सेना में भर्ती के क्या आकर्षण हैं, अग्निपथ से नाराज़गी क्यों है!

सेना में भर्ती के क्या आकर्षण हैं, कौन लोग हैं जो सेना में भर्ती का सपना पालते हैं, उसकी तैयारी करते हैं किंतु वे अब सेना भर्ती की अग्निपथ योजना से नाराज़ हैं, वे अग्निवीर नहीं बनना चाहते।

अनुपम तिवारी , लखनऊ

अनुपम तिवारी, स्वतंत्र, लेखक
अनुपम तिवारी

अग्निपथ पर तर्क वितर्क थमने का नाम नहीं ले रहा. सरकार अपनी ओर से पूरा प्रयास कर रही है कि युवकों को समझाया जा सके. पूरा तंत्र इस काम के लिए झोंक दिया गया है. सांसदों, विधायकों, प्रवक्ताओं के अलावा एक बड़ी संख्या में पुराने फौजी अफसरों को इस योजना का बखान करने के लिए मीडिया, मीटिंगों और बैठकों में उतार दिया गया है.

वह चार साल की सैन्य सेवा के फायदे गिनाते नही थकते. योजना के माध्यम से कम उम्र में मिलने वाले पैसों के उपयोग के बारे में बताते हैं. सेना से निकल कर कॉरपोरेट घरानों की सेवा के अवसरों का बखान करते हैं.

सेना में जवान बनने के इच्छुक युवकों के अपने तर्क हैं. उनके तर्क सतही नहीं हैं. वह राष्ट्रवाद जैसे शब्दों की अपनी ही परिभाषा बताते हैं. उनको समझ पाना काफी सहज हो जाता है जब उनकी पृष्ठभूमि पर विचार किया जाता है.

कौन हैं ये युवा

गांवों के बाहर पगडंडियों पर, कस्बे के किनारे सड़कों पर, शहरों के पार्कों में कई युवा आपको दौड़ते, भागते, दंड बैठक करते, पुश–अप या पुल–अप जैसे तरह तरह के व्यायाम करते दिख जाते हैं. इनके व्यायाम का समय या तो बहुत सबेरे होता है या फिर दिन ढलने के बाद देर शाम को, इस समय सड़कों या पार्कों पर आम लोगो को गतिविधियां कम से कम रहा करती हैं.

अंदाजा लगाना कतई मुश्किल नहीं  है कि यह वो युवा हैं जो सेना को अपना लक्ष्य मान रहे हैं और सेना में जा कर अपना भविष्य सुरक्षित करना चाहते हैं. देश प्रेम, वर्दी के प्रति समर्पण, बाजुओं या कंधों में लगी रैंक से उपजा आत्मविश्वास, यूनिट या रेजिमेंट की इज्जत, उसका सम्मान आदि इनके जेहन में फिलहाल नहीं है. शायद वो छोटे लक्ष्य फतह करने के बाद बड़े लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ रहे होते हैं.

सेना में भर्ती का टेस्ट
सेना में भर्ती के लिए शारीरिक दक्षता परीक्षा

कहां से आते हैं यह

2011 की जनगणना के अनुसार भारत में ग्रामीण आबादी 69 प्रतिशत है. उनमें साक्षरता की दर 73.5 प्रतिशत  है. सेना में जवानों के तौर पर भर्ती होने का घनत्व गावों और कस्बाई अंचलों में ज्यादा है. शहरी इलाके, जहां मूलभूत सुविधाएं, शिक्षा और सेवा के अवसर ज्यादा हैं वहां से सेना में जवानों का प्रतिशत बेहद कम है.

अगर क्षेत्रवार गणना करें तो उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, उत्तराखंड, समेत पूरा हिंदी बेल्ट सेना में जवानों की सप्लाई का प्रमुख स्रोत है. इसके अलावा ओडिशा, पश्चिम बंगाल, उत्तर पूर्व के इलाके भी सेना में अपने युवकों को ठीक ठाक तादाद में भेजते हैं.

प्रायद्वीपीय भारत की बात करें तो महाराष्ट्र व आंध्र प्रदेश के वह इलाके जो अपेक्षाकृत पिछड़े माने जाते हैं, वहां से सेना में जवानों की आमद बाकी धनी जिलों से बेहतर है. यही हाल तमिलनाडु और केरल का है. गुजरात, गोवा, चंडीगढ़ जैसे शहरी प्रदेशों से सेना को न के बराबर जवान मिल पाते हैं.

वायुसेना और नौसेना की अपील अलग तरह की है. चूंकि यहां तकनीकी कामों के लिए ज्यादा एयरमैन और सेलर्स की आवश्यकता होती है. युवकों को शारीरिक क्षमता के अलावा बेहतर शैक्षिक योग्यता और विशेष स्किल हासिल करना पड़ती हैं. यहां कस्बाई और नगरों के बच्चे भी अच्छी तादाद में आ जाते हैं जिन तक यह योग्यताएं ग्रामीण अंचलों की अपेक्षा अधिक सुलभ हैं.

आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए वरदान है सेना

आजादी के इतने सालों बाद भी देश के सैकड़ों जिले ऐसे हैं जो विकास की दौड़ में महानगरों और शहरी इलाकों से बहुत पीछे छूट गए हैं. यहां न शिक्षा के बेहतर साधन हैं न चिकित्सा के, न ही रोजगार के अवसर. खेती जो होती है वह भी हर बार फलदाई नहीं होती. भयंकर शारीरिक मेहनत के बाद फसलें होने या बरबाद हो जाने के बीच एक छोटी सी लकीर भर होती है. ज्यादातर किसानों के पास खेती लायक जमीन भी कम ही होती है, वह भी कई सदस्यों के बीच बटी हुई.

खेती हो या परदेस में जा कर छोटे मोटे जॉब, दोनो ही स्थिति में पैसों की चाह में इन युवकों को हाड़ तोड़ मेहनत करने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचता. चूंकि बिगड़ी हुई घरेलू आर्थिक स्थिति अधिकतर को उच्च शिक्षा से रोक देती है उनके सामने अवसर बहुत सीमित होते हैं.

पलायन की दशा में सेना बेहतर विकल्प होती है

उद्योगों की अनुपस्थिति और बढ़ती जरूरतों से जूझते इन क्षेत्रों के युवाओं में अपने क्षेत्र से पलायन एक बड़ी समस्या है.  युवा मन हमेशा से बेहतर की ओर भागता है. आर्थिक बंधन, जरूरतें और पारिवारिक जिम्मेदारियों का एहसास उन्हें अपने जन्मस्थान से बहुत दूर, सूरत, लुधियाना, मुंबई, दिल्ली आदि शहरों की ओर देखने को मजबूर कर देता है. किंतु पलायन के बावजूद बहुत कम लोग ही ऐसे होते हैं जो अपना जीवन स्तर बेहतर कर पाते हैं. शारीरिक और मानसिक रूप से थका देने वाली फैक्टरियों में दिन रात खटना इनके लिए सेना में काम करने से ज्यादा चैलेंजिंग होता है. उस पर यहां से कभी भी निकाल दिए जाने का भय सदैव बरकरार रहता है.

ऐसे युवक जो इन समस्याओं से जूझ रहे होते हैं, वह अगर शारीरिक रूप से फिट और जुझारू हुए तो थल सेना एक बेहतर विकल्प होती है. यहां पर भर्ती का मापदंड सिर्फ उच्च शारीरिक क्षमता, मेडिकल फिटनेस और हाईस्कूल या कुछ कैडर में इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई ही होता है, वह ऐसे युवकों के माकूल बैठता है.

आरक्षण व्यवस्था भी एक कारण है

सेना में आरक्षण व्यवस्था का न होना भी एक अहम कारण है जो नवयुवकों को आकर्षित करता है. बहुत सारे युवक क्षमता होने के बावजूद नौकरियों में आरक्षण लागू होने के कारण सरकारी नौकरियां नहीं पा पाते. कम शिक्षा और बेहतर कौशल के अभाव में कस्बाई या गंवई युवकों के समक्ष नौकरियों के अधिक विकल्प नहीं होते. वह प्राइवेट नौकरियों की तरफ जा सकते हैं किंतु वहां शारीरिक रूप से सक्षम किंतु बिना स्किल वाले युवकों के लिए बहुत सीमित संभावनाएं होती हैं वह भी घर से दूर और तमाम शर्तों के साथ. इसलिए सेना इनके लिए एक बेहतर विकल्प होती है. 

समाज का रूढ़िवादी रुख

इस उदारवादी युग में शहरों में जातिगत पूर्वाग्रहों में कुछ कमी दिखने लगी है. दूसरी तरफ हमारे गांव आज भी जातियों में बुरी तरह जकड़े हुए हैं. यहां आपकी पहचान आपके परिवार, खानदान और रिश्तों के आधार पर निर्धारित की जाती है. उच्च जातियों के युवकों के लिए जाति व्यवस्था से बाहर के काम कमतर और हीन माने जाते हैं.  

क्षेत्रीय स्तर पर ग्राम पंचायतों, स्कूलों, या अन्य सरकारी महकमों में जिस तरह का रोजगार दिया जाता है वह जाति विशेष के हिसाब से ही निर्धारित होता है. उदाहरण के तौर पर उच्च वर्ण का व्यक्ति अपने गांव में सफाई कर्मचारी का काम नही करेगा भले ही वह हजारों मील दूर किसी शहर में यह काम मजबूरी वश कर ले. यहां उसे पहचाने जाने और समाज के ताने सुनने का डर नही होता किंतु जातीय श्रेष्ठता का बोध उसका पीछा वहां भी नही छोड़ता और वह बेहतर विकल्प की तलाश में लगा रहता है. सेना यहां भी उसे अपने अनुकूल लगती है.

21 साल की अवस्था होते होते बच्चों के विवाह के सपने भी बुने जाने लगते हैं. इस उम्र में यदि युवक की सरकारी नौकरी लगी हो तो उसे बिरादरी में हाथों हाथ लिया जाता है. शादी विवाह के अवसर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं. सेना की नौकरी विवाह के लिहाज से भी एक अनुकूल वातावरण बना देती है, विशेषकर ग्रामीण समाज में. यह भले ही बड़ी सामान्य सी बात लगे किंतु अति पिछड़े इलाकों में युवकों की सजातीय शादियों के लिहाज से कितनी जरूरी होती हैं यह ग्रामीण अंचलों में जा कर ही समझा जा सकता है. इस समाज में आज भी बच्चों का विवाह एक बड़ा कारक है जिससे किसी परिवार की प्रतिष्ठा बन या बिगड़ जाया करती है.

जहां सेना में जाना एक परंपरा है

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर, राजस्थान के झुंझुनूं, पंजाब, उत्तराखंड और हिमाचल के कुछ जिलों में ऐसी प्रवृत्ति देखी गई है, जहां कुछ गावों के लगभग हर परिवार में आपको सेना में ऑन ड्यूटी या रिटायर्ड जवान मिल जायेगा. मगर यहां यह भी सच है कि परंपरा मानने वाले जिलों में भी एक बड़ा तबका अपने बच्चों को सेना में अफसर की तरह भेजना पसंद करता है. जवान की नौकरी वह तब करना चाहता है जब वह एनडीए या सीडीएस जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं के काबिल नही हो पाता या फिर उम्र निकलने का डर होता है.

सेना जैसे जोखिम वाले पेशे को परंपरा के तौर पर अपना लेने के अपने तर्क हैं. इन चुनिंदा गावों में बच्चे छोटी उम्र से ही सैनिकों को आते जाते देखते हैं. उनको मिलने वाली सुविधाएं, विशेषकर रिटायरमेंट के बाद के बाद वाली, इन बच्चों को भाती हैं. सेना की बातें, उनके तमाम मिशन, उनमें होने वाली खट्टी मीठी यादों को सुनते हुए वो बड़े होते हैं. एक चुंबक की तरह सेना उनको खीचती है. एक अपेक्षाकृत सुरक्षित भविष्य के साथ साथ युवावस्था में तमाम कारनामे करने की चाहत उनको सेना की ओर ले जाती है. इस वजह से वह खुद सेना को अंगीकार करने के लिए घंटों पसीना बहाते हैं.

सैनिक बनकर समाज में बेहतर स्थान की लालसा

भारत में सेना को शौर्य का प्रतीक माना जाता रहा है. हर नागरिक के अंदर निहित देशप्रेम का जज्बा सैनिकों को समाज में उच्च स्थान देने के लिए मुख्य कारण है. इसके पीछे भारतीय सेनाओं की एक गौरवशाली परंपरा भी रही है. समाज में सेना का चित्रण एक अनुशासित संगठन के रूप में होता है जिसमे भ्रष्टाचार, लोभ, लालच, अकर्मण्यता, धोखा देने की प्रवृत्ति नही पाई जाती. इसमें विश्व युद्ध के समय से अब तक की गौरव गाथाएं जोड़ दें तो सेना गर्व और आत्मविश्वास की प्रतीक बन चुकी है.

इसी वजह से युवा खासतौर पर वह जो शिक्षा और संसाधनों की दौड़ में विभिन्न कारणों से पीछे छूट जाने के भय से ग्रस्त रहते हैं उनके लिए सेना एक शानदार विकल्प होती है. समाज में उच्च स्थान के मिलने के साथ एक गौरवशाली वर्तमान और सुरक्षित भविष्य उनको सेना की ओर खींच लेने की पर्याप्त ताकत रखते हैं.

सेना है सुरक्षा की गारंटी

देश में कुछ इलाके ऐसे हैं जहां सामाजिक सुरक्षा एक बड़ा विषय है. धन की उगाही या शक्तिप्रदर्शन की चाह में यहां आम नागरिकों को परेशान करने के लिए संगठित गिरोह काम करते हैं. दुष्कर भौगोलिक स्थिति इन इलाकों में प्रशासन के भी हाथ बांध कर रखती है. कतिपय प्रशासनिक अधिकारियों के इन संगठित गिरोहों से मिल जाने के भी उदाहरण सामने आते हैं.

नक्सल प्रभावित इलाका, बिहार के अंदरूनी इलाके और कुछ हद तक बुंदेलखंड के इलाकों में ऐसी समस्या देखी गई है। डकैतों और संगठित गिरोहों के आतंक से लोग भय के साए में जीने को मजबूर रहते थे, चंबल में कुछ वर्षों पहले तक यह आम बात थी.

ऐसे भय युक्त समाज में किसी युवक के लिए जीवन काटना एक दुःस्वप्न से कम नहीं. जब वह अपने आसपास ऐसी समस्याएं देखता है तो खुद और परिवार को बचाने में असहाय महसूस करता है. उसको सुरक्षा की एक दीवार की सख्त जरूरत होती है. सेना इस लिहाज से भी उसके सपनों में फिट बैठ जाती है. कठिन भौगोलिक स्थिति इन इलाकों के युवकों को शारीरिक रूप से बेहतर पहले ही बना चुकी होती है. बस अन्य मापदंडों पर मेहनत कर के वह सेना की सुरक्षा छतरी के नीचे अपने और अपने परिवार को ले आने में जुट जाते हैं.

सेना में पेंशन का आकर्षण

अटल बिहारी वाजपेई सरकार ने एक विधेयक के माध्यम से सेना सहित सभी सेवाओं में पेंशन खत्म कर के NPS सिस्टम लागू करने का निर्णय किया था. काफी हो हल्ला मचाने के बाद सरकार को जब यह पता चला कि राष्ट्र की सुरक्षा जैसे गंभीर विषय से छेड़छाड़ हानिकारक है, सेना में पेंशन वापस बहाल कर दी गई.

पेंशन दरअसल जवानों के लिए आत्मविश्वास और मोटिवेशन को बनाए रखने के लिए एक अहम कारक है. सुरक्षित भविष्य की चाह किसको नही होती. सेना के काम जोखिम भरे होते हैं. आपको दुश्मनों और देश के अंदर बैठे उपद्रवियों से कई मोर्चों पर लड़ना पड़ता है या फिर लगातार ऐसी स्थिति से निबटने के लिए खुद को तमाम ड्रिल्स के माध्यम से तैयार रखना पड़ता है. यानी सैनिक का वर्तमान बहुत अनिश्चित होता है. 

अनिश्चित वर्तमान के बाद सुखद और सुरक्षित भविष्य की चाह में सेना का टेन्योर जवान जरूर पूरा करते हैं. उनको भी पता होता है, एक दिन वापस उसी समाज में जाना है जहां से वह आए थे. कम ही सही सेना से ताउम्र मिलने वाली पेंशन यह आभास तो कराती है कि वह आर्थिक रूप से सुरक्षित हैं. बस सेना से मिले आदर्शों को समाज के हिसाब से ढालना होता है ताकि आय के अन्य स्रोत मिलते ही वह सम्मान पूर्वक अपना और अपनी अगली पीढ़ी का भविष्य बेहतर कर सकें. साथ ही समाज को भी सुदृढ़ विचार प्रदान कर सकें. अनुशासन में जीना सिखा सकें.

सेना और जवान एक दूसरे के पूरक

शायद अग्निपथ योजना के कर्णधारों और बयानवीरों को इस धरातल पर उतर कर देखना होगा जहां से यह वीर आते हैं। उनकी समस्याओं, उनके निवारण के उपायों पर ध्यान देना होगा। तभी जा कर सेना की रीढ़ यानी जवान, एयरमैन और सेलर की जिंदगी को समझा जा सकता है। उसी के अनुरूप एक बेहतर पॉलिसी बनानी होगी। अग्निपथ योजना इन नौनिहालों के सपनों को तोड़ने का काम करेगी क्योंकि सेना में जाना जितना इन युवकों के लिए जरूरी है उतना ही जरूरी है सेना के अंदर आत्मविश्वास और सुखद भविष्य के सपनों से लबरेज युवकों की उपस्थिति।

(जे डब्लू ओ अनुपम तिवारी (रि.)  वायुसेना से सेवानिवृत्त अधिकारी  हैं. मीडिया स्वराज सहित तमाम चैनलों पर रक्षा और सामरिक मामलों के जानकार के तौर पर अपनी राय रखते रहे हैं)

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