कोरोना काल के दौरान मेहनतकशों की वास्तविक स्थिति पर महत्वपूर्ण दस्तावेज है ‘1232 किमी’

किताब आधुनिक भारत का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गई है, जो समाज को उसकी सच्चाई दिखा समाज के बनावटी मुंह पर तमाचा भी है.

समीक्षक- हिमांशु जोशी

@Himanshu28may

किताब- 1232 KM
लेखक- विनोद कापड़ी
प्रकाशक- सार्थक
लिंक- https://www.amazon.in/dp/9390971276/ref=cm_sw_r_apan_glt_fabc_RB25AH4WXHRDC92TPDYW
मूल्य- 199 रुपए

गुलज़ार साहब की कुछ चंद लाइनों से शुरू हुई ये किताब आपको इन लाइनों से ही किताब का सार समझा देती है.
इसके बाद ‘द हिन्दू‘ के पूर्व प्रधान संपादक एन. राम ने प्रधानमंत्री द्वारा पहले लॉकडाउन की घोषणा करने से 1232 किमी कथा बनने तक के सफऱ को कुछ इस तरह समझाया है कि आपकी बंद हो चुकी आंखों में लॉकडाउन की कहानी फिर घूमने लगेगी. यह प्रस्तावना आपको फिल्मों के ऐसे ट्रेलर की तरह लगेगी जो मिनटों में ही लाखों बार देख लिया जाता है.

अब आपको मार्ग मानचित्र दिखाया गया है जिसका सफ़र आप क़िताब पढ़ने के साथ पूरा करेंगे.

भूमिका में लेखक ने सीधे पाठकों से मुख़ातिब हो लॉकडाउन की कुछ ऐसी कहानियां बताई हैं जिनसे आप विचलित हो उठेंगे. यहां लेखक इस कहानी को लिखने के दौरान बनाए गए खुद के नियमों पर बात करते यह भी कहते हैं कि इस यात्रा को पढ़ने के बाद ‘मज़दूर’ शब्द के प्रति पाठकों का नज़रिया बदल जाएगा.

भूमिका के बाद लेखक ने किताब को आभार सहित 11 हिस्सों में बांटा है, जो आकर्षित करने वाले शीर्षकों से शुरू होते हैं.
‘बेचेहरा और बेनाम’ भाग से इस सफ़र की शुरुआत की गई है. यह किताब पढ़ते शुरुआत से ही हमें यह लगने लगता है कि विनोद कापड़ी सामने बैठ लॉकडाउन की दिल डुबा देने वाली कहानी सुना रहे हैं, इस बीच लेखक की उन सात मज़दूरों से हुई शुरुआती बातचीत भी किताब में पढ़ने को मिलती है.
‘पुलिस की उस मरी हुई आत्मा के घेरे को कैसे पार करें जहां एक मज़दूर उसे इनसान तक नही दिखता है’ जैसी पंक्ति लॉकडाउन के दौरान का पुलिस का अमानवीय चेहरा हमारे सामने लाती है.

किताब को आगे पढ़ते आपको मकानमालिकों के रवैये, मज़दूरों द्वारा चोरी तक करने के बने हालातों और फिर उनकी यात्रा में हुई मुश्किलों के बारे में पता चलेगा. जिस तरह के ख़तरे उठा यह यात्रा करी जा रही थी, उसके बारे में पढ़ आप यह जरूर सोचने लगेंगे की क्या सभी मज़दूर ऐसे ही खुशनसीब रहे होंगे.

गंगा नदी वाला वाक्या किताब की जान है. कुछ ऐसी ही घटनाओं की वजह से किताब आधुनिक भारत का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गई है, जो समाज को उसकी सच्चाई दिखा समाज के बनावटी मुंह में तमाचा भी है.

मज़दूरों के घर की कहानी सुन लेखक का अपने बचपन को याद करना भावुक कर देता है.
‘जातियों से आगे बढ़ अब छुआछूत कोरोना तक आ पहुंचा है’ किस्सा बिल्कुल नया नवेला है.

मज़दूरों द्वारा मॉब लिंचिंग कर मारे जाने का विचार आने वाली बात भी कई नए सवाल उठाती है, ऐसी बातें इसी कहानी पर बनी फिल्म के ज़रिए समझ पाना मुश्किल था और ऐसे सवाल किताब पढ़ ही बन सकते हैं.

‘अशरफ’ साइकिल वाले का किस्सा हिन्दू-मुस्लिम जपने वालों को लाख बार पढ़ना चाहिए.

‘सब दिन होत न एक समान’ में लेखक इस यात्रा में अपनी बदलती भूमिका पर बात करते हैं जो आपको भी लेखक के साथ इस यात्रा के बहाव में बहाते लेकर चली जाती है.

‘ये जो आप हमारा वीडियो बना रहे हैं, इससे हमारी दशा में सुधार होगा क्या?’ लेखक के पास इसका जवाब नही था पर शायद किताब अपने पाठकों पर इसका जवाब छोड़ गई है.
शाहजहांपुर जिले की पुलिस वाली घटना किताब पढ़ते पहली बार हंसने का मौका देती है.

सरकार की सहायता से खाना मिलना और फिर ट्यूबवेल में नहाने वाला किस्सा पढ़ आप मज़दूरों की समस्या खत्म होती देखेंगे और खुद भी एक राहत सी महसूस करेंगे.

रामसुरेश यादव, जयविन्द और प्रत्यूष का किस्सा पढ़ लगता है कि ऐसे लोग पूरे भारत में होते तो यह किताब लिखने की जरूरत ही नही पड़ती, फिर यह भी ध्यान आता है कि क्या हमने कोरोना काल के बाद इन लोगों को फ़िर से याद किया!!

राजकुमार के बारे में पढ़ने से पता चलता है कि ख़ाकी पहने हर इंसान एक से नही होते.
मज़दूरों द्वारा मज़दूरों को ही लूटने की घटना से दिल पसीज जाता है, अच्छा ही हुआ कि उन तंत्र के सताए मज़दूरों के चेहरे डॉक्यूमेंट्री में नही दिखे.

बिहार पहुंचने के बाद कहानी एक अलग ही मोड़ ले लेती है और लेखक यहां पर मज़दूरों से भावनात्मक रूप से कुछ ज्यादा ही जुड़े लगते हैं.
मज़दूरों की भीड़ का वर्णन हो या बिहार के सरकारी अमले द्वारा कोरोना रोकथाम के लिए किया गया कुप्रबंधन, लेखक ने सब कुछ यहां पर बेहतरीन तरीके से अपनी क़लम के ज़रिए लिख दिया है.

मज़दूरों कितने घण्टे भूखे रहे यह जान आपका तंत्र के प्रति विश्वास उठ सा जाएगा. किताब में लिखे गए कुछ दृश्य आपको डॉक्यूमेंट्री में देखने ही होंगे, उनमें बस के ऊपर वाला दृश्य मुख्य है.

किताब के अंत में इस यात्रा से जुड़ी कुछ तस्वीरें हैं.
कोरोना काल के बाद दिल्ली वापस लौटे मज़दूरों के साथ लेखक की चर्चा सवाल छोड़ जाती है कि कोरोना की तीसरी लहर आने पर मज़दूर फिर सड़कों पर न दिखें, इसके लिए हम कितने तैयार हैं.

किताब के आवरण चित्र पर बात की जाए तो साइकिल पकड़े मज़दूरों की तस्वीर से अच्छा उनकी भावनाओं को दर्शाता कोई चित्र दिखाया जाता तो थोड़ा बेहतर हो सकता था, किताब और इस पर बनी डॉक्यूमेंट्री में ऐसे बहुत से अवसर थे जिनकी एक यादगार तस्वीर आवरण चित्र पर लगाई जा सकती थी.

जब भविष्य में कृषि कानून पर सरकार का रुख क्या रहा होगा, यह समझ न आए तो एक बार मेहनतकशों पर सरकार के रुख को समझने के लिए विनोद कापड़ी का यह दस्तावेज़ खोल पढ़ा जा सकता है.

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