फल की बजाय प्रत्यक्ष कर्म में आनंद

गीता प्रवचन दूसरा अध्याय

फल
प्रस्तुति : रमेश भैया

संत विनोबा गीता प्रवचन में कहते हैं कि यदि निष्काम कर्म की बात छोड़े दें, तो भी प्रत्यक्ष कर्म में जो आनंद है, वह उसके फल में नहीं है।

स्वकर्म करते हुए जो एक प्रकार की तन्मयता होती है, वह आनंद का एक झरना ही है।

चित्रकार से कहिए “चित्र न बनाओ, इसके लिए तुम चाहे जितने पैसे ले लो”, तो वह नहीं मानेगा। किसान से कहिए – “खेत पर न जाओ, गायें मत चराओ, मोट मत चलाओ; तुम जितना कहोगे, उतना अनाज हम तुम्हे दे देंगे।’’

यदि वह सच्चा किसान होगा तो वह यह सौदा पसंद नहीं करेगा।

किसान प्रातःकाल खेत पर जाता है। सूर्यनारायण उसका स्वागत करते हैं। पक्षी उसके लिए गाना गाते हैं। गाय-बैल उसके आसपास घिरे रहते हैं।

वह प्रेम से उन्हें सहलाता है। जो पेड-पौधे लगाये हैं, उनको भरनजर देखता है। इन सब कामों में एक सात्त्विक आनंद है।

यह आनंद ही उस कर्म का मुख्य और सच्चा फल है | इसकी तुलना में उसका बाह्य फल बिलकुल ही गौण है।

गीता जब मनुष्य की दृष्टि कर्म-फल से हटा लेती है, तो वह इस तरकीब से कर्म में उनका तन्मयता सौगुना बढ़ा देती है।

फल-निरपेक्ष पुरुष की कर्मगत तन्मयता समाधिकी कोटि की होती है – इसलिए उसका आनंद औरों से सौगुना अधिक होता है।

इस तरह देखें तो यह बात तुरंत समझ में आ जाती है कि निष्काम कर्म स्वत: ही एक महान् फल है।

ज्ञानदेव ने यह ठीक ही पूछा है – “वृक्षमें फल लगते है, पर फलमें अब क्या फल लगेंगे ?*”

इस देहरूपी वृक्ष में निष्काम स्वधर्माचरण जैसा सुंदर फल लग चुकने पर अब अन्य किस फल की और क्यों अपेक्षा रखें? किसान खेत में गेहूँ बोये और गेहूँ बेचकर ज्वार कि रोटी क्यों खाये?

सुस्वादु केले लगाये और उन्हें बेचकर मिर्च क्यों खाये? अरे भाई, केले ही खाये न!

पर लोकमत को यह स्वीकार नहीं। केले खाने का भाग्य पाकर भी लोग मिर्च पर ही टूटते हैं।

गीता कहती है – “तुम ऐसा मत करो, कर्म ही खाओ, कर्म ही पियो और कर्म ही पचाओ।”

कर्म करने में ही सबकुछ आ जाता है। बच्चा खेलने के आनंदके लिए खेलता है। इससे उसे व्यायाम का फल सहज मिल जाता है।

परंतु उस फल की ओर उसका ध्यान नहीं रहता। उसका सारा आनंद उस खेलमें ही रहता है।

क्रमश:

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