स्वधर्म पालन अत्यंत आवश्यक

गीता प्रवचन चौथा अध्याय

संत विनोबा गीता प्रवचन में कहते हैं कि भाइयो, पिछले अध्याय में हमने निष्काम कर्मयोग का विवेचन किया। स्वधर्म को टालकर यदि हम अवांतर धर्म स्वीकार करेंगे, तो निष्कामतारूपी फल अशक्य ही है।

स्वदेशी माल बेचना व्यापारी का स्वधर्म है। परंतु इस स्वधर्म को छोड़कर जब वह सात समुंदर पार का विदेशी माल बेचने लगता है, तब मूलतः उसके सामने यही हेतु रहता है कि बहुत नफा मिलेगा। तो फिर उस कर्म में निष्कामता कहाँ से आयेगी?

अतएव कर्म को निष्काम बनाने के लिए स्वधर्म-पालन की अत्यंत आवश्यकता है। परंतु यह स्वधर्माचरण भी ‘सकाम’ हो सकता है।

अहिंसा की ही बात हम लें। जो अहिंसा का उपासक है, उसके लिए हिंसा तो वर्ज्य है; परंतु यह संभव है कि ऊपर से अहिंसक होते हुए भी वह वास्तव में हिंसामय हो; क्योंकि हिंसा मन का एक धर्म है।

महज बाहर से हिंसाकर्म न करने से ही मन अहिंसामय हो जायेगा, सो बात नहीं। तलवार हाथ में लेने से हिंसावृत्ति अवश्य प्रकट होती है, परंतु तलवार छोड़ देने से मनुष्य अहिंसामय होता ही है, सो बात नहीं।

ठीक यही बात स्वधर्माचरण की है। निष्कामता के लिए पर-धर्म से तो बचना ही होगा। परंतु यह तो निष्कामता का आरंभ मात्र हुआ। केवल इससे हम साध्य तक नहीं पहुँच जाते। *:क्रमश:*

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