गर्त में गिरी भारतीय अर्थव्यवस्था का कच्चा-चिट्ठा

जितेश कांत शरण

जितेश कांत शरण

5 ट्रिलियन वाली अर्थव्यवस्था के शोर में भारतीय अर्थव्यवस्था की टूट चुकी कमर से उपजे दर्द का आर्तनाद छुपाया जा रहा है. देश का दुर्भाग्य है कि मालिक मतदाता की आँखों पर पट्टी डालकर टीवी चैनलों के जरिये रोजाना उसे सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं और रोजमर्रा की जिन्दगी की पीड़ाएं हैं कि खत्म ही नहीं होतीं. इन पीड़ाओं के पीछे परिस्थितियाँ नहीं, देश की आर्थिकी को गारत करने की सोची समझी योजनाएं हैं. इन योजनाओं की कलई उतरता हुआ, देश के नागरिक समाज से देश की सच्ची तस्वीर छुपा ले जाने वाली जुगतों के परत-परत पन्ने खोलता हुआ यह लेख हमारी आँखें भी खोलता है.

देश की आजादी के 67 वर्ष बाद 2014 में देश की सत्ता जो दक्षिणायन हुई, उसके परिणामस्वरूप हमारी अर्थव्यवस्था में क्या मूलभूत बदलाव हुए हैं, इसे समझना जरूरी है। एक प्रजातांत्रिक देश के रूप में सरकार खुद दावा कर रही है कि वह देश के 80 करोड़ लोगों (कुल जनसंख्या के लगभग 60% हिस्से) को मुफ्त या कम से कम दाम पर भोजन दे रही है। यह दावा इस मायने में तर्कसंगत है कि 2021 की 116 देशों के वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी नीचे 101 वें पायदान पर है, ऐसी स्थिति में इसी देश के किसी एक व्यक्ति के दुनिया के दूसरे सबसे अमीर व्यक्ति हो जाने को सरकार की सफलता, अचीवमेंट कैसे माना जा सकता है? यही वह प्रमुख वजह है, जिसके चलते आज बात-बात में वर्तमान सत्ता पर अडानी-अंबानी की सरकार होने की तोहमत लग रही है। सोचने की बात है कि आखिर कारण क्या है, जो आम आदमी इस दर्द से बिलबिला उठा है। 
इस बात को दूसरी तरफ से देखें तो ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट के अनुसार इस सरकार की नीतियों के परिणामस्वरूप देश की सिर्फ एक प्रतिशत आबादी के पास देश का लगभग 67% धन कैसे सरक आया, जो 2014 तक 57% था। यानी महज 8 वर्षो में देश के 10% धन का अतिरिक्त रूप से एक प्रतिशत लोगों के हाथ में आ जाने के पीछे, सरकार की नीतियों का योगदान तो जरूर है। आम आदमी यूं ही नहीं बेचैन है। एक तरफ देश के आम आदमी का जीवन तंग होता रहे और दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था के फंडामेंटल्स भी कमजोर होते रहें, यह कोई साधारण बात नहीं है।
आम आदमी अकूत फैली बेरोजगारी का तांडव जब एक डाटा के रूप में इस प्रकार देखता है कि आज की बेरोजगारी पिछले 45 साल का रिकॉर्ड तोड़ रही है, महंगाई 15% के पार जा रही है, तो सरकार का आम आदमी की जिन्दगी से कंसर्न का दावा, एक ढकोसले के सिवा कुछ नहीं लगता।
अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी अगर इसी रफ्तार से बढ़ती रही, तो गरीब के कंगाल हो जाने और अमीर के मालएमस्त दिलएबेरहम हो जाने में ज्यादा वक़्त नहीं बचा है। आइये, इस पूरे प्लॉट को एक-एक कर समझने का प्रयास करते हैं। पहले अंबानी-अडानी वाला फैक्टर समझते हैं। 
इस संदर्भ में एक खास बात पहले यह समझ लें कि अंबानी-अडानी से अभिप्राय किसी एक या दो व्यक्ति से नहीं है, बल्कि गिने चुने ही सही, लेकिन उन तमाम उद्योगपतियों से है, जिनकी कमाई पिछले 8 वर्षो में अप्रत्याशित रूप से दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ी है। अडानी-अंबानी से अभिप्राय उन चंद उद्योगपतियों से है, जिनको दिये जाने वाले कर्ज और बेजा सहूलियतों से इकॉनॉमी का मूलभूत ढांचा ही आज खतरे में पड़ गया दिखाई दे रहा है और देश एक ऐसी स्थिति में पहुंच गया है, जिसे राजनीति की भाषा में क्रोनी कैपिटलिज्म कहा जाता है।
आजादी के बाद अपने देश की अर्थव्यवस्था का मूल खाका मिश्रित अर्थव्यवस्था का रहा है, मिक्स्ड इकॉनॉमी का साफ-साफ मतलब यही था कि सरकारी और निजी कंपनियां मिलकर इस देश की तरक्की में हाथ बंटाएंगी। उत्पादन के साधन का प्रमुख तत्व जमीन, सरकार से ज्यादा तो निजी हाथों में थी, क्योंकि सामंतवाद की जड़ें अपने देश में गहरी थीं और लैंड रिफॉर्म एकदम मार्जिनल थे। ऐसी दशा में स्पीडी विकास में निजी सहभागिता की गुंजाइश तर्कसंगत थी। मिक्स्ड इकॉनॉमी की अर्थव्यवस्था एक समाजवादी दृष्टि थी, जिसका सीधा आशय पूंजीवाद पर नियंत्रण से था। 
लेकिन समाजवादी दृष्टिकोण से अर्थव्यवस्था अपने मुकाम पर पहुंचती, इसके पहले ही ट्रिकलडाउन के जुमले ने पूंजीवाद के समर्थन में एक जबरदस्त पत्थर उछाला, जो इतने सटीक निशाने पर लगा कि सार्वजनिक उपक्रमों के समानांतर निजी उपक्रमों की लंबी होती कतार को अचानक से नैतिक समर्थन भी मिलने लगा। 
हालांकि सार्वजनिक उपक्रमों की बुनियाद 80 के दशक तक, ग्लोबलाइजेशन के लगभग दशक भर पहले ही बहुत मजबूत हो चुकी थी, लेकिन इन सार्वजनिक उपक्रमों में न उतनी नौकरियां थीं कि देश की बेरोजगारी को नियंत्रित रखतीं और न ही जो थीं, उनका स्तर इतना आकर्षक था कि वे निजी क्षेत्र की चमक दमक का मुकाबला कर पातीं। इन्हीं परिस्थितियों ने निजी क्षेत्र को समाज से मान्यता दिलवाई और पूरा देश एक स्वर से कह उठा कि बेरोजगारी सरकारी नौकरियों के भरोसे नहीं खतम होने वाली है। इस तरह ट्रिकलडाउन का सिद्धांत नैतिक बहस और बदलाव का मुद्दा बना, जिसने आगे चलकर हमारी इकॉनॉमी को पहले एकदम गाढ़े पूंजीवाद और फिर क्रोनी कैपिटलिज्म तक पहुंचा कर ही दम लिया। 
हाँ, अडानी-अंबानी के मुद्दे पर यह कह सकते हैं कि हम क्रोनी कैपिटलिज्म की ओर तेजी से बढ़े हैं। 
पूंजीवाद और फिर क्रोनी कैपिटलिज्म का मतलब है कि सार्वजनिक क्षेत्र की तरह निजी क्षेत्र को भी सरकार ने पूंजी के अलावा अन्य सहूलियतों से भर दिया है, परिणामतः निजी कॉर्पोरेशन, व्यापार और मुनाफे के अवसर ऊपर से नीचे की ओर टपकते रहने चाहिए थे, लेकिन हुआ यह कि वे ‘अपना मुनाफा मुनाफा’ और ‘अपने मुनाफे के सिवा कुछ नहीं’ की नीति पर चलते रहे, जिसके चलते पूंजीवाद का आकार और गहराई दोनों बढ़ती ही गये और सरकारें भी इन पर निर्भर होने लगीं। ईज ऑफ डूइंग बिजनेस भी इसी की एक छटा है। आज जो ‘कॉर्पोरेशंस रन द नेशन’ की छटा है, उसका आधार यही था। 
इकॉनॉमी को लेकर इस देश की राजनीतिक यात्रा को देखें तो प्रजातंत्र आने के बहुत पहले 1760 तक यानी औरंगजेब के काल तक, जिसे राजनीतिक व सामाजिक रूप से खास कर हिंदुत्व के नजरिये से एक क्रूरतापूर्ण काल समझा जाता है, ग्लोबल ट्रेड में अकेले भारत का योगदान 27% तक होता रहा है, जो आज 2% भी नहीं है। आप समझ सकते हैं कि जब पूरे वैश्विक ट्रेड में भारत का योगदान 27% था, तो इकॉनॉमी कितनी धन धान्यपूर्ण रही होगी और आज जब 2% भी नहीं है, तो आम आदमी के लिए हालात कितने रूखे-सूखे हो चुके हैं।
लोकतांत्रिक भारत में भी अगर आप याद करें तो 1975 के काल में इसी देश में एक नारा लगा था-    ‘टाटा बिलड़ा की सरकार  नहीं चलेगी नहीं चलेगी’।  लेकिन यह नारा कोई जन नारा नहीं था, ये बामपंथी खेमे से उपजा एक जुमला था, जिसे देश तो नहीं लेकिन वामपंथी समझते थे, क्योंकि वे पूंजीवाद से खासी अदावत रखते थे। असल में आम आदमी को देश के किसी उद्योगपति के विश्व के सबसे अमीर आदमी होने से तब परेशानी है, जब देश में रोजगार के अवसरों का अकाल पड़ जाय और आर्थिक विषमता बढ़ती चली जाय। आर्थिक विषमता, किसी समाज में सत्ता द्वारा ढायी जाने वाली क्रूरतम हिंसा है, क्योंकि जब संसाधनों और अवसरों तक सभी की पहुंच समान हो, यह सत्ता की ही जिम्मेदारी है। इसे ऐसे देखिये, किसी के पास जमीन है, किसी के पास पशु है और किसी के पास तीन जवान बेटे (श्रम) हैं, किसी के पास हुनर है, किसी के पास ज्ञान है किसी के पास पूंजी है और किसी के पास साहस है। समाज चाहता है कि उत्पादन के ये मुख्य तत्व जैसे जमीन, श्रम, पूंजी, ज्ञान और साहस का संयोजन ऐसे हो कि आर्थिक असमानता कम से कम हो। देश को राजनीति से इसी समन्वय की अपेक्षा होती है और अर्थशास्त्र से सत्य की। पॉलिटिकल इकॉनॉमी का यही सरल सूत्र और समीकरण है। 
सत्ता के बारे में हीगल ने कहा था कि स्टेट इज द मार्च ऑफ गॉड। क्यों कहा था? इसलिए कहा था कि अपनी असीम शक्तियों के अलावा ये जो रुपया छापने और टैक्स लगाने की शक्ति है सत्ता के पास, वह संसाधनों के विनियम और टैक्स के माध्यम से आर्थिक असमानता को नियंत्रण में रख सकती है। अब इस लिहाज से पूंजीवाद और क्रोनी कैपिटलिज्म की जगह कहां बनती है? क्या यह सत्ता का फेलियर नहीं है? इस लिहाज से सोचिये तो गंगा में कितना पानी बह गया है! 
नोटबंदी से बरबाद हुई हमारी अर्थव्यवस्था में छोटे-मझोले उद्योग तबाह हो गये।  ऊपर से कोविड की मार ने आम जन जीवन को जिस तरह से उखाड़ कर रख दिया, यह क्यों न समझा जाये कि सरकारी नीतियां चंद उद्योगपतियों के लिए ही मुनाफे का सौदा हैं? आम आदमी सिर्फ टैक्स भरने को मजबूर है, लेकिन समझना तो होगा ही कि आखिर देश को इससे क्या नुकसान है? नौकरियों पर संकट तो हर तरफ से है। 
टेक्नोलॉजी, खासकर ऑटोमैशन टेक्नोलॉजी, उसमें भी खासकर संचार क्रांति के नये-नये उपक्रम हमारी मजबूरी हो सकते हैं, पर नौकरियों का कत्लेआम ऐसे ही हो रहा है। अगर एक तरफ अनाप-शनाप टैक्सों का बोझ हो और दूसरी तरफ कॉर्पोरेट को टैक्स की असीमित छूट हो तो देश में आर्थिक असमानता ही तो आयेगी। बराबरी तो नहीं आएगी इन नीतियों से। 
औरंगजेब के काल का जिक्र महज संदर्भवश किया है कि समाज अगर एक इवोल्यूशन है, तो उसकी आर्थिकी उसकी एक ऐसी संलग्नता है, जो समाज और फिर देश की पूरी आर्थिकी को डिसेंट्रलाइज्ड रखती है और राजनीति का इससे कम ही लेना-देना होता है, नहीं के बराबर। वह राजे-राजवाड़ों का जमाना था, जिन्हें युद्ध और अय्याशी के बाद ही जनता पर नजरें इनायत करनी होती थीं।  समाज के लिए समाज को ही जो करना था, सो करना था। यह समझना बिल्कुल गलत नहीं है कि तब, जब विश्व के कुल ट्रेड में भारत का हिस्सा 27% था, तो इसका श्रेय औरंगजेब को नहीं दिया जा सकता। ये तो किसी भी सत्ता से इतर एक समाज, एक अर्थव्यवस्था के ईवोल्यूशन की बानगी थी, और जानने योग्य बात यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था के इतिहास का डीएनए यही था। 
कहने के लिए आज हम प्रजातंत्र जरूर हैं, लेकिन आज के हालात ठीक इसके उलट हैं। पूरा ट्रेड केंद्रीकृत है, वित्त केंद्रित और राजस्व केंद्रित है, खासकर जीएसटी के बाद। और ये हालात इतने बदतर हैं कि हम इस बात का जश्न मनाने को मजबूर हैं कि 130-40 करोड़ की आबादी वाले देश का महज एक आदमी दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा अमीर है। अस्सी करोड़ जनता को मुफ्त राशन देने की मजबूरी के सामने अडानी का विश्व का दूसरा सबसे बड़ा अमीर होना कितना लॉजिकल है? 
लेकिन अडानी के विश्व स्तर पर दूसरे सबसे बड़े अमीर होने से इस बात पर पर्दा कैसे पड़ सकता है कि हम में 45 सालों की रिकॉर्डतोड़ बेरोजगारी के सामने खड़े हैं, भुखमरी के वैश्विक सूचकांक में 116 देशों की लिस्ट में हम 101वें स्थान पर हैं, देश में मंहगाई की दर 15% है, विदेशी कर्ज  8 साल में दोगुना हो गया है और हमारी इकॉनॉमी की जमा-पूंजी, हमारी रिज़र्व सेक्यूरिटी आधी हो गई है, हमारी सरकार के कुल बजट का एक चौथाई हिस्सा, लिये गये कर्ज का सूद चुकाने में चला जाता है। इकॉनॉमी की आधारभूत संरचना तो ढलान पर है।
अडानी आज हमारी पूरी इकॉनॉमी को बरबाद करने का केंद्र बिंदु क्यों और कैसे बना है, इसे समझने के लिए आइये, जरा इस बात पर गौर करें कि आज से दस साल पहले अडानी क्या थे और आज क्या हैं? अडानी का नाम 1990 से सतह पर आना शुरू होता है, जब उन्होंने विलमार नाम की एक विदेशी सोया तेल कंपनी से हाथ मिलाया, जो ब्रोकर सेवा देने का कम करती थी, इस कंपनी ने सोया रिफ़ाइन तेल से अडानी को लबालब कर दिया। अगर आपको याद हो तो वह जमाना ड्रोपसी नामक एक खाद्य तेल के षड्यंत्र का पोस्ट पीरियड था। देश में खुले तेल पर तो प्रतिबंध था ही, सरसो तेल पर से भी लोगों का भरोसा उठ गया था और बाजार हेल्थ कांशस होने के नाम पर सरसों तेल और डालडा से सोया रिफ़ाइन पर शिफ्ट कर रहा था। भारत के बाजार पर अमरीका की नजर ऐसी थी कि वह अपना सोयाबीन और उसका तेल बेचने के लिए कुछ भी करने को तैयार था। 
पूर्ति की अचानक और इतनी ढीली-ढाली अमरीकी नीति ने अडानी और रुचि सोया इंडस्ट्री को अपनी गिरफ्त में लेकर इतना उत्साहित कर दिया था कि यही अडानी तब विज्ञापन देते फिरते थे कि वे भारत में स्वास्थ्य के बेहतर विकल्प के लिए सोया रिफ़ाइन, मिनिरल वाटर से भी सस्ते दाम पर देने के लिये वचनबद्ध हैं। भारतीय बाजार को हड़पने और विश्व के दूसरे सबसे बड़े धनाढ्य होने की जल्दी में उनकी ये उद्घोषणा और बाजार का ये आकलन कब दम तोड़ गया पता हीं नहीं चला। 
अगर आपको 9 साल पहले उछाला हुआ ऐसा ही एक जुमला याद आ रहा हो कि अगर विदेशों से कालाधन आ जाये तो भारत के हर व्यक्ति के एकाउंट में 15-15 लाख आ जायेंगे, तो इसमें मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि मैं देख रहा हूं कि अब राजनीति और बाजार के जुमले एक ही हो गये हैं।  अब चूंकि सोया तेल अमरीका, सिंगापुर, मलेशिया और चीन से आता था, इसलिए इस में पोर्ट की भूमिका के महत्व को समझते हुए अडानी ने मुंद्रा, गुजरात में उस समय के मुख्यमंत्री चिमन भाई पटेल से साठ-गांठ की और 1993 में मात्र दस पैसे प्रति वर्ग मीटर के भाव से पांच सौ एकड़ जमीन ली।
इसके बाद 2001 में मोदी जी के गुजरात का सीएम बनने के बाद तो अडानी को दी जाने वाली जमीनों और दूसरी सहूलियतों; जैसे कर्ज और कई कानूनी रियायतों की एक लंबी फेहरिस्त बन सकती है, जो बाजार की सतह पर दिखती हैं। मोदी जी अभी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भर घोषित हुए थे और अडानी के शेयर में किस प्रकार चार चांद लगाये, यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं है। और फिर अडानी के ही विमान से प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने उनका दिल्ली आना, अडानी के सर्वस्व होने की उनकी तरफ से खुली घोषणा थी। इसके कुछ ही दिनों बाद देश के प्रधानमंत्री की हैसियत से रिलायंस जियो की घोषणा ने देश को आश्चर्यचकित कर दिया, लेकिन बाजारिये एकदम निश्चिंत और बेफिक्र थे कि भारत के प्रधानमंत्री की गरिमा का यह नया डाइमेंशन अच्छे दिन लाकर ही रहेगा।
आज अडानी के पास अकेले मुंद्रा पोर्ट में ही पांच करोड़ वर्ग मीटर से अधिक जमीन है, जो एक रुपये से लेकर 34 रुपये तक के भाव से मिली है,जबकि वहां का सर्किल रेट ही  90 -500 रुपया प्रति वर्ग मीटर का है। आज भारत के उद्योग और ट्रेड में अडानी सबसे ऊपर हैं, तभी तो अडानी जिस जमीन का भाव अधिकतम 34 रुपया प्रति वर्ग मीटर देते हैं, उसी जमीन का टीसीएस 900 रुपया प्रति वर्ग मीटर और फोर्ड 460 रुपया प्रति वर्ग मीटर देती है। अब तो आप भी समझ गये होंगे कि भाजपा को इतनी आर्थिक संपन्नता कहां से आती है और सरकार इतनी दरिद्र क्यों है? यही तो क्रोनी कैपिटलिज्म का नजारा है। 
जल मार्ग ट्रांसपोर्ट में अडानी के सुदृढ़ इंफ्रास्ट्रक्चर में गुजरात के मुंद्रा और हाजीरा, खंबात के दाहेज, गोवा के मोर मुगाव और आंध्रा के विशाखापत्तनम के अलावा बंगलादेश में भी कुछ ऐसे पोर्ट हैं, जो अडानी के नाम नहीं होकर भी उन्हीं के माने जाते हैं। 2014 में जहाँ फ़ोर्ब्स ने अपनी ख्यातिप्राप्त पत्रिका में अडानी को 2.8 अरब डॉलर के नेटवर्थ के साथ दुनिया भर की कंपनियों की लिस्ट में 609 वें स्थान पर रखा था, वहीं आज अडानी 142-150 बिलियन डॉलर की मालकीयत के साथ दुनिया के दूसरे सबसे बड़े अमीर हैं। 
भारत की ही वेल्थ हुरा नामक एक रीसर्च कंसल्टेंसी के अनुसार 2021 के कोविड के गाढ़े दिनों में भी अडानी की प्रतिदिन की कमाई 1612 करोड़ रुपये थी, बीते 5 सालों में अडानी के नेटवर्थ में कुल 1440% की वृद्धि हुई है। अडानी की कमाई के अनुपात में इस देश के आम आदमी की कमाई क्यों नहीं है, इस प्रश्न का लॉजिक और भावना चाहे कितनी भी स्ट्रांग हो, यह बेसिर पैर का प्रश्न हो गया है। पूछते रहिये, नक्कारखाने में तूती बजती रहेगी। 
लेकिन आम आदमी की कमाई की बलि देकर अगर एक अडानी या अंबानी दुनिया भर का दूसरा अमीर चुना जाता है, तो यह देश ऑफ़ द पीपल, फॉर द पीपल और बाई द पीपल की अपनी नैतिक धुरी से खिसक गया है, इसे मानना पड़ेगा। आइये, जरा आम आदमी के हालात पर भी नजर डालें। 
आमदनी, अर्थव्यवस्था और रोज़गार का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होता है। अगर आमदनी के स्रोत  सूख गए तो समझिए बाकि दोनों का अस्तित्व संकट में है। भारत की अर्थव्यवस्था कुछ इसी दिशा में बढ़ रही है। शुद्ध राष्ट्रीय आय (एनएनआई) पर आधारित प्रति व्यक्ति सालाना आय, महामारी के दौरान 2020-21 में गिरकर 85,110 रुपए रह गई थी। यानी देश में प्रति व्यक्ति सालाना आय पिछले पांच सालों के दौरान बढ़ने के बजाय घटी है। जबकि इसी अवधि में महंगाई लगभग दोगुनी बढ़ गई है। वित्त वर्ष 2018-19 में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) पर आधारित खुदरा महंगाई दर 3.4 फीसद थी। चल रहे  वित्त वर्ष (2022-23) के लिए खुदरा महंगाई दर का अनुमान 6.7 फीसद है, जबकि इसी मई में खुदरा महंगाई 7.04 फीसद दर्ज की गई। थोक महंगाई दर की रफ्तार इससे भी अधिक है। मई-2018 में थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) पर आधारित महंगाई दर मात्र 4.43 फीसद थी, जो मई-2022 में तीस साल के उच्चतम स्तर यानी 15.88 फीसद पर पहुंच गई।
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती, ऑक्सफैम इंडिया की रपट कहती है कि महामारी के दौरान देश में 84 फीसद लोगों की आमदनी घट गई, जबकि इसी अवधि में देश के अरबपतियों की संपत्ति 23.1 लाख करोड़ रुपए से बढ़ कर 53.2 लाख करोड़ रुपए हो गई, जो दोगुने से भी अधिक की वृद्धि है। अरबपतियों की संख्या भी एक सौ दो से बढ़ कर एक सौ बयालीस हो गई। सबसे धनी दस फीसद लोगों का देश की सतहत्तर फीसद संपत्ति पर कब्जा हो गया और देश के अट्ठानबे अरबपतियों की कुल संपत्ति, देश के 55.5 करोड़ आम नागरिकों की संयुक्त संपत्ति के बराबर हो गई। मतलब संपत्ति के मामले में देश के 98 अरबपति एक तरफ और देश के 55 करोड़ लोग दूसरी तरफ- ये है आर्थिक गैरबराबरी की खाई।
पीपल्स रिसर्च आन इंडियाज कंज्यूमर इकॉनमी (पीआरआईसी) की सर्वे रिपोर्ट  के अनुसार देश के बीस फीसद सबसे गरीब परिवारों की आमदनी 2015-16 की तुलना में 2020-21 के दौरान तिरपन फीसद घट गई। इसी अवधि में निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की आमदनी बत्तीस फीसद घटी और मध्यवर्गीय परिवारों की नौ फीसद। जबकि उच्च मध्यवर्गीय परिवारों की आमदनी सात फीसद बढ़ गई और बीस फीसद सबसे अमीर परिवारों की आमदनी में उनतालीस फीसद का इजाफा हो गया।
 अब आइये इकॉनॉमी के सबसे अहम पक्ष लिक्विडिटी पर। लिक्विडिटी का मतलब है कि इकॉनॉमी में करेंसी का कुल वोल्यूम, यानी परिमाण कितना है? सरकार ने बाजार में कितना रुपया डाला है- इसी को लिक्विडिटी या तरलता कहते हैं। नोटबंदी के पहले हमारी इकॉनॉमी की लिक्विडिटी करीब 18 लाख करोड़ की थी, मतलब सरकार ने 18 लाख करोड़ रुपया छाप कर बाजार में डाला था। यह भी याद कीजिये कि तब अपनी जीडीपी का ग्रोथ 6-7% था। लिक्विडिटी का बढ़ना जीडीपी की ग्रोथ और आरबीआई की रिज़र्व सिक्योरिटी पर ही निर्भर करता है। जीडीपी जब बढ़ती है, तब और अधिक करेंसी, और अधिक लिक्विडिटी की जरूरत होती है। रिज़र्व सिक्योरिटी एक तरह से कागजी रुपये के जोखिम के लिए होती है। 

भारतीय रिज़र्व बैंक


जाहिर सी बात है कि जब जीडीपी ज्यादा होगी यानी वस्तु और सेवाओं का उत्पादन ज्यादा होगा, तो इकॉनॉमी को पहले की अपेक्षा और अधिक रुपयों की जरूरत होगी, ताकि विनियम की सहूलियत बनी रहे। इस तरह लिक्विडिटी यानी तरलता हमारी अर्थव्यवस्था की रगों में बहने वाला वह खून है, अर्थव्यवस्था की ताकत बनाये रखती है। इस तरलता पर राज्य की नीतियों का असर किस प्रकार होता है, इसका एक नजारा हमें नोटबंदी के गाढ़े दिनों में देखने को मिला. याद कीजिये, जब पांच सौ और एक हजार के ज्यादातर नोट बैंकों के सुपुर्द हो गए और नये नोट उतनी मात्रा में अभी छप कर नहीं आये थे तो बाजार रेजगारी के सिक्कों से पट गए थे। ऐसा इसलिए हुआ था कि जब हमें रोजमर्रा के खर्च के लिए नोट नहीं मिले, तो हमने घर में वर्षों से जमा रेजगारी के गुल्लक फोड़े, ऐसा करोड़ों मिडिल क्लास लोगों ने किया और बाजार सिक्कों से पट गए. यही है तरलता या लिक्विडिटी. बाजार को अपने विनियम के लिये पर्याप्त करेंसी चाहिए, नहीं होने पर सेविंग के रूप में घरों में पड़ा सिक्का तरलता को थामने का विकल्प बना। यह घोर आश्चर्य की बात है कि जब जीडीपी का ग्रोथ 7% था, तो हमारी इकॉनॉमी में 18 लाख करोड़ की लिक्विडिटी से काम चल जाता था, न इंफ्लैशन (रुपये कि बनिस्पत् वस्तु कम) होता था, न डिफ्लैशन (रुपया के बनिस्पत् वस्तु ज्यादा), और आज जब जीडीपी माइनस में गोते लगा कर 3-4% के ग्रोथ पर उबरने का आंकड़ा दे रही है तो हमारी लिक्विडिटी 31 लाख करोड़ का आंकड़ा पार कर गई है। 
सीधा सा सवाल है कि जब वस्तु और सेवाओं का उत्पादन कम हुआ है और जीडीपी गिर गई है तो और रुपया छापने और उसे बाजार में देने की क्या जरूरत पड़ी? बाज़ार में यह 13 लाख करोड़ रुपये की सरप्लस लिक्विडिटी आखिर क्यों है? जबकि नोटबंदी का दावा अलग है कि उसने कालेधन की इकॉनॉमी को ध्वस्त कर दिया है। हालांकि एक भयावह हकीकत का खुलासा अभी कुछ सप्ताह पहले खुद आरबीआई ने किया कि इसमें से लगभग 9 लाख करोड़ रुपया बैंक के सिस्टम से बाहर है। 
इसका मतलब यह हुआ कि हमारी इकॉनॉमी कुल 22 लाख करोड़ रूपये की लिक्विडिटी पर ही चल रही है और बाकी 9 लाख करोड़ रूपये किसी सेठ, नेता या कॉर्पोरेट की तिजोरी में उंघ रहे हैं। 
असल में होता ये है कि ये कागज के नोट 5-6 साल में घिस जाते हैं, जिसे बैंक आरबीआई को लौटा देते हैं, आरबीआई इन्हें नष्ट करके पुनः नये नोट छापता है, जो वापस बैंकों के जरिये बाजार में आ जाते हैं। हुआ ये कि दो हजार और पांच सौ के जो नोट, नोटबंदी के बाद बाजार में उतारे गये थे, जिनको अबतक घिसकर आरबीआई के पास लौटकर आ जाना चाहिए था, अभी तक नहीं आये हैं। इसकी सच्चाई साफ है कि ये नोट बाजार के चलन में होते तब तो घिसते, और घिसते तब तो वापस आते! आरबीआई आज भी उन 9 लाख करोड़ रुपयों के वापस आने का इंतज़ार कर रही है, जिसमें 90% नोट दो हजार के हैं। 
अब सवाल है कि 2016 की 7% की जीडीपी के मुकाबले 2018, 19, 20, 21 और 22 में क्रमश: 5, 4 और 3% की जीडीपी होने के बावजूद सरकार ने रुपया क्यों छापा? 13 लाख करोड़ की अतिरिक्त लिक्विडिटी से इकॉनॉमी को क्यों नवाजा, क्या मजबूरी थी सरकार की? 
यहीं उपस्थित होता है अडानी फैक्टर है, इसे समझिये। अभी कुछ ही महीनों पहले आपने सुना होगा कि सरकार ने 11 लाख करोड़ के एनपीए को मंजूरी दी। एनपीए मतलब Non Performing Asset, यानी बैंकों द्वारा उद्योगपतियों को दिया हुआ वह कर्ज, जो अभी तक वसूला नहीं जा सका है और जिसे बैंक अपने बट्टे खाते में डालकर अब आगे का काम देख रहे हैं। अब सवाल ये है कि क्या हमारे बैंकों की जमा पूंजी इतनी सुदृढ़ है कि 11 लाख करोड़ बट्टे खाते में डाल कर भी बैंक सुचारु रूप से कर सकें? क्या हमारे बैंकों का डिपॉजिटरी आधार इतना मजबूत है कि वे 11 लाख करोड़ रुपये के एनपीए से हलकान नहीं होंगे? जब जीडीपी ही गिरकर आधी हो गई है तो बैंक का डिपॉजिटरी फ्लो (बैंकों में सरकार के अलावा बाजार से आने वाला डिपॉजिट) कैसे बढ़ेगा? 
या तो सिस्टम इन 11 लाख करोड़ रुपयों की वसूली करता या फिर बैंकों को अतिरिक्त फंड देता, ताकि बैंक कॉर्पोरेट को कर्ज दे सकें, क्योंकि बैंक अगर कर्ज नहीं देंगे तो फेल हो जायेंगे और बैंक फेल हुए, तो इकॉनॉमी फेल हुई। हुआ यही कि बैंकों को बचाने के लिए निगेटिव जीडीपी के हालात में भी सरकार को नोट छापने पड़े और लिक्विडिटी बढ़ानी पड़ी। इन हालात में अडानी फैक्टर का तथ्य यह है कि अडानी देश के चुनिंदा कॉर्पोरेटों की बारात के दूल्हे हैं, इसलिए बैंकों से मिलने वाले कर्ज पर सबसे पहला हक उनका है। आखिर अडानी के 2.5 लाख करोड़ के कर्ज की क्या वजह हो सकती है? जब 11 हजार करोड़ का कर्ज लेकर विजय माल्या, 25 हजार करोड़ का नीरव मोदी और 9 हजार करोड़ का कर्ज लेकर मेहुल चौकसी को भागना पड़ता है, तो आखिर अडानी में कौन सा सुर्खाब का पर लगा है, जो इनको अकेले 2.5 लाख करोड़ का कर्ज देकर सरकार बीस हजार करोड़ का सेंट्रल विस्टा और आठ सौ करोड़ का उड़नखटोला खरीद रही है? 
एक तरफ 2.5 लाख करोड़ के कर्ज का रिस्क फैक्टर और दूसरी ओर यह शाहखर्ची! इसके निहितार्थ समझना इतना भी मुश्किल नहीं है कि 2.5 लाख करोड़ के कर्ज लेने वाले अकेले अडानी के ब्रैकेट में पचीसों विजय माल्या हैं कि नहीं हैं? अगर अडानी ने भी माल्या की राह पकड़ी तब क्या होगा?   वर्तमान सरकार का परफ़ॉर्मेंसस तो ऐसा है कि उसने पिछली सरकार द्वारा दिये गये कर्ज कि वसूली छोडिये, नये कर्जखोरों को भागने का सेफ पैसेज तक दिया। 
2014 से 18 तक देश को यही कहा गया कि यह डूबा हुआ कर्ज यूपीए सरकार द्वारा दिया गया है, फिर उससे भी बड़े कर्ज का बोझ इकॉनॉमी पर डालने के पीछे कौन सा विवेक था? इस प्रश्न का जबाब कौन देगा कि इतने बड़े कर्ज और कालेधन की लगभग 9-10 लाख करोड़ की सामानांतर अर्थव्यवस्था आज नोटबंदी की पीड़ा झेल चुकी इकॉनॉमी पर क्यों लादी गई?
18 लाख करोड़ से 31 लाख करोड़ की लिक्विडिटी तो 4 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनॉमी की मांग कर रही है और हम 3 ट्रिलियन की विश्व की पांचवी सबसे बड़ी इकॉनॉमी होने का जश्न मना रहे हैं, जबकि 13 लाख करोड़ की अतिरिक्त लिक्विडिटी के चपेट में फंसी इकॉनॉमी को 8-10% के जीडीपी ग्रोथ के लिए खुद ही बंधक पर रखे हुए हैं, क्योंकि इकॉनॉमी जबतक 4 ट्रिलियन डॉलर की नहीं होगी और जीडीपी की ग्रोथ 8 से 10% की नहीं होगी, तबतक 31 लाख करोड़ की लिक्विडिटी तर्कसंगत नहीं होगी, कोई अर्थशास्त्र इसे जस्टिफाई नहीं कर सकता। 
हम एक ऐसी स्थिति देख रहे हैं कि तराजू के एक पलड़े पर 3 ट्रिलियन की इकॉनॉमी है और दूसरे पलड़े पर 31-9 =22 लाख करोड़ की लिक्विडिटी। तराजू का पलड़ा लिक्विडिटी की ओर झुका हुआ है और  सरकुलेशन के सिस्टम से गायब 9 लाख करोड़ की काले धन की लिक्विडिटी पसंगे की भूमिका में तराजू को संतुलित कर रही है। 
कोविड के लॉकडाउन में जब विकसित देशों में रोजगार और खासकर नौकरी पर संकट आया, तो अमरीका और यूके जैसे देशों ने अपनी करेंसी छापकर, लिक्विडिटी बढ़ाकर, जिनकी सैलरी बंद हुई उनको सैलरी दी, जिन बैंकों को उनके कर्ज का ईएमआई नहीं मिल रहा था, उनको ईएमआई दिया, जिन इंश्योरेंस कंपनियों को उनकी पॉलिसी का प्रीमियम नहीं मिल रहा था, उनको प्रीमियम तक दिया। अमरीका ने तो इस दौरान तीन ट्रिलियन डॉलर अतिरिक्त रूप से छापा, लेकिन अपने बैंकों, अपने कामगारों और अपने इंश्योरेंस सेक्टर को डूबने से बचा लिया। फिर भी आज उन देशों में महंगाई चरम पर है। जाहिर सी बात है कि जब उत्पादन ही ठप्प पड़ा हो और करेंसी छापकर लिक्विडिटी बढ़ाई जायेगी, तो करेंसी के परिमाण वस्तु के परिमाण से ज्यादा होंगे, ऐसे में मंहगाई बेलगाम होगी ही, जिसे हम मुद्रास्फीति के रूप में देखते हैं। लेकिन उनकी यह स्थिति बिल्कुल तर्कसंगत है, इकॉनॉमी के नित्य बदलते हालात में आगे चलकर इस मंहगाई पर भी ये देश आसानी से नियंत्रण पा लेगें। बल्कि वे नियंत्रित कर भी रहे हैं, डॉलर के सामने जो रुपये का भाव गिर रहा है, वह इन देशों में इकॉनॉमी की रिकवरी के चलते ही हो रहा है। ये देश हमें कर्ज देते हैं। इसी कर्ज में छिपा होता है इकॉनॉमी का संक्रमण और मंहगाई। हमारे आयात जितने कम होंगे, विदेशी कर्ज जितने कम होंगे, हमारी इकॉनॉमी के आधार उतने ही मजबूत होंगे, यह एकदम साधारण सी बात है। 
लेकिन हमारे देश की इकॉनॉमी के हालात बिल्कुल तर्कसंगत नहीं हैं, हमने अपनी इकॉनॉमी को बंधक पर रख दिया है, जिसके खतरे ने हमें मंहगाई, बेरोजगारी, आर्थिक असमानता और कर्ज में अधिक गहरे डूबने को अभिशप्त कर दिया है। अभी तो विश्व बैंक के अनुसार 2023 की मंदी आनी बाकी ही है।– 

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