हम संवादहीनता की ओर क्यों बढ़ रहे हैं?

’’शब्द, अध्ययन, संवाद, और समाज’’

समाज में संचार साधनों का अत्यंत तीव्र गति से विकास और विस्तार हुआ है, फिर भी हम संवादहीनता की ओर क्यों बढ़ रहे हैं, प्रयागराज से ओमप्रकाश मिश्र का शोधपरक लेख।

शब्द अमर है, अजर हैं, अजेय हैं। शब्द व ध्वनि, ब्रहमाण्ड व सृष्टि के प्रारम्भ से ही जीवन्त रूप में विद्यमान रहे हैं। शान्ति की खोज, शायद, शब्द व ध्वनि के बिना, जीवन के किसी भी प्रकार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मनुष्य, पशु पक्षी, वृक्ष वनस्पति, वायु, जल, नदी, समुद्र, झरना, सोता, खेत, फसलें व किसी भी परिदृश्य में शब्द तथा ध्वनि का संगम अवश्यमेव होता ही है। शब्द कभी समाप्त नहीं होते, ध्वनि, कभी धीमे, कभी तेज हो सकती हैं, परन्तु शब्दों व ध्वनियों की तरंगों की चिरस्थायी शक्ति, अपरिमित प्रभाव रखती हैं। यही शक्ति, शब्द व शब्दकार, ध्वनि, उसकी तरंगों व स्रोत की अनन्त जीविविषा को स्थायी रूप से सशक्त करती है।

पहले शब्दवेधी बाण होते थे। श्रवण कुमार को मारने शब्द वेधी बाण छोड़ा गया था, श्रवण कुमार तो नहीं रह गया, परन्तु शब्द व ध्वनि स्थायी रूप से रही, हाँ अपना रूप बदल-बदल कर। अब शब्दों व ध्वनियों का अजेय रूप सामने आता हैं, जब शब्द, बाणों पर वार करते हैं तो श्रवण कुमार ही विजयी होता है। यानी शब्द बाणवेधी होते है। ध्वनियाँ विश्व विजयी ही होती हैं। मेरी कविता ’’बाणवेधी’’ शब्द में यह चित्र उभरता हैं-

’’पहले शब्दवेधी बाण थे,

उन बाणों से शिकार पर

लक्ष्य किया जाता था

शब्द को लक्ष्य करके

वे शिकार का शिकार करते

शब्द को आहत करते

—————-

—————-

आप चाहे जितने भी शब्द वेधी बाण

अपने धनुष से

साधें व छोड़े

श्रवण कुमार ही 

विश्वविजयी बनेगा

सारे बाण तरकश में रह जायेंगें।।’’

’’चालीस साल का सफर’’ सरस्वती प्रकाशन मन्दिर, 1991 

(पृष्ठ 85 व 86)

अब शब्दों के अर्थ बदलते जा रहें हैं। परन्तु शब्द एवं अर्थ का चिरन्तन सम्बन्ध असंपृक्त है।

शब्दों व ध्वनियों का अध्ययन मानव के लिए एक चुनौती रही है। अध्ययन के लिए मानस के विकास हेतु तीन प्रमुख माध्यम है:-

(1) संस्कार

(2) अध्यापन

(3) स्वाध्याय

मनुष्य अपने चारों तरफ के समाज व वातावरण से संस्कार, निरन्तर ग्रहण करता ही रहता है। उसमें समाज के प्रत्येक व्यक्ति का योगदान होता है। यद्यपि संस्कार एक बहुआयामी प्रक्रिया से उत्पन्न होते हैं, पल्लवित/पुष्पित होते हैं फिर भी मानस की अनुसरण, संवेदना और सूचनात्मक प्रवृत्तियों के नियम के अनुसार समर्थ कर्ता की क्रियायें भी प्रभावकारी होती है। निश्चित तौर पर, नई पीढ़ी के ऊपर, पुरानी पीढ़ी के आचार-विचार का संस्कार महत्वपूर्ण होता है।

माता-पिता, गुरूजन, परिवारजन, सहपाठी, विद्यालय के वरिष्ठ व कनिष्ठ छात्र, समाज के विभिन्न क्षेत्रों के अग्रणी-डॉक्टर, राजनेता, क्रान्तिकारी, सामान्य जन, समाज के अधिष्ठाता वर्ग के सम्मानित जन सभी, युवापीढ़ी के संस्कारों का निर्माण करते हैं। अब ’’ग्लोबल-विलेज’’ की संकल्पना साकार होने के कारण, समस्त विश्व के किसी भी क्षेत्र की घटनाओं का प्रभाव, पीढ़ियों के संस्कार पर पड़ता है। हम यह कह सकते है कि सभी क्रियाओं का प्रभाव, सभी पर पड़ता है यानी, अपने वर्ग द्वारा की गयी क्रियाओं का प्रभाव,  दूसरे वर्ग पर पड़ता है तथा दूसरे वर्ग की क्रियाओं का प्रभाव अपने वर्ग पर भी पड़ता है। यह अन्यान्योश्रित सम्बन्ध होता है। हम अपने कर्म बन्धन से, अन्यों को भी बाँधते है। हमारी विचार सम्पदा व संस्कारों को उपभोक्तावादी संस्कृति के मकड़जाल में समकालीन पीढ़ी पर अपना प्रभाव डाल रही है। आज पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति और प्रदर्शन प्रभाव का असर नई पीढ़ी पर दिखायी पड़ रहा है। आज वैज्ञानिक प्रगति, औद्योगिक विकास एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का प्रभाव भी युवा पीढ़ी पर दृष्टिगोचर हो रहा है। हमारे परम्परागत नैतिक मूल्यों का क्रमशः क्षरण, संस्कारों में भी दिखायी पड़ता है।

अध्यापन, शिक्षा प्राप्ति व शिक्षा प्रदान करने का सबसे महत्वपूर्ण तथा सर्वसामान्य साधन है।’अक्षर ज्ञान’ से पाठ्य पुस्तकों एवं उससे सम्बन्धित पाठ्यक्रमों का अध्ययन ही सामान्यतया, इसके अन्तर्गत माना जाता है। परन्तु वस्तुतः इसका विस्तार अत्यन्त विस्तीर्ण होता है। भाषा के द्वारा, मानव के ज्ञान का बहुत छोटा सा अंश ही व्यक्त किया जा सकता है। तथा उसमें भी, उसका एक बहुत छोटा सा अंश ही लिपिबद्ध है। वस्तुतः लिपि के ज्ञान होने अथवा भाषा का ज्ञान होने मात्र से, शिक्षा का पूर्ण उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता है।

वस्तुतः अध्यापन के अन्तर्गत वे सब क्रियायें आती हैं, जिनके द्वारा कोई भी व्यक्ति या व्यक्त्यिों का समूह, अपने ज्ञान को दूसरे को प्रदान करने का चेतनापूर्वक प्रयास करता हो। यह गुरूतर दायित्व, केवल विद्यालयों, तकनीकी संस्थानों, विश्वविद्यालयों द्वारा ही नहीं, वरन् हर घर, हर परिवार में होने पर ही पूर्ण हो सकेगा।

यह खेतों, कारखानों, दुकानों, व्यावसायिक केन्द्रों, कला केन्द्रों, खेल के मैदानों में ही इसे व्यापक रूप से चलना ही होता हैं, तभी अध्यापन व ज्ञान विस्तार का कार्य व्यापक पैमाने पर होता है।

अध्यापन, एक पक्षीय ज्ञान का संप्रेषण मात्र नहीं

अध्यापन, एक पक्षीय ज्ञान का संप्रेषण मात्र नहीं हैं, यह परस्पर ज्ञान-संप्रेषण है। एक-दूसरे से ज्ञान का परस्पर संप्रेषण ही अध्यापन का मूल लक्ष्य एवं अभीष्ट है। हमारे राष्ट्र में मंत्रो, भजनों, कथा-कीर्तन तथा अन्यान्य विधियों द्वारा ज्ञान का परस्पर संप्रेषण होता रहा है। गुरू-शिष्य परम्परा में यह और भी प्रगाढ़ रूप में परिलक्षित होता है। आधुनिक कालखण्ड में रेडियो, सिनेमा, टी0वी0, कम्न्प्यूटर, मोबाइल आदि-आदि इसके विकसित हुये रूप के प्रकार हैं।

वस्तुतः ’’स्वाध्याय’’, मनुष्य के लिए अत्यन्त आवश्यक है। यह मनुष्य का स्वयं का अध्यापन ही होता है। पठन, मनन, एवं चिन्तन के द्वारा मनुष्य ज्ञान को स्वतः आत्मगम्य बनाता है। वास्तव में, स्वाध्याय के बिना, ज्ञान स्थायी रूप से टिक नहीं सकता है। तथा स्वाध्याय के बिना ज्ञान का संवर्द्धन भी नहीं हो सकता है। यदि ज्ञान का तेज प्राप्त करना है तो स्वध्याय के बिना, यह संभव ही नहीं है। हमारे यहाँ कहा गया है ’’स्वाध्यायान्मा प्रमदः’’ यानी स्वाध्याय में कभी भी आलस्य नहीं करना चाहिए। तैत्तरीय उपनिषद की ’’शिक्षावल्ली’’ में यह महत्वपूर्ण मार्गदर्शन कुलपति या विद्या के अधिष्ठान का दिया हुआ है। 

यदि शिक्षा का सर्वागपूर्ण दृष्टि से विचार किया जाये तो, विद्यालयीय शिक्षण के योगदान एवं शिक्षा के माध्यम पर भी ध्यान दिया जाना उचित ही है। यह मनुष्य ही है जो पीढ़ियो से पीढ़ियों तक ज्ञान को पहुँचाने का एजेन्ट होता है। वही दाता है और वही प्राप्त कर्ता भी होता है। विद्याध्ययन का यही मूल स्वभाव है। यदि ऐसा नहीं होता तो विद्याध्ययन, चेतनाशील तथा ज्ञान के प्रचार-प्रसार का प्रभावी घटक न होकर, समाज से असंपृक्त व मृतप्राण जैसा होकर, समाज के लिए अहित कर होगा।

वस्तुतः विद्यालयीय शिक्षा, ही केवल, मनुष्य निर्माण का कार्य नहीं करती है। संस्कार निर्माण का एक बहुत बड़ा क्षेत्र ऐसा है, जो विद्यालयीय शिक्षण व अनौपचारिक शिक्षा/स्वाध्याय/व्यक्तित्व विकास के मध्य, एक समन्वित, एकीकृत, सर्वांगपूर्ण एवं अखंड व्यक्तित्व का विकास हो सके। अध्ययन, अध्यापन,स्वाध्याय व सामाजिक सम्बन्धों से विकसित ज्ञान परम्परा का यही समेकीकृत लक्ष्य, मनुष्य निर्माण की पहली शर्त है। मनुष्य निर्माण ही राष्ट्रनिर्माण की आधारशिला होती है।

वस्तुतः अध्ययन, अध्यापन व स्वाध्याय में पुस्तकों की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती हे। भारतीय परम्परा में, गुरू-शिष्य परम्परा में, वाचिक की एक महत्वपूर्ण परम्परा थी। गुरू, मंत्रों आदि के माध्यम से ज्ञान शिष्यों को वाचिक परम्परा के द्वारा संप्रेषित करते थे। एक गुरू अपने शिष्य को, फिर वह शिष्य, गुरू के रूप में अपने शिष्यों के ज्ञान को संप्रेषित करता था। वेदों से लेकर हजारों वर्षों तक श्रुत परम्परा का निर्वहन सफलता पूर्वक होता रहा था। ताम्रपत्र व भोजपत्र पर भी इसके रूप मिल सकते थे। विभिन्न प्रकार की लिपियों, व छपाई होने के बाद, पुस्तकों का आगमन हुआ। अब तो पुस्तकों के बिना, संसार की ज्ञान परम्परा की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सत्य ही लिखा था, कि तोप, तीर, तलवार में जो शक्ति नहीं होती, वह शक्ति पुस्तकों में होती हैं तलवार आदि के बल पर तो हम केवल दूसरों के शरीर पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, यानी भौतिक तौर पर। परन्तु उस व्यक्ति के मन को तलवार से नहीं जीता जा सकता। वस्तुतः पुस्तकों की सहायता से हम दूसरों के मन और हृदय को जीत सकतें हैं।

शरीर की जीत तो अस्थायी होती हैं, परन्तु सच्ची और स्थायी जीत के लिए मन एवं हृदय पर जीत आवश्यक हैं, पुस्तकें हृदय को प्रकाशित करती हैं, ज्ञान से मनुष्य व समाज को आलोकित करती हैं। श्रेष्ठ पुस्तकों के अध्ययन व तत्पश्चात् मनन से अज्ञानी भी ज्ञानी बन सकते हैं। श्रेष्ठ पुस्तकों के द्वारा समाज व मनुष्य का सही मार्ग दर्शन होता है। पुस्तकें हमारे मन-मन्दिर पर स्थायी प्रभाव डालती हैं। यदि हम इतिहास के महापुरूषों की जीवनी का अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि जीवन के लक्ष्य व विचारधारा पर पुस्तकों का अपरिमित प्रभाव रहा है। विद्वानों के विषय में तो यह और भी सच है। पुस्तकों से जिन विचारों का प्रचार/प्रसार होता हैं, वह समाज की सोच को प्रभावित करती रही हैं।

पुस्तकें समाज व राष्ट्र की अमूल्य थाती

पुस्तकें किसी भी समाज व राष्ट्र की अमूल्य थाती हैं। समाज व राष्ट्र की सभ्यता, संस्कृति, कला, संगीत, विज्ञान, प्रोद्यौगिकी, जीवन शैली का प्रमाण भी होती है। पुस्तकों में वर्णित विषयों तथा समग्र रूप से कहें तो साहित्य के द्वारा, समाज व राष्ट्र के उत्थान व पतन का वर्णन मिलता है। पुस्तकों के बिना जागृत समाज व राष्ट्र की कल्पना संभव नहीं हैं।

किसी भी बुद्धिजीवी या विद्वान, क्रान्तिकारी या वैज्ञानिक, अधिवक्ता या चिकित्सक, क्या पुस्तकों के बिना बन सकता है, कदापि नहीं। विचारों के आदान-प्रदान, विचार परम्परा के परिमार्जन का महती दायित्व भी पुस्तकों से होता है। पुस्तकें, मार्गदर्शन होती हैं एवं मन को आत्म सन्तुष्टि प्रदान करती हैं।

एक बात ध्यान देने की हैं कि केवल पुस्तकों को पढ़ने से विचार परम्परा का विकास नहीं होता, वरन् मनन व चिन्तन भी उसी से जुड़ा हुआ है। यदि अध्ययन के साथ चिन्तन-मनन नहीं होगा तो जैसे भोजन बिना पचे, अपच करता हैं, वैसे ही पुस्तक का ज्ञान आत्मसात करने के लिए, चिन्तन व मनन भी परमावश्यक है। तभी पुस्तकें आत्मविश्लेषणात्मक कौशल का विकास करती हैं। पुस्तकें न केवल जागरूकता का प्रचार-प्रसार करती हैं, वरन् आसपास की दुनिया को अच्छी तरह से समझने का माध्यम भी होती है। निश्चित तौर पर पुस्तकों का अध्ययन, मनन, चिन्तन व स्वाध्याय, वह महानतम पूँजी हैं, जिस पर मानव समाज की नींव स्थापित हैं। पुस्तकों का व्यसन, सर्वश्रेष्ठ व्यसन है।

पुस्तकालय की आवश्यकता व महत्ता पर दृष्टि डालने पर यह ज्ञात होता है कि समाज के स्तर पर जैसे जलाशय से जल की उपलब्धता होती है, उसी प्रकार पुस्तकों की उपलब्धता भी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से पुस्तकालय, सामाजिक व सामुदायिक स्तर पर परमावश्यक हैं। पुस्तकालय न केवल विद्यार्थियों, शोधार्थियों, बुद्धि जीवियों व श्रेष्ठ जन के लिए आवश्यक है, बल्कि सामान्यजन के लिए भी उतने ही आवश्यक हैं।

पिछले कई दशकों में हमारे देश में साक्षरता बढ़ी है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आँकड़ों के अनुसार भारत में साक्षरता वर्ष 2021 में 77.7 प्रतिशत रही। जो व्यक्ति  पलिख सके उसे साक्षर कहा जाता है। साक्षरता को बढ़ाने के लिए सरकार, कुछ स्वयं सेवी संगठन व निजी प्रयास भी सक्रिय हैं। गरीबी व निरक्षरता अक्सर साथ-साथ होते हैं। जैसे-जैसे गरीबी कम हो रही है, साक्षरता बढ़ रही है। सरकार, स्वयंसेवी संगठनों तथा निजी प्रयासों के समवेत कार्यों से साक्षरता बढे़गी।

पुस्तकालयों की आवश्यकता उच्च वर्ग व उच्च मध्यम वर्ग की अपेक्षा, गरीबों व निम्न मध्यम वर्ग को अधिक होती है। सूचना क्रान्ति के युग में निरक्षरता अभिशाप है। पुस्तकालय, साक्षरता व शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने में निश्चिततः सहयोगी होगा।

लब्ध प्रतिष्ठ लेखक प्रेमपाल शर्मा ने इस विषय पर लिखा है, ’’ पुस्तकालय आन्दोलन साक्षरता और शिक्षा की बेहतरी में तो मदद करेगा ही, एक बेहतर नागरिक बनाने में भी इनकी भूमिका महत्वपूर्ण होगी–केरल इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, जहाँ लगभग हर गाँव में पुस्तालयों की श्रंखला मौजूद है।— लड़कियों की शिक्षा हो या साक्षरता अथवा लिंग अनुपात या ह्यूमन डेवलेपमेन्ट इंडेक्स, सभी में केरल बाकी राज्यों से बेहतर है।— भारत एक गरीब देश है, जिसकी अधिकांश जनता बहुत कम सुविधाओं में गुजर-बसर करती है। यदि हर गाँव में एक पुस्तकालय हो, तो उन मजदूरों, किसानों के बच्चे भी उसका फायदा उठा सकते हैं, जिनके अभिभावक न तो पढ़े लिखे हैं और न ज्ञान के विभिन्न स्रोतो से परिचित है।—शिक्षा की शुरूआत तो किसी न किसी किताब से करनी पड़ेगी और जब पुस्तकालय की बात की जाती है, तो इसका उद्देश्य बहुत सहजता से उन लोगो के बीच पहुँचाने का है, जो पीढ़ियों से निरक्षर बने हुये है।—पुस्तकालय आन्दोलन विशेषकर हिन्दी पट्टी में साहित्य, संस्कृति के प्रति एक जागरूकता भी पैदा कर सकता है।’’

’’शिक्षा-कुशिक्षा’’- प्रेमपाल शर्मा, पृष्ठ 104 से 107 लेखक मंच प्रकाशन, गाजियाबाद, 2015 संस्करण

वस्तुतः पुस्तक एवं पुस्तकालय, ’’मिडो मील’’ की भाँति भारत की अगली पीढ़ी के बचपन के लिए ज्ञान का आधार प्रदान कर सकती है। साक्षरता व शिक्षा, दोनों हेतु पुस्तकालयों की उपलब्धता महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं।

शब्द, साहित्य अध्ययन/अध्यापन व स्वाध्याय के लिए पुस्तकों के साथ-साथ संवाद भी परम आवश्यक है। ’संवाद’ शब्द का अर्थ, नाटकों में प्रयुक्त कथोपकथनों के संवाद या फिल्मों के डायलॉग से कुछ भिन्न है। संवाद के अनेक रूप व प्रकार होते हैं। आवश्यक नहीं कि स्फुट शब्दों का स्वर के साथ प्रयोग करने पर ही संवाद हो। संकेतों में, प्रतीकों में, चित्रों व अन्य माध्यमों से भी संवाद सम्भव हैं पहले मूक फिल्में बनती थी और कई बार बिना कहे, जो बात कहीं जा सकती हैं, उसमें संवाद की खूबसूरती और संवाद करने वाले दोनों पक्षों की बुद्धिमत्ता और चतुर्थ का परीक्षण भी होता है।

संचार माध्यमों की प्रगति

संचार माध्यमों की बहुत तेजी से हुई प्रगति एवं सूचना प्रौद्योगिकी के तूफानी विकास ने बहुत सारे संवादों के महत्व को जहाँ एक तरफ कम किया हैं, वही दूसरी ओर इनके नए-नए आयाम भी खुले हैं। याद करिए कि पहले लोग पत्र कितना लिखा करते थे और कम्युनिकेशन के माध्यम के रूप में पत्र महत्वपूर्ण थां पारिवारिक स्तर पर पिता-पुत्र, पिता-पुत्री, भाई संबंधियों इत्यादि के मध्य पत्राचार होता रहता है। साहित्यिक लोगों , कवियों व पत्रकारों के बीच पत्राचार होता रहता था। पत्रों के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान एवं पत्रों के आधार पर साहित्य-सृजन भी होता था।

आज भी स्थिति यह है कि शायद ही पत्र लिखे जाते हों, सरकारी पत्रों या अर्द्धशासकीय पत्रों को तो सरकार व प्रशासन की कार्यवाही का ही अंग माना जाता है। डाक विभाग का प्रयोग अब नौकरी के आवेदन-फार्म, (अब बहुत से आवेदन ऑन लाइन ही माँगे जाते हैं) राखी भेजने या कुछ नए वर्ष के ग्रीटिंग कार्ड ही अब पत्रों की स्थिति में रह गये हैं। पत्रों की विधा का विलोपन, अब सारे बौद्धिक लोगों व साहित्यिक लोगों की पसन्द नहीं आ रहा है।

आज सड़कों पर लगभग हर हाथ में मोबाइल सेट दिखायी पड़ रहा है। शहर में, गाँव में, दूरस्थान पर भी जो लोग अपने परिजनों से दूर हैं, वे मोबाइल से लगभग नित्य सम्पर्क में रहते हैं। इसके अपने बहुत सारे लाभ भी हैं, परन्तु कई बार इससे बहुत सी समस्यायें भी पैदा हो जाती हैं। मसलन, पहले कोई लड़की, पहली बार अपने ससुराल जाती थी तो जब भाई लोग चौथी लेकर जाते थे, तब समाचारों का आदान-प्रदान होता था। अब तो लड़की के ससुराल पहुँचते ही घर पर मायके बात कर लेती है। बहुत से प्रेम व विवाद का कारण अब मोबाइल हो गया है। बची-खुची कमी मैसेज/वाट्सऐप/कू आदि-आदि ने पूरी कर दी है। परन्तु मोबाइल का फायदा अपराधियों को पकड़ने में किया जा रहा है। उनको मोबाइल ट्रैक करके पकड़ा जा सकता है।

कोई भी प्रौद्योगिकी, लाभ या हानि कर सकती है, जैसे विज्ञान के महत्वपूर्ण अविष्कारों-बिजली और परमाणु प्रौद्योगिकी मानव कल्याण में इस्तेमाल हो सकती है और मानव के विनाश में भी इस्तेमाल हो सकती हैं

इन्सटैन्ट कम्युनिकेशन ने बहुत सारी समस्याओं को कम करने में भूमिका अदा की है, वहीं कई बार समस्याओं को जन्म भी देता है, जो कि जीवन के अनेक क्षेत्रों में दृष्टिगोचर हो रही है।

प्रश्न उचित है कि इतने संचार और संवाद के माध्यमों के बाद भी, वास्तविक संवाद जो पहले मिलने-जुलने और पत्रों के माध्यम से होता था, क्या उस संवाद की गुणवत्ता, आज के संवाद माध्यमों में है? मुझे तो ऐसा लगता है कि हम धीरे-धीरे संवाद हीनता की तरफ बढ़ते जा रहें हैं।

समाज के अन्य संगठनों में भी, संवाद, औपचारिक तौर पर और वाह्य तौर पर अच्छा दिखने के लिए चलता हैं, लेकिन संवाद की मूल इकाई परिवार, गाँव, मुहल्ला में संवाद की कमी, संवादहीनता की ओर समाज को ले जा रही है।

याद आते हैं, हम लोगों के बचपन के दिन, जब पूरे गाँव व मुहल्ले में सभी घर, अपने घर होते थे, हम उनमें खेल सकते थे। गाँव के चाचा, ताऊ के सामने बच्चे शरारत करने से डरते थे। जहाँ समाज में, तमाम प्रकार के वैज्ञानिक विकास के कारण हम जीवन के उच्च स्तर को प्राप्त कर सके हैं, परन्तु पड़ोस व परिवार से हमारा कोई खास सम्पर्क नही रह गया है। महानगरों की संस्कृति धीरे-धीरे शहरों, कस्बों व गाँवों में उतर रही है। पड़ोसी के सुख दुःख से हमारा सरोकार घटता जा रहा है। किसी के सुख दुःख में औपचारिक रूप से भले ही शामिल हों, निजी तौर पर, सम्पर्क घटता जा रहा है।

संवाद हीनता को बढ़ाने में, संयुक्त परिवार की टूटन भी, बहुत हद तक जिम्मेदार है। पहले परिवार के एक सदस्य से, दूसरे सदस्य के संवाद टूटने की स्थिति,संयुक्त परिवार के कारण, नहीं हो पाती थी। पूरे समाज के लिए यह चिन्ताजनक स्थिति है। यद्यपि रोजगार के लिए, परिवार अब एक ही जगह रह नहीं सकते, लेकिन संवाद के आधुनिक माध्यम जैसे मोबाइल के द्वारा यह बना रह सकता है।

शब्दों के अध्ययन व शब्दों के द्वारा संवाद से ही अखिल जगत का अस्तित्व प्रमाणित होता है। शब्दों से संवाद करने का माध्यम भाषा ही होती है। परन्तु भाषा के अतिरिक्त ध्वनि, संगीत आदि भी संवाद करते/कराते हैं। इसलिए शब्दों व संवादो के लिए समाज का जीवन रहना ही चाहिए।

कोरोना काल में लोगों का परस्पर मिलना-जुलना बहुत कम हो गया था। संवादहीनता व्याप्त हो गयी थी। यह समाज का सामान्य स्वभाव न बन जाये, इस हेतु चिन्ता करने की आवश्यकता हैं।

शब्द, अध्ययन, संवाद तीनों  समाज के लिए ही हैं और सामाजिक जीवन की धुरी भी है। अस्तु, समाज के सर्वांग विकास के लिए शब्दों का अध्ययन, विद्या हेतु अध्यापन, स्वाध्याय, पुस्तकों की सार्वजनिक सरल सुलभ उपलब्धता परमावश्यक है। संवाद के लिए समाज के विभिन्न अंगों के मध्य सामंजस्य और बन्धुत्व का भाव आवश्यक है। समाज और मानवता का एकीकरण करके हम कल्याणकारी जीवन की कामना कर सकते हैं ।

सभी शब्दों, साहित्य के अध्ययन, पारस्परिक संवाद का लक्ष्य तो मानव कल्याण के अतिरिक्त कुछ हो नहीं सकता है। मानवता के उच्च धरातल पर सभी मनुष्यों का कल्याण भी परम लक्ष्य है।

’’सर्वे भवन्तु सुखिनाः

सर्वे सन्तु निरामयाः

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,

मा कश्चिद दुःख भाग्भवेत।।’’

यानी प्रभु से प्रार्थना है कि सभी सुखी होवें, सभी निरोगी रहे, सभी का कल्याण सभी देखें और किसी को भी दुःख का भागी न होना पड़े।। यही समस्त शब्दों, अध्ययनों, संवाद का समाज व मानवता के लिए परम उद्देश्य है।।

×

ओम प्रकाश मिश्र

पूर्व प्राध्यापक, अर्थशास्त्र विभाग,

इलाहाबाद विश्वविद्यालय,एवं पूर्व रेल अधिकारी

66, इरवो संगम वाटिका, देव प्रयागम, झलवा, प्रयागराज, उ0प्र0, पिन कोड़ -211015

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