डॉ राम मनोहर लोहिया एक विचार थे जो हमेशा प्रासंगिक रहेंगे 

आज भारत के लोग अपने इतिहास को भूलते जा रहे हैं। खासकर हिन्दी भाषीय क्षेत्र के लोग। आज जब भी राजनीति में संघर्ष की बता की जाती है समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया जी कप याद किया जाता है। जिनकी सोच जिनका दृष्टिकोण भारत को सामाजिक तौर पर एक सूत्र में बांधने की थी। एक जुट होकर विकास करने की थी।
डॉ राम मनोहर लोहिया के बारे में कहा जाता है कि वो काँग्रेस के धुर विरोधी थे। यहाँ तक कि उन्होंने जो डॉक्टरेट की डिग्री ली थी उनके शोध का विषय भी था “नमन सत्याग्रह” ।
अगर कुछ मुद्दों को छोड़ दें तो पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में लोहिया हमेशा राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के साथ रहे। समाजवादी विचारधारा होने की वजह से उन्होंने अपने मित्र ‘आचार्य नरेंद्र देव’ के साथ मिलकर 1934 में समाजवादी पार्टी का गठन किया। हालंकि सुभाषचंद्र बोस के मुद्दे पर उनके विचार गाँधी से भिन्न जरूर थे लेकिन उनके द्वारा चलाए जा रहे स्वाधीनता आंदोलन में लोहिया एक प्रमुख किरदार रहे।
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में जब सारे काँग्रेसी नेताओं को अंग्रेजी हुकूमत ने जेलों बंद कर दिया। तब डॉ राम मनोहर लोहिया ने उस आंदोलन की कमान संभाली और बाकी बचे नेताओं के साथ मिलकर पूरे देश में प्रभावी रूप से अपनी आवाज को बुलंद किया।
इसी तरह 1946 में जब मुस्लिम लीग के द्वारा “डायरेक्ट एक्शन” की वजह से देश के अलग अलग हिस्सों से हिंसा की घटनाएं सामने आनी लगी तो उन्होंने गाँधी के साथ मिलकर पूरे देश मे शांति स्थापित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ लोहिया को पंडित जवाहर लाल नेहरू और कम्युनिष्ठ पार्टी की विचाधारा और कार्यशैली पर कभी भरोसा नहीं रहा। इसको लेकर शुरू से उन्होंने सड़क से संसद तक अपनी विरोध की आवाज बुलंद की। 1947 में जब देश का विभाजन हुआ तो उन्होंने इस फैसले की कड़ी आलोचना की और पूरे देश में जनमत करवाने की बात कही।
डॉ लोहिया तब तक काँग्रेस का समर्थन करते रहे जब तक पार्टी की नेतृत्व महात्मा गांधी के हाथों में थी; जैसे ही स्वतंत्रता बाद पार्टी की कमान जवाहर लाल नेहरू के हाथों में गई उन्होंने इससे दूरी बना ली और सड़क से संसद तक काँग्रेस और नेहरू के घोर आलोचक बन गए। उन्होंने दलित, पिछड़ों, गरीबों की आवाज बुलंद करने के लिए सिर्फ समाजवादी पार्टी की ही स्थापना नहीं की बल्कि 1949 के पटना अधिवेशन में “चौखम्भा राज्य”की परिकल्पना भी इस देश के समक्ष प्रस्तुत किए।

नेहरू सरकार द्वारा किसानों पर नहर के पानी पर टैक्स बढ़ाने के फैसलों को लेकर डॉ लोहिया ने 1949 में हिन्द किसान पंचायत बनाया और पूरे देशभर में नेहरू के इस फैसले के खिलाफ जमकर विरोध किया। उन्होंने नेहरू के इस फैसले को जनविरोधी बताते हुए तत्काल लोकसभा चुनाव कराने की मांग की।
नेहरू सरकार ने जब लोहिया की मांगों पर ध्यान नहीं दिया तो उन्होंने सरकार को घेरते हुए एक नारा दिया।
“रोजी रोटी कपड़ा दो नहीं तो गद्दी छोड़ दो”
इस नारे को उन्होंने पूरे देश में जमकर उछाला। इस दौरान उन्हें कई महीनों तक बेंगलुरु की जेल में भी रखा गया। डॉ लोहिया को हमेशा लगता था कि नेहरू सरकार की नीतियां देशहित में नहीं है। खासकर चीन के मुद्दे पर। जब नॉर्थईस्ट में भारत पर चीन का खतरा मंडराने लगा तो उन्होंने नेहरू सरकार को आगाह किया। उन्होंने हमेशा हिन्दी चीनी भाई भाई की मुहिम का विरोध किया फिर भी सरकार उनकी बातों पर कभी ध्यान नहीं दिया। और एक दिन चीन ने तिब्बत को हड़पने के बाद भारत के लगभग पैंतीस हजार वर्ग किलोमीटर भूभाग हड़प लिया। तब उन्होंने नेहरु से इस मुद्दे पर सवाल पूछा जिसके जवाब में नेहरू सरकार ने कहा कि वो भूभाग तो बंजर जमीन है वहाँ तो घास भी नहीं उगती।
जिसपर डॉ लोहिया जवाब देते हुए कहा कि “आप जिस भूभाग को बंजर कह रहे हैं। जमीन का एक टुकड़ा समझ रहे हैं वो इस देश का हिस्सा है और प्रधानमंत्री होने के नातें आपका यह बयान दुर्भाग्यपूर्ण और गैर जिम्मेदाराना है”
डॉ लोहिया जीवन भर जनांदोलन के माध्यम से सरकार की कमियों को उजागर करते रहे तो वहीं काँग्रेस के खिलाफ विकल्प के रूप में अलग अलग पार्टियों का गठजोड़ बनाने की तलाश करते रहे। डॉ लोहिया का पंडित नेहरू से वैचारिक मतभिन्नता इतनी प्रबल थी कि 1962 के चुनाव में जब पंडित नेहरू फूलपुर से चुनाव लड़ रहे थे तब उनके विरुद्ध डॉ लोहिया चुनाव में उतरे हालांकि वे चुनाव हार गए।
डॉ लोहिया देश के उन चंद प्रमुख नेताओं में थे; जिन्हें देश के अंदर और अंतराष्ट्रीय जगत में भी अच्छी ख्याति प्राप्त थी। जब उन्होंने अंतराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन बुलाया तो अमेरिका, जर्मनी, जापान, इंडोनेशिया सहित कई देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे।
डॉ लोहिया अँग्रेजी शासन ही नही अँग्रेजी भाषा के भी प्रबल विरोधी थे। उनका मत था कि भारत के हित में है कि अँग्रेजी भाषा को प्रतिबंधित कर दिया जाए मातृभाषा को महत्व दिया जाए। परन्तु उनके इस माँग को भी नेहरू सरकार ने महत्व नहीं दिया। डॉ लोहिया आज नहीं हैं किंतु उनके संघर्ष की गाथाएं एवं विचार हमेशा याद किए जाएंगे।
वे अक्सर कहा करते थे

“ जिंदा कौमें पाँच सालों तक इंतजार नहीं करतीं
यदि सड़कें सुनी हो जायेंगी तो संसद आवारा हो जाएगा ”

लोकतंत्र में लोगों को सजग रहना अपने अधिकारों के लिए लड़ना डॉ लोहिया ने लोगों को सिखाया। डॉ लोहिया काँग्रेस या नेहरू के विरुद्ध जो समाजवादी आंदोलन खड़े किए वह विचारधारा काँग्रेस के विरुद्ध देश व्यापी खड़ी तो हुई सरकार बनाने में भी कामयाब हुई। किंतु बहुत ही कम समय में कई घटकों में बिखर भी गई। क्षेत्रवादी परिवारवादी बन कर रह गई।
लोहिया जी के विचारों के नाम पर चलने वाली समाजवादी पार्टियां डॉ लोहिया जीवन भर काँग्रेस औऱ नेहरू सरकार को जिस भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद पर घेरते रहे दुर्भाग्यवस उनके द्वारा पालित पोषित विचारधारा की संगठन और सरकारें उसी में लिप्त हो गई। बल्कि जिस काँग्रेस के खिलाफ उन्होंने संगठन खड़े किए थे टुकड़ो में बंटे हुए उसके नेता आज काँग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाते हैं चुनाव भी लड़ते हैं।


(ये लेख प्रेरणा सुमन के द्वारा लिखी गई है)

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