प्रकृति के बिना मानव जीवन संभव नहीं ,पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली आवश्यक
संपूर्ण मानवता का अस्तित्व प्रकृति पर निर्भर है
विश्व पर्यावरण दिवस , 05 जून को हर वर्ष मनाया जाता है। इसका उद्देश्य लोगों को पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूक और सचेत करना है।इसका उद्देश्य लोगों को पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूक और सचेत करना है। प्रकृति के बिना मानव जीवन संभव नहीं है। हमारे लिए पेड़-पौधे, जंगल, नदियां, झीलें, जमीन, पहाड़ बहुत जरूरी हैं। इस दिवस को मनाने का फैसला 1972 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलन में चर्चा के बाद लिया गया। इसके बाद 5 जून 1974 को पहला विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया।इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून , 2021 की थीम “पारिस्थितिकी तंत्र बहाली” है।
दरअसल पौधे, जीव-जन्तु एवं भौतिक पर्यावरण को सामूहिक रूप से ‘पारिस्थितिक तंत्र’ कहा जाता है। विविध प्रकार के वातावरण में भिन्न-भिन्न प्रकार के जीव पाए जाते हैं। सभी जीव, अपने चारों ओर के वातावरण से प्रभावित होते हैं। सभी जीव अपने वातावरण के साथ एक विशिष्ट तंत्र का निर्माण करते हैं, जिसे पारिस्थितिकी तंत्र कहते हैं।किसी पारितंत्र में विभिन्न जीवों के समुदाय में परस्पर गतिक सभ्यता की अवस्था ही पारिस्थितिक संतुलन है, अर्थात् पर्यावरण में विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु, पौधों एवं मनुष्यों के मध्य संबंध को ही पारिस्थितिक संतुलन कहते हैं। इसे पारितंत्र में हर प्रजाति की संख्या के एक स्थायी संतुलन के रूप में वर्णित किया जा सकता है। यह संतुलन निश्चित प्रजातियों में प्रतिस्पर्द्धा व आपसी सहयोग से होता है। कुछ प्रजातिायों के जिंदा रहने के संघर्ष से भी पर्यावरण संतुलन प्राप्त किया जाता है। यह संतुलन इस बात पर भी निर्भर करता है कि कुछ प्रजातियाँ अपने भोजन व जीवित रहने के लिये दूसरी प्रजातियों पर निर्भर होती हैं जिससे विभिन्न प्रजातियों की संख्या निश्चित रहती है और संतुलन बना रहता है।
पारिस्थितिक असंतुलन का कारण मानवीय क्रियाकलाप
पारिस्थितिक असंतुलन का सबसे मुख्य कारण मानवीय क्रियाकलाप हैं जिसके कारण विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु एवं पौधे विलुप्त हो रहे हैं। मनुष्यों द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय दोहन किया जा रहा है जिससे जीव-जंतुओं एवं पौधों के आवासों का ह्रास एवं विखंडन हो रहा है। मानव द्वारा अति दोहन से पिछले 500 वर्षों में बहुत-सी जातियाँ विलुप्त हो गई हैं।जब किसी प्राकृतिक क्षेत्र में विदेशी प्रजातियों के जीव-जंतु या पौधों को लाया जाता है, तब उनमें से कुछ प्रजातियाँ आक्रामक होकर स्थानिक प्रजातियों की कमी या विलुप्ति का कारण बन जाती हैं। उदाहरण के लिये, मत्स्य पालन के उद्देश्य से अफ्रीकन कैटफिश को हमारी नदियों में लाया गया, लेकिन अब यह मछली हमारी नदियों की मूल अशल्कमीन मछलियों के लिये खतरा पैदा कर रही है।सहविलुप्तता भी पारिस्थितिक असंतुलन का प्रमुख कारण है। जब एक जाति विलुप्त होती है, तब उस पर निर्भर दूसरे जंतु व पादप भी विलुप्त होने लगते हैं।
किसी क्षेत्र में बाढ़, दावानल, चक्रवात व ज्वालामुखी जैसी प्राकृतिक आपदाएँ भी कहीं-न-कहीं पारिस्थितिक असंतुलन को बढ़ावा देती है।किसी भी पारिस्थितिक तंत्र में पौधों व प्राणी समुदायों में घनिष्ठ अंतर्संबंध पाए जाते हैं। इन कारणों का समुचित ज्ञान व समझ ही पारितंत्र के संरक्षण व बचाव के प्रमुख आधार हैं। प्राकृतिक संरक्षण के लिये सरकार के साथ-साथ सभी देशवासियों को इन्हें संरक्षित करने के लिये आगे आना होगा तभी यह जैव विविधता संरक्षित हो पाएगी, क्योंकि जनभागीदारी के बिना किसी भी बड़े कार्य को कर पाना बड़ा मुश्किल होता है।
पेरिस समझौते को अपनाए जाने के पाँच वर्ष पूरे होने के बाद इसमें शामिल हस्ताक्षरकर्त्ता देश इस वर्ष के अंत में आयोजित होने वाले काॅप -26 की पृष्ठभूमि में एक बार पुन अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान का पुनरीक्षण कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त वर्ष 2021 में ‘पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्बहाली पर संयुक्त राष्ट्र दशक’ (The United Nations Decade on Ecosystem Restoration) की शुरुआत के साथ काॅप 26 में जलवायु परिवर्तन अनुकूलन रणनीति के लिये प्रकृति-आधारित समाधानों (Nature-Based Solutions or NbS) पर अधिक व्यापक चर्चा की परिकल्पना की गई है। इस संदर्भ में प्रकृति-आधारित समाधान की अवधारणा जलवायु लचीलेपन के निर्माण और संसाधन प्रबंधन में सहायक हो सकती है।
प्रकृति आधारित समाधान से आशय सामाजिक-पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के लिये प्रकृति के स्थायी प्रबंधन और उपयोग से है।अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) द्वारा प्रकृति आधारित समाधान को प्राकृतिक और संशोधित पारिस्थितिक तंत्रों की रक्षा, स्थायी प्रबंधन और पुनर्स्थापना करने के कार्य के रूप में परिभाषित किया गया है जो सामाजिक चुनौतियों को प्रभावी और अनुकूल ढंग से संबोधित करने के साथ मानव कल्याण एवं जैव विविधता से जुड़े लाभ प्रदान करते हैं।यह अन्य क्षेत्र-विशिष्ट घटकों जैसे कि ग्रीन इन्फ्रास्ट्रक्चर, प्राकृतिक अवसंरचना, पारिस्थितिक इंजीनियरिंग, पारिस्थितिक तंत्र-आधारित शमन एवं अनुकूलन और पारिस्थितिकी-आधारित आपदा जोखिम में कमी से जुड़ा हुआ है।
प्रकृति आधारित समाधान लोगों और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित करने के साथ ही पारिस्थितिक विकास को सक्षम बनाता है तथा जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये एक समग्र मानव केंद्रित प्रतिक्रिया का प्रतिनिधित्व करता है।
साथ ही प्रकृति आधारित समाधान जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करने के समग्र वैश्विक प्रयास का एक महत्त्वपूर्ण घटक है।पेरिस समझौते का अनुच्छेद 5.2 जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन रणनीतियों में प्राकृतिक संसाधनों के महत्त्व को स्वीकार करता है।इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 7 आर्थिक विविधीकरण और प्राकृतिक संसाधनों के स्थायी प्रबंधन के माध्यम से सामाजिक आर्थिक और पारिस्थितिक प्रणालियों के लचीलेपन के निर्माण के विचार को बढ़ावा देता है।
प्रकृति-आधारित समाधान के लाभ:
1.स्थानीय लोगों की सहायता:
प्रकृति आधारित समाधान जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने, पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं में सुधार और कार्बन भंडारण में स्थानीय लोगों की सहायता करने में बड़े पैमाने पर सफल रहा है। उदाहरण के लिये ‘लेक डिस्ट्रिक्ट नेशनल पार्क’ (यूनाइटेड किंगडम) में शुरू की गई पुनर्स्थापना परियोजना से न केवल स्थानीय जैव विविधता में सुधार करने में सफलता प्राप्त हुई बल्कि इससे पर्यटन के माध्यम से राजस्व अर्जन का रास्ता भी खुला।
2.आपदा न्यूनीकरण के लिये प्रकृति आधारित समाधान:
समुद्र तटों पर मैंग्रोव की पुन:स्थापन या संरक्षण कई लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये एक प्रकृति-आधारित समाधान का उपयोग करता है।मैंग्रोव तटीय बस्तियों या शहरों पर लहरों और हवा के प्रभाव को कम करता है।वे समुद्री जीवन के लिये सुरक्षित नर्सरी भी प्रदान करते हैं जो मछली की आबादी को बनाए रखने का आधार हो सकता है और इस पर स्थानीय आबादी पर निर्भर करती है।इसके अतिरिक्त मैंग्रोव वन तटीय क्षरण को नियंत्रित करने में सहायता कर सकते हैं, गौरतलब है कि तटीय क्षरण समुद्र-स्तर की वृद्धि का एक प्रमुख कारक है।
3.शहरी मुद्दों को संबोधित करना:
पारिस्थितिक तंत्र को बहाल करने में प्रकृति आधारित समाधान के उपयोग के अतिरिक्त मानव स्वास्थ्य और शहरी जैव विविधता को लाभ पहुँचाने हेतु शहरों में मानव निर्मित बुनियादी ढाँचे के संयोजन में भी इसका उपयोग किया जा सकता है।इसी तरह शहरों में हरित छतें या दीवारें प्रकृति आधारित समाधान के रूप में कार्य कर सकती हैं जिनका उपयोग उच्च तापमान के प्रभाव को कम करने, वर्षाजल को एकत्र करने, प्रदूषण को कम करने और जैव विविधता को बढ़ाते हुए कार्बन सिंक के रूप में किया जा सकता है।पानी की कमी का सामना कर रहे क्षेत्रों में भूजल को पुनः भरने में सहायता करने के लिये पारगम्य कंक्रीट क्षेत्रों का निर्माण एक प्रभावी विकल्प होगा।बड़े होटल और रिज़ार्ट पानी के पुनर्चक्रण के लिये कृत्रिम आर्द्रभूमि जैसे समाधानों को प्रभावी ढंग से आगे बढ़ा सकते हैं, जो स्थानीय परिदृश्य के सौंदर्य में वृद्धि करेगा।जलवायु परिवर्तन आज मानव जाति के समक्ष उपस्थित सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से शहरों और प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्रों को सबसे अधिक नुकसान होगा।
4.शहरों की बढ़ती सुभेद्यता:
विशेष रूप से भूमि-उपयोग परिवर्तन की अतिरिक्त जटिलताओं, जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि, कंक्रीट क्षेत्रफल का विस्तार, सामाजिक असमानता, खराब वायु गुणवत्ता और कई अन्य संबद्ध मुद्दों के कारण शहरों की सुभेद्यता में वृद्धि हुई है। यह मानव स्वास्थ्य, सामाजिक कल्याण और जीवन की गुणवत्ता के लिये एक गंभीर चुनौती (विशेष रूप से समाज के वंचित वर्गों के लिये) प्रस्तुत करता है।प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के लिये जोखिम: जैव विविधता और जल संसाधनों में गिरावट के रूप में प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र का व्यापक क्षरण देखा जा सकता था।जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को दूर या कम करने के लिये स्थानीय नेतृत्व वाले अनुकूलन के विचार पर व्यापक रूप से चर्चा की गई है, जो हमें प्रकृति आधारित समाधान की ओर निर्देशित करता है।
5.लोकल लेड एडेप्टेशन
:स्थानीय नेतृत्व चालित अनुकूलन या लोकल लेड एडेप्टेशन से आशय स्थानीय समुदायों और स्थानीय सरकारों द्वारा जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये प्रभावी निर्णय लेने के सशक्त प्रयासों से है। लोकल लेड एडेप्टेशन को अक्सर स्वदेशी समाधानों के आधार पर परिभाषित किया जाता है, जो प्रायः प्रकृति से जुड़े होते हैं। ध्यातव्य है सबसे सुभेद्य आबादी वह होती है जो प्राकृतिक संसाधनों पर अधिक निर्भर है, ऐसे में यह अपेक्षित है कि किसी समस्या का मुकाबला करने वाले समाधान भी अक्सर उसी स्रोत (समस्या से जुड़े) से उत्पन्न होते हैं।
प्रकृति आधारित समाधान के लिये चुनौतियाँ: 1.अत्यधिक परिस्थिति-विशिष्ट: प्रकृति आधारित समाधान अत्यधिक परिस्थिति-विशिष्ट होते हैं और बदलती जलवायु परिस्थितियों में उनकी प्रभावशीलता भी अनिश्चित होती है। प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होते हैं परंतु भविष्य के जलवायु परिदृश्यों में प्रकृति आधारित समाधान की प्रभावशीलता संदिग्ध है।
2.धन की आवश्यकता:
प्रकृति आधारित समाधान से जुड़ी अनिश्चितताओं के अलावा इसके लिये निवेश के निरंतर प्रवाह को बनाए रखना एक अतिरिक्त चुनौती है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (2020) की एक रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक स्तर पर NbS को लागू करने के लिये वर्ष 2030 तक सालाना 140 बिलियन अमेरिकी डॉलर से 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक के निवेश की आवश्यकता होगी, जो वर्ष 2050 तक बढ़कर 280 बिलियन अमेरिकी डॉलर से 500 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच सकता है।
3.प्रकृति आधारित समाधान को लागू करना:
आईयूसीएन द्वारा प्रकृति आधारित समाधान को लागू करने के लिये कुछ मापदंड और संबद्ध संकेतकों के साथ एक वैश्विक मानक जारी किया गया, जिसमें सतत् विकास लक्ष्यों और लचीले परियोजना प्रबंधन को संबोधित किया गया है । कार्यान्वयन से पहले निर्णय लेने के लिये इन मानदंडों को समझने हेतु हम प्रकृति आधारित समाधान का उपयोग करते हुए एक पहाड़ी क्षेत्र के जीर्णोद्धार का उदाहरण ले सकते हैं। कोई एक पहाड़ी क्षेत्र जहाँ खनिज संसाधनों को प्राप्त करने के लिये अत्यधिक खनन किया जाता है, वह क्षेत्र खनन के परिणामस्वरुप मिट्टी के कटाव, भूस्खलन और बढ़े हुए जलवायु जोखिम के लिये अतिसंवेदनशील हो जाता है।
ऐसे क्षेत्र का जीर्णोद्धार करना एक से अधिक सामाजिक चुनौतियों को संबोधित करेगा। जीर्णोद्धार कार्यक्रम के डिज़ाइन के पैमाने का अनुमान लगाया जाना चाहिये।इसके अलावा नियोजित पुनर्स्थापना/जीर्णोद्धार क्षेत्र की जैव विविधता में सुधार करेगा या नहीं और इसके आर्थिक रूप से व्यावहारिक होने की भी समीक्षा की जानी चाहिये। समावेशी शासन के लिये पौधों की प्रजातियों का रोपण स्थानीय हितधारकों के परामर्श से किया जाना चाहिये क्योंकि अंततः वे ही पौधों की देख-रेख करेंगे। जब हम क्षेत्र की पुनर्स्थापना/जीर्णोद्धार कर रहे होते हैं, तो इससे क्षेत्र की जैव विविधता में सुधार हो सकता है, परंतु इसके परिणामस्वरूप बच्चों के खेल के मैदानों (या किसी अन्य प्रयोजन के लिये निर्धारित भूमि) का नुकसान भी हो सकता है।
हालाँकि इस तरह के लेन-देन पर पहले ही विचार किया जाना चाहिये और इस पर पारस्परिक सहमति होने के साथ इसे पूरे समय बनाए रखा जाना चाहिये। सातवें मापदंड को पूरा करने के लिये बहाल क्षेत्र को बनाए रखने के साथ इसका अध्ययन किया जाना चाहिये और भविष्य के निर्णय लेने की प्रक्रिया को समर्थन प्रदान करने हेतु इसे प्रभावी रूप से प्रलेखित किया जाना चाहिये। वैश्विक प्रकृति आधारित समाधान मानकों को समान वातावरण में व्यावहारिक समाधानों की प्रतिकृति के महत्त्व पर प्रकाश डालना चाहिये।
यदि हम स्थायी निवेश प्राप्त करने के साथ-साथ प्रकृति आधारित समाधान से जुड़ी जटिलताओं को संबोधित करने में सफल रहते हैं, तो हम अपने प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा, संरक्षण और जीर्णोद्धार सुनिश्चित करने के अलावा जलवायु-अनुकूल (क्लाइमेट रिज़िलिएंट) भविष्य का निर्माण कर सकते हैं।
संपूर्ण मानवता का अस्तित्व प्रकृति पर निर्भर है। इसलिए एक स्वस्थ एवं सुरक्षित पर्यावरण के बिना मानव समाज की कल्पना अधूरी है। प्रकृति को बचाने के लिए हमसब को मिलकर कुछ संकल्प लेना होगा। जिसमें वर्ष में कम से कम एक पौधा अवश्य लगाएं और उसे बचाएं तथा पेड़-पौधों के संरक्षण में सहयोग करें।
इसलिए पर्यावरण दिवस पर पर्यावरण की बहाली का संकल्प लेना चाहिए। तालाब, नदी, पोखर को प्रदूषित नही करें, जल का दुरुपयोग नहीं करें तथा इस्तेमाल के बाद बंद करें। बिजली का अनावश्यक उपयोग नहीं करें, इस्तेमाल के बाद बल्ब, पंखे या अन्य उपकरणों को बंद रखें। कूड़ा-कचरा को डस्टबीन में फेकें और दूसरों को इसके लिए प्रेरित करें, इससे प्रदूषण नहीं होगा। प्लास्टिक/पॉलिथिन का उपयोग बंद करें, उसके बदले कागज के बने झोले या थैले का उपयोग करें। पशु-पक्षियों के प्रति दया भाव रखें, नजदीकी कामों के लिए साइकिल का उपयोग करें।_____________________________________________________
प्रेषक: डॉ दीपक कोहली, संयुक्त सचिव ,पर्यावरण ,वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग ,उत्तर प्रदेश शासन ,5 /104, विपुल खंड, गोमती नगर, लखनऊ- 226010 ( मोबाइल- 9454410037)