दीपावली: पर्व एक, कारण अनेक

दीपावली को लेकर प्रचलित कथाएं

सदियों से हमारे देश में दीपावली का त्योहार धूम धाम से मनाया जा रहा है. दीपावली को लेकर कितनी ही कथाएं प्रचलित हैं. आइए, आज इस लेख के माध्यम से यह जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर किन कारणों से प्रतिवर्ष दीपावली का त्यौहार हम मनाते हैं…

डॉ. आर. अचल

एक कथा के अनुसार नरकासुर ने शिव से स्त्री सम्मोहन का वरदान लेकर 64 हजार स्त्रियों सहित लक्ष्मी को सम्मोहित कर बंदी बना लिया था, जिसे पार्वती ने काली के रूपधारण कर आज ही के दिन मुक्त कराया था. काली के प्राक्ट्य के कारण शाक्त सम्प्रदाय के लोग इस दिन तांत्रिक साधनायें करते हैं. इसीलिए बंग्ला संस्कृति में इस पर्व पर काली पूजा की जाती है. शेष भारत में लक्ष्मी पूजा की जाती है.

एक कथा के अनुसार समुद्रमंथन से क्रमशः त्र्योदशी को धनवंतरि, चतुर्दशी को हलाहल और अमावस्या को लक्ष्मी का अवतरण हुआ. इसी दिन शिव ने विषपान कर धरती को विषमुक्त किया, इसलिए भी तंत्र साधनायें की जाती हैं.

दक्षिण भारत में राजा बलि के पुनः आगमन के उपलक्ष्य में दीपावली मनायी जाती है. कथा है कि विष्णु ने वामन रूप धारण कर दानवीर प्रजावत्सल राजा बालि से तीनो लोगों का राज्य दान में ले लिया.

दक्षिण भारत में राजा बलि के पुनः आगमन के उपलक्ष्य में दीपावली मनायी जाती है. कथा है कि विष्णु ने वामन रूप धारण कर दानवीर प्रजावत्सल राजा बालि से तीनो लोगों का राज्य दान में ले लिया. तीन डेग में तीनों लोक कम पड़ गये, तब राजा बलि ने अपनी पीठ दान कर अपना प्रण पूरा किया. इससे प्रसन्न होकर विष्णु ने वर माँगने को कहा. राजा बलि ने यह वर माँगा कि कार्तिक त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों के लिए तीनों लोकों में मेरा राज्य रहे, ताकि मैं अपनी प्रजा का दुख-सुख देख सकूँ. इस वर के कारण इन तीन दिनों में राजा बलि के स्वागत में दीपावली मनाई जाती है. कामसूत्र में इसे यक्षरात्रि भी कहा गया है इसलिए धन के स्वामी यक्षराज कुबेर की पूजा भी करने परम्परा विकसित हुई.

इसी दिन चित्रगुप्त ने स्वर्ग में लेखन कार्य का दायित्व प्राप्त कर देवत्व को प्राप्त किया था, इसलिए चित्रगुप्त की कलम, दवात का पूजन कायस्थ समाज में किया जाता है.

आगे चलकर राम के राजतिलक की कथा भी इस पर्व से जुड़ गयी, इसलिए दीप सजाने की परम्परा पड़ी.

आगे चलकर राम के राजतिलक की कथा भी इस पर्व से जुड़ गयी, इसलिए दीप सजाने की परम्परा पड़ी.

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वैदिक काल में खरीफ की फसल दशहरे के पकने के बाद इस समय किसान के घऱ में आती थी, किसान के घर से बाजार में जाती थी, किसान फसल बेच कर अपनी जीवनोपयोगी वस्तुएं खरीदता था, मौलिक उत्पाद के बाजार में आने से सभी वर्गों में धन का फैलाव होता था, ब्राह्मणों को दान मिलता था, कलाकारों को पुरस्कार मिलता था, इसलिए व्यापारी और किसान, कारीगर, सभी लोग प्रसन्न हो कर यह त्योहार मनाते थे.

यह आज भी होता है. सरकार अपने कर्मचारियों को बोनस देकर राजकीय मुद्रा बाजार में डालती है, जिससे बाजार के माध्यम से सभी वर्गों के पास मुद्रा का विनिमय होता है.

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समय बीतता गया… यह पर्व अपना रूप बदलता गया… और बहुआयामी मल्टीनेशनल कम्पनियों के आने के बाद से अब यह त्योहार, स्वर्ण रत्नों की खरीदारी का त्योहार हो गया है…आगे क्या होगा यह समय बतायेगा.

(लेखक आयुर्वेद चिकित्सक, लोक, प्राच्यविद्याओं व विज्ञान अध्येता, कवि, लेखक, विचारक, समाजसेवी, फ्रीलांसर हैं)

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