हमें खुद कर्म करना चाहिए
आज का वेद चिंतन
विनोबा भावे ईशावास्य उपनिषद का तीसरा मंत्र पढ़ते हैं – असुर्या नाम ते लोकाः अंधेन तमसावृताः
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः
प्रथम मंत्र में ऋषि ने कहा, जगत् में जो कुछ जीवन है, यानी जीवनवान है, उसमें ईश्वर बसता है, वह सब ईश्वर का बसाया हुआ है।
इसलिए तू त्यागपूर्वक भोगता जा। किसी के भी धन की वासना मत रख। किसी के धन की वासना न रखने की सीधा मतलब है कि तू काम करता जा।
दूसरों ने मेहनत करके जो बनाया है, वह खुद काम न करते हुए प्राप्त करने की इच्छा रखना यानी दूसरों के धन की वासना रखना।
इसका सीधा अर्थ यह है कि हमें खुद कर्म करना चाहिए।
इसलिए दूसरे मंत्र में उपदेश दिया गया है कि हमें सौ बरस जीने की इच्छा रखनी चाहिए। परन्तु इसकी शर्त यह है कि हम भाररूप न बनें, कार्य करते जायें।
और यह चिंता न करें कि कर्म का परिणाम भोगना पड़ेगा। परिणाम तो वासना का भोगना पड़ता है, कर्म का नहीं।
इस प्रकार, सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के लिए जो जरूरी है वह सब प्रथम दो मंत्रों में बता दिया।
अब इन बातों को न माननेवाले लोगों को उपनिषद आत्महनो जनाः– आत्मघातकी लोग कहता है।
यानी ईश्वर को न माननेवाले और कर्म न करते हुए दूसरों के धन की वासना रखनेवाले तथा त्यागपूर्वक भोग करने के बदले भोग ही भोग की वृत्ति बढ़ानेवाले लोगों को उपनिषद ने आत्मघातकी कहा है।
ऐसे लोगों को क्या गति मिलती है? तो बताते हैं, वे आसुरी योनि में जाते हैं- असूर्या नाम ते लोकाः।
असुर्याः की जगह दूसरा एक पाठ है असूर्याः यानी सूर्यरहित लोक। परन्तु हम यहां ‘असुर्या‘ ही पंसद करते हैं।
गीता का सोलहवां अध्याय इस पर से लिखा गया है। दंभ, दर्प, आदि दुर्गुणों को हदृय में स्थान देने वाले, भोगपरायण, जनता के शत्रु जो आसुरी वृत्ति के लोग होते हैं, उनकी अधम गति होती है।
वही सारी बात यहां एक श्लोक में बतायी है। गीता में उसे आसुरी संपत्ति कहा है। मनुष्य देह रूप अमूल्य वस्तु उन्हे मिली, परन्तु उसका उन्होने दुरूपयोग किया, तो देह छूटने के बाद आसुरी लोक में जाते हैं।
लोक यानी योनि, भोगस्थान। भिन्न-भिन्न योनि भिन्न-भिन्न भोगस्थान हैं। जैसे, चंद्रलोक, इंद्रलोक, वरूणलोक हैं, वैसे आसुरी योनि कहलाती है असुर्या लोक।
उस लोक में बिलकुल अंधकार है। अंधेन तमसर आवृताः -अंधा अंधकार यानी घना, बहुत गहरा अंधकार। वहां न ज्ञान है, न ज्ञानप्राप्ति का साधन बुद्वि है।
यदि मनुष्य को ज्ञान, शिक्षण नहीं मिला तो उसकी बुद्धि अविकसित रहेगी। परन्तु फिर भी उसे बुद्वि तो है।
परन्तु यहां पर जिस योनि का वर्णन है, वहां बुद्वि की ही कमी है। शायद वह पश्वादि योनि हो सकती है।
वे अपने भक्ष्य के लिए सोचते होंगे परन्तु उनके पास ज्यादा प्रकाश नहीं दीखता।
ऐसी प्रकाशविहीन योनि में आत्मघातकी जन प्रवेश करते हैं। फिर कहते हैं, तांस् ते प्रेत्य अभिगच्छन्ति – प्र+इत्य – प्रेत्यः प्र-छोड़कर, इतः – चला गया।
शरीर छोड़कर चले जाने के बाद। (हम लाश को ही प्रेत कहते हैं।) वे आसुरी योनि में पंहुचेंगे- अभिगचछन्ति।
ईश्वर को न मानने वाले, भोगपरायण, काम छोड़कर आलस्य में जीवन बिताने वाले लोग दूसरों के धन की वासना रखते हैं। वे दूसरों पर आक्रमण करते हैं, त्याग को पंसद नहीं करते, ईश्वर की मिलकियत न मानकर खुद को ही मालिक मानते हैं और परिणामतः अपने को भोग के अधिकारी मानते हैं। यह सारी पद्धति आत्माघातकी पद्धति है। ऐसे लोगों को तामस, मूढ़ योनि में गति मिलती है।
इस तरह, प्रथम तीन मंत्र मिलकर पूरा जीवन-विचार पेश किया गया है।
- जीवन का तत्वाज्ञान, ईशनिष्ठा
- उसके अनुसार कर्मयोग का नीति विचार
- इस दोनों को न माननेवालों को मिलने वाली अधोगति