ज़रिए ये क़ानून बनाए गाय थे। तो फिर आज भी अध्यादेश के ज़रिए ये क़ानून रद्द क्यों नहीं किए गए।
यह सही है कि आज किसानों को उनकी उपज का उचित दाम नहीं मिलता। उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में मंडी व्यवस्था ठीक से नहीं चल रही और उसमें तत्काल सुधार की ज़रूरत है। सरकार जो न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है वह भी सबको नहीं मिलता।
प्रेक्षकों की राय थी कि ये क़ानून एक बिज़नेस लाबी के दबाव में लाए गए थे जो सत्तारूढ़ दल के चुनाव खर्च में योगदान करते हैं। इसी लाबी के दबाव की वजह से क़ानून वापसी में देर हुई।
लेकिन क़ानून वापस लेते हुए भी उन्होंने अपने सम्बोधन में लगातार तीनों विवादास्पद क़ानूनों को उचित ठहराया और किसानों को छोटे और बड़े किसानों में विभाजित करने का प्रयास किया।
राजनीतिक अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह
तो फिर उचित होते हुए भी क़ानून वापस क्यों लिए जा रहे हैं। कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि किसानों ने देश भर में गाँव – गाँव तक आंदोलन की अलख जगाकर यह राजनीतिक संदेश दे दिया था कि इन क़ानूनों पर सरकार की ज़िद के चलते स्वयं प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। वैसे कहने को तो उन्होंने प्रकाश पर्व पर यह घोषणा करके यह जताने की कोशिश की है कि वह पंजाब के किसानों को खुश करने के लिए यह निर्णय ले रहे हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि भारतीय जनता पार्टी को किसान आंदोलन के चलते उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में अपनी नाव पार लगाना मुश्किल लग रहा है। एक बार उत्तर प्रदेश हाथ से निकला तो दिल्ली की गद्दी सलामत नहीं रहेगी। इसीलिए आज उत्तर प्रदेश में अपने चुनाव दौरे पर आने से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने यह विवादास्पद क़ानून वापस लेने में । अपनी भलाई समझी।
राजस्थान के गवर्नर कलराज मिश्र एवं कई अन्य नेताओं ने खुलकर कह दिया है कि चुनाव बाद ये क़ानून फिर वापस आ सकते हैं।
अब आगे क्या !
राकेश टिकैत और संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने निश्चय ही बड़ी समझदारी दिखायी जो उन्होंने तत्काल आंदोलन समाप्त नहीं किया। लेकिन क्या संसद से इन क़ानूनों को रद्द करने के बाद भी आंदोलन समाप्त हो जाना चाहिए। मेरी राय में नहीं।
आंदोलन के नेताओं को बीच के समय का उपयोग अपना नया एजेंडा बनाने के काम में करना चाहिए। वह एजेंडा इसके सिवा क्या हो सकता है कि देश के विकास की नयी दिशा तय की जाए। शहरों में बड़े माल्स और इंटरनेट ब्राडबैण्ड नेटवर्क एक्सप्रेस वे हमारे विकास के मानक नहीं हो सकते। ये शोषण पर आधारित पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के वाहक हैं।गूगल , फ़ेस बुक और अमेजान आज गाँव – गाँव पहुँच रहे हैं। इसी तरह विदेशी कारों, बसों और ट्रकों को हम एक्सप्रेसवे के ज़रिए सहूलियत दे रहे हैं। इनमें बहुत सीमित लोगों को रोज़गार मिलता है।
आगे जब चौथी औद्योगिक क्रांति के लिए आरटीफ़िशियल इंटेलिजेंस की मशीनें आएँगी तब बेरोज़गारी और भुखमरी जिस कदर बढ़ेगी उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
देश और विशेषकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था की पुनर्रचना के नये एजेंडा के केंद्रीय बिंदु मेरी राय में ये हो सकते हैं।
श्रम की प्रतिष्ठा – शिक्षा , रोज़गार , कृषि, व्यापार और दैनिक जीवन में।
शिक्षा : शिक्षा को श्रम, रोज़गार और आध्यात्मिक विकास से जोड़ना
समुचित तकनीक : देश में ऐसी नयी तकनीक का विकास हो जो बेरोज़गारी बढ़ाने के बजाय मनुष्य की कार्य क्षमता और सहूलियत बढ़ाए।
कृषि – बाग़वानी पशुपालन और डेयरी : कृषि से जहां तक सम्भव हो ट्रैक्टर और हार्वेस्टर को हतोत्साहित करते हुए परम्परागत जैविक खेती को बढ़ावा।
बाज़ार को इस तरह संचालित किया जाए ताकि किसान को उसकी पूँजी और श्रम के बदले पर्याप्त दाम मिले ताकि वह रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करने के साथ अपनी पूँजी का भी निर्माण कर सके और क़र्ज़दार न हो।
भवन निर्माण : सीमेंट, लोहा और शीशे का इस्तेमाल काम करके स्थानीय सामग्री का इस्तेमाल।
दस्तकारी और शिल्पकारी को बढ़ावा – इनके लिए उचित तकनीक, पूँजी और बाज़ार की व्यवस्था करना।
स्व – रोज़गार को बढ़ावा।
प्राकृतिक चिकित्सा और आयुर्वेद को बढ़ावा ।
पर्यावरण : प्रदूषण फैलाने वाले सभी कारकों शहरी मल – जल, उद्योग कारख़ाने बंद करना।
ये सिर्फ़ कुछ संकेतक मात्र हैं , विस्तृत एजेंडा तो आंदोलन का नेतृत्व ही बना सकता है।