योग: आध्यात्म से चिकित्सकीय विकल्प तक

डा आर अचल
डा आर अचल

आज मशीनों के युग में मनुष्य भी एक मशीन बन चुका है। विकसित कही जाने वाली दुनिया की एक बहुत बड़ी आबादी की दिनचर्या स्वाभाविक तौर पर एकरस हो चुकी है। शरीर के अंगो की स्वभाविक व प्राकृतिक गतिशीलता रुक सी गयी है। मन और शरीर के बीच लय का अभाव सा हो गया है, जिसके परिणाम स्वरूप जीवन शैली संबंधित रोगों की बाढ़ सी आ गयी है। इससे नसों, मांसपेशियों, हड्डियों, हृदय, लीवर, गुर्दे, प्रजनन अंग तक प्रभावित हो रहे हैं। इन रोगों के बचाव और उपचार आधुनिक चिकित्सा के सिद्धांतों के दायरे से बाहर हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में योग और प्राकृतिक शैली की चिकित्सा आयुर्वेद की ओर झुकाव स्वाभाविक सा है। इसीलिए कृत्रिम जीवनशैली वाले लोगों के बीच इसे एक ब्रैंड की तरह स्वीकार किया जा रहा है।

परन्तु योग के शोर के बीच एक अहम प्रश्न यह है कि ब्राँड की तरह प्रचारित योग क्या वास्तव में वही योग है, जिसे भारतीय संस्कृति-दर्शन का अभिन्न अंग माना जाता है? इसकी पड़ताल में जाने पर यह पता चलता है कि आज का बहुप्रचारित योग, वह योग तो बिल्कुल नहीं है जिसकी उत्पत्ति भगवान शिव से मानी जाती है या जिसे महर्षि पतंजलि नें शास्त्र का रूप दिया है। फिर भी योग को एक  धार्मिक क्रिया मान कर इसका विरोध भी देखने को मिलता है, जबकि यह सत्य यह है कि बहुप्रचारित योग वास्तव में योग है ही नहीं, यह तो मात्र योग के पूर्व किया जाने वाला उपक्रम या शारीरिक व्यायाम है।

परन्तु योग के शोर के बीच एक अहम प्रश्न यह है कि ब्राँड की तरह प्रचारित योग क्या वास्तव में वही योग है, जिसे भारतीय संस्कृति-दर्शन का अभिन्न अंग माना जाता है? इसकी पड़ताल में जाने पर यह पता चलता है कि आज का बहुप्रचारित योग, वह योग तो बिल्कुल नहीं है जिसकी उत्पत्ति भगवान शिव से मानी जाती है या जिसे महर्षि पतंजलि नें शास्त्र का रूप दिया है। फिर भी योग को एक  धार्मिक क्रिया मान कर इसका विरोध भी देखने को मिलता है, जबकि यह सत्य यह है कि बहुप्रचारित योग वास्तव में योग है ही नहीं, यह तो मात्र योग के पूर्व किया जाने वाला उपक्रम या शारीरिक व्यायाम है।

वास्तविक योग जिसकी उत्पत्ति देवाधिदेव शिव से कही गयी है, वह शब्दार्थ के अनुसार जोड़ने के संदर्भ में ही है।जिसका स्वरूप भारतीय संस्कृति के शैव, शाक्त, वैष्णव, सांख्य, बौद्ध, जैन आदि धार्मिक सम्प्रदायों में भिन्न-भिन्न रूपों में स्वीकार किया है, परन्तु सभी का उद्देश्य व्यक्ति को विराट प्रकृति के अव्यक्त परमसत्ता से जुड़ने का विज्ञान है, मोह, लोभ, घृणा, ईष्या आदि सें मुक्त होने का मार्ग है।      

शैव-शाक्त परम्परा में भोग की पराकाष्ठा ही योग का चरम विन्दु है। इसके अनुसार बिना योग के समग्र भोग संभव ही नहीं है तथा भोग के अभाव में योग का व्यर्थ का उपक्रम है। यहां कुण्डिलिनी का सहस्रसार से सम्मिलन कराना ही योग है। कुण्डिलिनी स्त्री शक्ति है। सहस्रसार पुरुष सत्ता है, मूलाधार,स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धा,आज्ञाचक्रो से गुजरते हुए  दोनो के महामिलन ही परमानन्द का कारण है,यह परमान्द ही मोक्ष है। शैव सम्प्रदाय की एक प्रमुख शाखा कौल के अनुसार आनन्द ही सृष्टि का मूल है। यह आनन्द ही व्यापक होकर परमानन्द हो जाता है। लोक सत्य भी यही है। कुण्डिलिनी और सहस्रसार ही शक्ति और शिव है।जो प्रत्येक स्त्री पुरुष में अन्तर्निहित है।शिव-शक्ति भाव अर्थात विशुद्ध निर्लेप भाव से स्त्री-पुरुष का सम्मिलन आनन्द का सर्जन करता है।जिसका स्थायी भाव आ जाने से यही परमानन्द हो जाता है। इस अवस्था में साधकों की कुण्डलिनी स्वतः चेतना को प्राप्त करती है।जीवन का शाश्वत आनन्द सहज उपलब्ध हो जाता है। महायोगी भगवान कृष्ण के महारास और बौद्धों के महायान में यही सूत्र है। इसी सूत्र को ओशो रजनीश ने संभोग से समाधि की ओर कहकर प्रचारित किया। जिसे पाश्चात्य जगत ने दिलखोल कर स्वीकर किया,और आज भी दुनियां में इस परम्परा के हजारों योग केन्द्र अस्तित्व में हैं।

कर्मयोग योग का सूत्र भी यही निकलता है। कर्मयोग तब तक संभव नहीं है जबतक बुद्धि को विवेक से योग न हो, विवेक के अभाव मे विनाशकारी होता है। कृष्ण के कर्मयोग की चर्चा करते समय ब़डी सफाई से विवेक की चर्चा छुपा ली जाती है।विवेक के लिए चेतना का जागरण आवश्यक होता है और चेनता के लिए व्यक्ति को व्यापक बनती है,जो कुंडलिनी योग से ही संभव है। इस क्रम में शैव आचार्यो ने ही आयुर्वेद के रसशास्त्र में पारद को शिव का वीर्य और गंधक शक्ति का रज कह कर विज्ञान का अद्भुत प्रयोग किया है दोनों के योग से बनने वाली औषधि को परमानन्द व अमरत्व प्रदान करने वाला औषधि कह दिया है। योग यह भी यह भी एक स्वरूप है।   

परन्तु शिव-शक्ति योगसूत्र की परम्परा दूषित होकर भोग पर ही आकर टिक गयी।जिसके परिणाम स्वरुप हठ योग सम्प्रदाय का जन्म हुआ। जिसमें स्त्री तत्व को नरकगामी बता कर वर्जित और उपेक्षित कर दिया गया।यहाँ एकल उपक्रम के द्वारा मूलाधार स्थित कुण्डलिनी शक्ति को षट्चक्रो का भेदन करते हुए  सहस्रसार से मिलाने की कठिन साधना की परम्परा है। यही से लोक की उपेक्षा आरम्भ होती है, जो लोक के दरिद्रता-असमानता का कारण बन गया। यही विचार सांख्य-वैष्णव ने भी अपनाया ।विरक्ति की अवधारणा विकसित हुई।योग की परिभाषा आत्मा से पमात्मा का मिलन हो गया। जगत नर्क लोक हो गया।जगतमिथ्या का विचार प्रसारित हुआ।जो सूत्र दुनियां को सुन्दर और सुखमय बना सकते थे वे अदृश्य परमात्मा के मिलन की उत्कण्ठा मे लीन होने लगे। पूर्वी जगत इससे इतना बुरी तरह प्रभावित रहा कि आज तक दीन और दीनानाथ से नहीं उबर सका है।

इसके विपरीत पश्चिमी जगत केवल देह और स्थूल जगत को ही मूल मान लिया, जिसके कारण जगत को सुखद बनाने के लिए बहुत कार्य किया,लेकिन असंतोष,तृष्णा,स्पर्धा के अंतहीन जंग में उलझकर पूरी दुनियां को तनाव ग्रस्त करते हुए मशीन बना दिया। इससें भय और विषाद के साम्राज्य में आनन्द और तृप्ति मात्र एक शब्द बन कर रह गये।पश्चिम के इस गहन प्रयास ने प्रकृति को ही विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है। इसलिए आज यह स्वाभाविक परिस्थिति उत्पन्न हुई है कि पूरब लोकसुख के लिए पश्चिम को अपनाने को बैचैन है और पश्चिम लोक सुख से उब कर पूरब अपनाने को व्यग्र है। इस स्वभाविक घटना को कुछ लोग अपनी खासियत मानने लगे है कि हमारी महानता के कारण लोग आ रहे है,पर ऐसा नही है, दुनियां का अधूरे जीवन दर्शन एक दूसरे से मिल कर पूर्ण होने का यत्न कर रहे है। इस धरती के संदर्भ में पूरब और पश्चिम के जीवन दर्शन का सम्मिलन भी एक महायोग है। इसका बीज बुद्ध से शुरू होकर विवेकान्द, ओशो, महेश योगी, आनन्दमूर्ति, कष्णमूर्ति आदि के माध्यम से पश्चिमी जगत में फल-फूल रहा है।

आज का प्रचारित योग वह कत्तई नहीं है। यह केवल योगपूर्व का उपक्रम है जो आज के भाग-दौड़ से भरे जीवन में मन और शरीर के बिगड़ते संतुलन का चिकित्सकीय विकल्प बन रहा है। इसी का लाभ उठा कर बाजार  ने इसे एक ब्राँड बना दिया है।

आज का प्रचारित योग वह कत्तई नहीं है। यह केवल योगपूर्व का उपक्रम है जो आज के भाग-दौड़ से भरे जीवन में मन और शरीर के बिगड़ते संतुलन का चिकित्सकीय विकल्प बन रहा है। इसी का लाभ उठा कर बाजार  ने इसे एक ब्राँड बना दिया है।

(’लेखक वर्ल्ड आयुर्वेद कांग्रेस आयोजन समिति के सदस्य एवं ईस्टर्न साइंटिस्ट शोध पत्रिका के संपादक हैं)

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