छात्रों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या: समस्या एवं समाधान

बच्चों का एडमिशन तो आरक्षण के आधार पर हो जा रहा है लेकिन मैक्सिमम बच्चे इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में फर्स्ट सेमेस्टर ही क्वालीफाई नहीं कर पाते और कई बच्चे तो 5 साल 6 साल 7 साल से फर्स्ट सेमेस्टर में ही हैं, अब ऐसी स्थिति में आप उन बच्चों की मानसिक स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं कि ये बच्चे किस मानसिक स्तर से गुजर रहे होंगे। पहले तो फिर भी और सफलता पाने का पैमाना इतना स्ट्रिक्ट नहीं हुआ करता था लेकिन आज की डेट में अगर बच्चों के साथ वैसा होता होगा तो लगातार बने रहने वाले स्ट्रेस के कारण बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ने के चांस ज्यादा हैं।

-धीप्रज्ञ द्विवेदी

उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ने वाले बच्चों के द्वारा की जाने वाली आत्महत्या बड़ी समस्या

भारत की एक बहुत बड़ी समस्या उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ने वाले बच्चों के द्वारा की जाने वाली आत्महत्या है। सोमवार को शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने संसद में जानकारी दी कि 2014 से 2021 के बीच में केंद्र सरकार द्वारा संचालित उच्च शिक्षण संस्थानों में कुल 122 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की। इसमें अगर हम category-wise देखें तो बहुत बड़ी संख्या में सामान्य वर्ग के छात्रों ने भी आत्महत्या की है लेकिन मीडिया में जो जानकारी दी जा रही है, उसमें सामान्य वर्ग के छात्रों का कोई जिक्र ही नहीं है। छात्रों के आत्महत्या के पीछे कई कारण हैं। इसमें सबसे बड़ा कारण है, ओवर एक्सपेक्टेशन। 

ये तीनों चीज़ें सभी कैटेगरी के छात्रों के लिए एक समान रूप से लागू होती हैं लेकिन ओवर एक्सपेक्टेशन आरक्षित वर्ग से आने वाले छात्रों के ऊपर कहीं ज्यादा लागू होता है।

दूसरा कारण है, सफलता। किसी भी कीमत पर सफलता प्राप्त करने के लिए बच्चों के अंदर बढ़ता स्ट्रेस। इसके अतिरिक्त कई बार ड्रग्स, नशा और प्यार जैसी चीजें भी आती हैं।

ये तीनों चीज़ें सभी कैटेगरी के छात्रों के लिए एक समान रूप से लागू होती हैं लेकिन ओवर एक्सपेक्टेशन आरक्षित वर्ग से आने वाले छात्रों के ऊपर कहीं ज्यादा लागू होता है।

मुझे हमेशा से इंडिया टुडे में छपी एक रिपोर्ट ध्यान में रहती है, जो उन्होंने मध्यप्रदेश के शिक्षण संस्थानों पर की थी, यह व्यापमं घोटाले के सामने आने के पहले की बात है। 

बच्चों का एडमिशन तो आरक्षण के आधार पर हो जा रहा है लेकिन मैक्सिमम बच्चे इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में फर्स्ट सेमेस्टर ही क्वालीफाई नहीं कर पाते और कई बच्चे तो 5 साल 6 साल 7 साल से फर्स्ट सेमेस्टर में ही हैं, अब ऐसी स्थिति में आप उन बच्चों की मानसिक स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं कि ये बच्चे किस मानसिक स्तर से गुजर रहे होंगे।

उन्होंने यह देखा था कि बच्चों का एडमिशन तो आरक्षण के आधार पर हो जा रहा है लेकिन मैक्सिमम बच्चे इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में फर्स्ट सेमेस्टर ही क्वालीफाई नहीं कर पाते और कई बच्चे तो 5 साल 6 साल 7 साल से फर्स्ट सेमेस्टर में ही हैं, अब ऐसी स्थिति में आप उन बच्चों की मानसिक स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं कि ये बच्चे किस मानसिक स्तर से गुजर रहे होंगे। पहले तो फिर भी और सफलता पाने का पैमाना इतना स्ट्रिक्ट नहीं हुआ करता था लेकिन आज की डेट में अगर बच्चों के साथ वैसा होता होगा तो लगातार बने रहने वाले स्ट्रेस के कारण बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ने के चांस ज्यादा हैं।

एक और बहुत महत्वपूर्ण चीज, जो इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने में सहायक है, वह है मोबाइल का प्रचार प्रसार। अभी कुछ दिन पहले छपी एक रिपोर्ट के अनुसार मोबाइल व्यक्तियों को अकेला बनाता जा रहा है। हम अपने आसपास की दुनिया से कटते जा रहे हैं तो ऐसी स्थिति में जो फ्रेंड दोस्त या साथी उनसे बातचीत करके आप का स्ट्रेस कम हो सकता है, आप उनके साथ होते हुए भी उनके साथ नहीं होते हैं और आप उनके साथ अपनी समस्याओं को शेयर नहीं कर पाते हैं और तब ऐसी स्थिति में एक ऐसी सिचुएशन क्रिएट होती है, जहां बच्चों को समझ में नहीं आता कि उन्हें करना क्या है और वह आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं।

इस समस्या के समाधान के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सकते हैं जिसमें सबसे पहला कदम होना चाहिए, जो आरक्षित छात्रों के लिए बहुत आवश्यक है वह यह है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में जाने के पहले उनका एजुकेशनल लेबल उच्च शिक्षण संस्थान के लायक बनाया जाए। इसमें उन्हें एडमिशन के पहले 1 साल का या 6 महीने का एक बूस्टर कोर्स कराया जा सकता है।

इस समस्या के समाधान के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सकते हैं जिसमें सबसे पहला कदम होना चाहिए, जो आरक्षित छात्रों के लिए बहुत आवश्यक है वह यह है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में जाने के पहले उनका एजुकेशनल लेबल उच्च शिक्षण संस्थान के लायक बनाया जाए। इसमें उन्हें एडमिशन के पहले 1 साल का या 6 महीने का एक बूस्टर कोर्स कराया जा सकता है। इससे जब वहां पहुंचेंगे तो वहां जो बाकी बच्चे हैं, उनके साथ उनके मेंटल लेवल को मैच करने में कोई दिक्कत नहीं होगी, और मुझे लगता है आरक्षण से ज्यादा बेहतर यह है कि हम उन्हें उस इंस्ट्यूशन के स्टैंडर्ड के लायक बना दें। 

इसका एक लाभ और भी होगा। लगभग सभी शिक्षण संस्थान में बच्चों में आरक्षित और अनारक्षित बच्चों के बीच में एक विभेद पैदा होता है, वह विभेद भी दूर होगा और साथ ही साथ इस कारण से सामाजिक विघटन होता है, उससे भी हमें मुक्ति मिलेगी। दूसरा काम सरकार यह कर सकती है कि इन संस्थानों में योग और ध्यान जैसी जो परंपराएं हैं, उन परंपराओं को लागू किया जाए और उसमें आना बच्चों के लिए कंपलसरी किया जाए।

बच्चों का एक साइकोलॉजिकल इवेलुएशन समय-समय पर होता रहे और उस इवैल्यूएशन के अनुसार उन बच्चों की मानसिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए उन्हें गाइडेंस दिया जाए ताकि बच्चे इस तरह का कदम उठाने से बचें। क्योंकि बच्चों की आत्महत्या कई स्तरों पर नुकसान करती है।

साथ ही साथ बच्चों का एक साइकोलॉजिकल इवेलुएशन समय-समय पर होता रहे और उस इवैल्यूएशन के अनुसार उन बच्चों की मानसिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए उन्हें गाइडेंस दिया जाए ताकि बच्चे इस तरह का कदम उठाने से बचें। क्योंकि बच्चों की आत्महत्या कई स्तरों पर नुकसान करती है।

उनके अपने परिवार को जो नुकसान होता है, वो तो अपनी जगह पर है, उसके साथ साथ समाज का जो नुकसान होता है क्योंकि यह बच्चे जब उच्च शिक्षा संस्थानों से पढ़कर निकलते हैं तो समाज के लिए काफी उपयोगी काम करते हैं। अब उन बच्चों की आत्महत्या के कारण उतने बच्चे तो हमारे शिक्षण संस्थान से पढ़ कर नहीं निकल पाए तो हमारे यहां उतने स्कॉलर की कमी हो गई, तीसरा उन बच्चों के ऊपर जो भी इन्वेस्टमेंट हुआ, टैक्सपेयर्स का पैसा बेकार हुआ। साथ ही साथ उन बच्चों के साथ पढ़ने वाले जो बच्चे होते हैं, उनके मन में एक गिल्ट का भाव पैदा होता है, जो जीवन भर उनके साथ रहता है। तो इन सब चीजों से हमें मुक्ति मिल सकती है। इन सब समस्याओं से मुक्ति मिल सकती है, अगर थोड़ा सा साइकोलॉजिकल इवैल्यूएशन के ऊपर ध्यान रखा जाए।

(लेखक पर्यावरण विज्ञान में स्नातकोत्तर एवं नेट हैं और शिक्षण से काफी लंबे समय से जुड़े रहे हैं। साथ ही साथ स्वास्थ्य विषयों पर काम करने वाली संस्था स्वस्थ भारत न्यास के संस्थापक न्यासी हैं एवं सभ्यता अध्ययन केंद्र से अध्येता के रूप में जुड़े हुए हैं और साथ ही साथ सभ्यता संवाद के कार्यकारी संपादक हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लंबे समय से पर्यावरण, स्वास्थ्य जैसे विषयों पर इनके आलेख छपते रहे हैं।)

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