कोरोना जैसी महामारियों का मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव
मानव सभ्यता को महामारियाँ 2
कोरोना जैसी महामारियाँ मानव सभ्यता को मनोवैज्ञानिक रूप से भी दुष्प्रभाव डालती है।इस दौरान अफवाहों का बाजार भी गरम होता है। महामारियों के संक्रमण की भयावह सूचनायें समाज में आतंक फैला देती है इसलिए महामारियों से अधिक लोग भय से मारे जाते हैं।लगातार महामारी और मृत्यु की सूचनायें मानसिक से कमजोर कर देती है,जिसे महामारी के अलावा अन्य रोग भी मारक हो जाते है।देवरिया से वैद्य डा आर अचल का लेख:
मानव सभ्यता को महामारियाँ मनोवैज्ञानिक रूप से भी प्रभावित करती है।इस दौरान अफवाहों का बाजार भी गरम होता है। महामारियों के संक्रमण की भयावह सूचनायें समाज में आतंक फैला देती है इसलिए महामारियों से अधिक लोग भय से मारे जाते हैं।
लगातार महामारी और मृत्यु की सूचनायें मानसिक से कमजोर कर देती है,जिसे महामरी के अलावा अन्य रोग भी मारक हो जाते है। कोरोना कोविड काल में टीवी,अखबार,सोसल मीडिया एवं आपसी बात-चीत में महामारी, कोरोना, कोविड,संक्रमण,मृत्यु आदि भयावह शब्दों का बार-बार प्रयोग भय का माहौल पैदा कर दिया ।जिससे लोग मानसिक रूप से कमजोर हो जाते है।परिजनों या आस-पास के लोगो को मरते हुए देख-सुनकर लोग सदमें में आ जाते है,जिससे इम्यून सिस्टम कमजोर हो जाता है, संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है।ऐसी सूचनाओं सें महामारी के अतिरिक्त हर्ट अटैक से भी लोग मरने लगते है।
1898 में प्लेग महामारी के भयावह विनाश के बाद फ्रेंच वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में पाया कि प्लेग महामारी से भयानक विनाश का कारण उसकी प्रचारित मारकता थी।उसके लक्षणों और मृत्यु की अधिकाधिक सूचना के फैलाव ने भारी संख्या अति संवेदनशील लोगो में लक्षण पाये गये,जिसमें अधितर मृत्यु के मुख में समा गये।
महामारियों के मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव के संबंध में प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिंगमंड फ्रायड कहते है कि महामारी के विषाणुओं का शरीर में प्रवेश दो तरह से होता है।पहले प्रकार में विषाणु शरीर में प्रवेश करता है,यदि मन सबल है तो शरीर की सीमा में ही उसका अंत हो जाता है।सबल मन शरीर की सुरक्षा करने में सफल हो जाता है।परन्तु यदि मन दुर्बल हुआ तो विषाणु शरीर को पराजित कर मृत्यु प्रदान करता है।
दूसरे प्रकार में विषाणु का प्रवेश मन में होता है।इस स्थिति में मन शरीर से पहले ही बीमार हो जाता है।मन पहले ही पराजित हो जाता है।ऐसी स्थिति में रोग अधिक घातक बन जाता है,हाँलाकि वास्तव में रोग होता ही नहीं है।इस संक्रमण मे वास्तविक विषाणु होता ही नहीं है यह पूर्णतः आभासी होता है।यह आभासी संक्रमण सामाजिक सूचनाओं द्वारा अर्जित भ्रामक भय के कारण होता है।
जब समाज के गणमान्य व राजकीय अभिजन भ्रम-भय से प्रभावित होने लगते है तो प्रजा में संक्रामक तेज हो जाता है।असुरक्षा का भाव वातावरण में फैल जाता है।जिससे महामारी का प्रभाव वास्तविकता से कई गुना बढ़ जाता है।इस स्थिति में वास्तविक विषाणु संक्रमण से अधिक आभासी संक्रमण से लोग मरने लगते है।कमजोर अर्थात संवेदनशील मन के लोग इससे अधिक प्रभावित होते है।यही विश्वोध्वंस(Pandemic) का चरमोत्कर्ष काल होता है।
दुर्बल मन के लोगों में आभासी संक्रमण प्रभाव इतना गहरा हो जाता है कि वास्तविक विषाणु के वास्तविक लक्षण प्रत्यक्ष होने लगते है।जीवन की अतृप्त भावनायें मोह को सघन कर देती है।मोह के सघन होते ही मृत्यु भय भी सघन हो जाता है।यह भय रक्तज व सामाजिक संबंधो को भी भंग कर देता है।इस स्तर पर पहुँचा व्यक्ति अपनी आभासी सुरक्षा में अपराधिक स्तर तक पहुँच जाता है।उसे हर व्यक्ति पर संदेह होने लगता है।यहाँ तक की अपने चिकित्सक को भी शत्रु समझने लगता है।यह विकट स्थिति होती है।
फ्रायड का कथन कोरोना महामारी या कोविड-19 काल में स्पष्ट रूप सत्य सिद्ध हुआ है। कोरोना अथवा कोविड के फैलाव व मारकता में आज के अति विकसित सूचना तंत्र को जाता है।लाकडाउन ने लोगों एकांत मे जीने को मजबूर कर दिया है।इस काल में घर में घिरे लोगों ने समय बीताने के लिए टीवी,अखबार,सोसल मीडिया का सहारा लिया है,जिसमें कोरोना-कोविड,महामारी,संक्रमण,मृत्यु,दवाओं का अभाव,श्मशान, कब्रीस्तानों के भयावह दृश्य, लाईलाज होने की सूचनाओं ने लोगो के मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर कर दिया ।लोग गहरे अवसाद में जाते रहे।सुने,सुनाये लक्षणों आभास करके भी बीमार हुए।
इसलिए संभव है 2-3 प्रतिशत मारकता वाली कोरोना महामारी कोविड ने दुनिया में अफऱा-तफरी का माहौल उत्पन्न कर दिया। जिससे विकसित व विकासशील देश अधिक प्रभावित हुए।आयुर्वेद में इसके लिए मनोमहाव्यापद शब्द प्रयोग किया गया है।
रोगप्रतिरोधक क्षमता को तीन स्तरों पर देखा गया है,जिसमें पहला स्तर सत्वबल है जिसका तात्पर्य मानसिक दुर्बलता है।इस लिए रोग प्रतिरोधक शक्ति के संरक्षण के लिए मनःप्रसादक,मेधा को मजबूत करने वाली औषघियों के प्रयोग एवं ईश प्रार्थना को महत्व दिया गया।ऐसा गाँवों देखा गया है अनेक तरह से सामूहिक पूजा-पाठ का आयोजन किया गया,जिसे अंधविश्वास कह कर माखौल भी उड़ाया गया है,परन्तु इसका अध्ययन करने पर ऐसा लगता है संसाधन विहीनग्रामीणों में सत्व बल के कारण संक्रमण के व्यापकता के बावजूद मारकता कम रही है।इस पर अधिक अध्ययन की आवश्यकता है।
इसलिए कोरोना जैसी महामारी काल में बचाव के लिए मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देने की अधिक आवश्यकता होती है ।सूचना संचार के माध्यमों से रोग से अधिक औषधि बल को प्रचारित किया जाना चाहिए।ऐसी स्थिति में भी जब प्रभावी दवाओं का होना निश्चित न हो तब भी दवाओं को निश्चित किया जाना चाहिए ।यह वैसा ही प्रयोग जैसे नदी प्रवाह में डूबता व्यक्ति तिनके के सहारे नदी पार कर लेता है।इस विधा से निश्चित ही महामारियों की मारकता को नियंत्रण किया जा सकता है।
वैद्य आर अचल *संपादक-ईस्टर्न साइंटिस्ट एवं आयोजन सदस्य-वर्ल्ड आयुर्वेद कांग्रेस