अग्निपथ योजना से युवा नाराज़ क्यों?

अनुपम तिवारी

अनुपम तिवारी
अनुपम तिवारी

सेना में जवानों की भर्ती के लिए लाई गई अग्निपथ योजना से नाराज़ युवाओं ने पूरे देश में भूचाल ला रखा है.  युवा आंदोलित है. हिंदी बेल्ट का वह इलाका जो प्रचुर मात्रा में सेना में जवानों की सप्लाई करता है वह अग्निपथ से सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा और आज सड़कों पर है, रेल की पटरियों पर है, सरकारी संपत्ति जला रहा है. अपने भविष्य को लेकर सशंकित कई युवा इस योजना को अपने सपनों पर कुठाराघात मान रहे हैं. वहीं सरकार और उसका तंत्र इस योजना के फायदे गिना रहा है.

अग्निपथ मजबूरी है या मास्टरस्ट्रोक?

सरकार की मानें तो उसने अग्निपथ योजना के माध्यम से भारतीय सेना का कायाकल्प करने का निर्णय ले लिया है. बढ़ती बेरोजगारी के खिलाफ यह सरकार का मास्टरस्ट्रोक कहा जा रहा है.

दिसंबर 2021 में राज्य सभा में दिए गए आंकड़ों के अनुसार भारतीय सेनाएं करीब 1 लाख 13 हजार जवानों और 8 हजार अफसरों की कमी से जूझ रही है। इनमे वायुसेना में 5000 और और जलसेना में 11000 जवानों की कमी भी शामिल है. यानी सबसे बड़ा खालीपन थलसेना में ही है.

साथ ही देश में बेरोजगारी इस समय विकराल रूप ले चुकी है. विशेषकर हिंदी बेल्ट में बेरोजगारी का बढ़ता  प्रतिशत डराता है. कोरोना काल ने स्थिति को और बिगाड़ दिया. 2 साल से सेना में भर्तियां नही हुई हैं जो पहले हर साल हजारों की संख्या में युवाओं को अपने साथ जोड़ लिया करती थी.

अग्निवीर और उनकी टूर ऑफ ड्यूटी

अग्निपथ व्यवस्था के अनुसार अग्निवीर कहलाए जाने वाले नए रंगरूट 4 साल के लिए सेनाओं में जायेंगे. उसके बाद इनमे से तीन चौथाई सेना से बाहर कर दिए जायेंगे. इससे सैनिकों की औसत आयु के मामले में सेना पहले से बेहतर हो जायेगी.

सालाना वेतनवृद्धि के साथ सेवा के दौरान एक फिक्स धनराशि वेतन के तौर पर उनको मिलेगी जिसमे सालाना इंक्रीमेंट भी लगता रहेगा. 4 साल बाद रिटायरमेंट के समय पेंशन की जगह 11 लाख रुपए का एक पैकेज दे कर उनको विदा कर दिया जायेगा. जिसमे से आधा उनके मासिक वेतन से ही धीरे धीरे काटा जाएगा. 

आम रिटायर्ड सैनिकों को मिलने वाली मेडिकल और कैंटीन आदि सुविधाओं से वह वंचित रहेंगे. सरकार का कहना है कि 22 से 25 साल में रिटायर होने वाले इन अग्निवीरों को तमाम केंद्रीय एजेंसियां नौकरियों में वरीयता देंगी. साथ ही ड्यूटी के दौरान मृत्यु हो जाने पर 1 करोड़ रुपए का बीमा भी प्रस्तावित किया गया है.

सरकार का लक्ष्य

सरकार का लक्ष्य हर साल लाखों की संख्या में युवाओं को देश की सेना के साथ जोड़ने का है. सेना का 4 साल का कार्यकाल युवाओं को अनुशासित बनाएगा जो उनको बेहतर भविष्य बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण होगा.

इसके साथ ही सेना आधुनिकीकरण की तरफ भी चल पड़ेगी. चूंकि 4 साल की सेवा वाले इन जवानों को पेंशन और ग्रेच्यूटी नहीं देना पड़ेगा इसलिए यह बचा हुआ पैसा अन्य मदों में खर्च किया जा सकेगा.

अग्निवीरो को पेंशन की सुविधा नहीं

सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक बड़ा हिस्सा सैनिकों की तनख्वाह और पेंशन में जाता है. सरकार इस बात को काफी जोर दे कर कहती है कि सेना पर यह बहुत बड़ा बोझ है. सेना के आधुनिकीकरण में यह पेंशन और वेतन सबसे बड़ी समस्या है. चूंकि सरकार के पास कॉस्ट कटिंग का दूसरा जरिया नहीं था इसलिए यह नायाब फॉर्मूला अपनाया गया. अब सेना में पेंशन बंद.

परंतु सेना के अलावा सांसदों विधायकों और अन्य उच्च अधिकारियों की पेंशन पर बात कभी गलती से भी नहीं की जाती. इस पर न कोई सवाल है न इसका जवाब मिलने की उम्मीद.

पेंशन जैसी सुविधाएं सेना के लिए बहुत जरूरी हैं

हकीकत यह है कि सेना की ओर युवाओं के आकर्षण की एक बड़ी वजह पेंशन होती है. जवान के रूप में सेना से जुड़ने, उसके सख्त अनुशासन में युवावस्था का एक बड़ा समय बिता देने के बाद मिलने वाली आजीवन पेंशन उसके लिए सुरक्षा कवच का काम करती है. जिससे वह अपना और परिवार का भरण पोषण सेना से बाहर की दुनिया में आसानी से कर पाते हैं, जिस दुनिया के वह अभ्यस्त नही होते. 

यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि सेना में जवानों के तौर पर बड़ी संख्या में निचले और निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे आते हैं जिनकी विषम आर्थिक स्थिति के लिए यह पेंशन किसी वरदान से कम नहीं होती.

कानून बनाने वाले पेश करें नजीर

यह पेंशन सैनिकों का हक इसलिए भी है कि देश ने आजादी के इतने सालों बाद भी आज तक इन रिटायर्ड जवानों के बेहतर सेटलमेंट के लिए शायद उतना नहीं किया जिसके वह हकदार थे. वन रैंक वन पेंशन के नाम पर सरकार चाहे कितनी भी खुद की पीठ थपथपा ले, असल में इसकी अनियमितता वह आज तक दूर नहीं कर पाई है. 

कहने को तमाम सरकारी महकमों में पूर्व सैनिकों के लिए आरक्षण है किंतु इसमें भी तमाम विषमताएं हैं. इसी वजह से सेना से उच्च प्रशिक्षण प्राप्त एक रिटायर्ड सैनिक समाज में अपने स्तर से बहुत छोटे कामों को करने के लिए अभिशप्त है. क्योंकि पेंशन इतनी नही मिलती कि वह सिर्फ इसी पर अपना जीवन काट दे.

सत्ता पर बैठे और उच्च पदों पर कार्यरत सैन्य, असैन्य अधिकारी जब पेंशन पर खर्च की दुहाई देते हैं तो दुख होता है, क्या ही अच्छा होता कि यह अधिकारी और राजनेता स्वेच्छा से अपनी पेंशन का त्याग कर के एक नजीर पेश करते. साथ ही अपने अपने परिवार के हर योग्य युवा को अग्निवीर बनाने का प्रण लेते. मगर ऐसा नहीं होगा.

युवा नाराज क्यों हैं

अग्निवीर वही बनेंगे जो निम्न या निम्न मध्यम परिवारों से हैं. जिनके सामने आर्थिक जरूरतों का दैत्य मुंह फाड़े बैठा रहता है. इनके लिए सेना अपने परिवार के लिए जीविकोपार्जन के साथ एक सुरक्षित भविष्य का बीमा है. इसीलिए युवा सड़कों, खेतों, खलिहानों पर सुबह दौड़ने की प्रैक्टिस करता है, दंड पेलता है, शारीरिक क्षमता बढ़ाता है.

सरकार के अनुसार ड्यूटी पर मृत्यु होने की स्थिति में 1 करोड़ रुपए का बीमा भी घोषित किया गया है. एक सेना अपने सैनिकों पर इतना निवेश करती है कि वह आखिरी क्षणों तक अपनी मृत्यु के बारे में नहीं सोचता. वह लड़ता है, जब तक सांस चलती है. यह जज्बा कड़े सैन्य अनुशासन से आता है. बीमे का प्रचार इन नौजवानों के लिए इस तरह का है कि शायद उनको दुश्मनों के सामने मरने के लिए ही तो नहीं झोंका जा रहा.

युवाओं की क्षमता का आकलन कैसे हो

सोशल मीडिया पर एक नरेटिव जोर शोर से चलाया जा रहा है कि 18 से 22 साल के इन अग्निवीरों को सरकार उम्मीद से भी ज्यादा पैसा देगी जिसको शायद वह समाज के बीच रहते हुए हासिल न कर पाते. उल्टे इस उम्र का युवा तो चाय की दुकानों और चौराहों में घूमता फिरता रहता यदि वह अग्निवीर न बनता. 

तमाम स्टार्ट अप्स, खेल के मैदानों, कला और तकनीकी क्षेत्रों में झंडे गाड़ रहे इस उम्र के नौजवानों की क्षमता को शायद यह फेसबुकिया वीर बेहद कम कर के आंक रहे है.

सैन्य मामलों में सरकार का बढ़ता दखल

हमारे देश में परंपरागत तौर पर सेना के मामलों में सरकारी दखल कम ही रहता है. इसका विपरीत भी सच है, सेना अपने काम से काम रखती है वह बाकी मसलों पर अपनी राय तक नहीं रखती.

मगर पिछले करीब एक दशक से हवा उल्टी बहने लगी है. पिछले वेतन आयोग के समय से ही कई मामले ऐसे रहे हैं जब सरकार सेना के कुछ उच्च अधिकारियों के साथ मिल कर जवानों के संबंध में ऐसे निर्णय ले लेती है जिससे वह असहज रहते हैं. बातें चाहे वेतन भत्तों की हों, ट्रेनिंग के पैटर्न की, पोस्टिंग की या फिर रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली सुविधाओं की हर जगह सरकारी दखल बहुत तेजी से बढ़ा है. ज्यादातर मामलों में निचले पायदान पर खड़ा जवान, उच्च सैन्य अधिकारियों और सरकारी तंत्र के बीच बंद कमरों में लिए गए निर्णयों के बाद खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं.

अग्निवीर से सेना कैसे सामंजस्य बैठा पाएगी

तमाम शोर शराबे वाहवाही और तोड़फोड़ के बीच सबसे अहम सवाल अलग है. सिर्फ 6 महीने की ट्रेनिंग पा कर, सेवा के पहले ही दिन से खुद को 75 या 25 प्रतिशत वाले खेमों में बांट कर, वापस जाने वाले दिनों की गिनती करते यह युवा सेना के लिए कितने लाभप्रद होंगे?

सेना के विभिन्न अंगों का एक परखा हुआ ट्रेनिंग पैटर्न है. सभी जवानों को सामान्य सैन्य प्रशिक्षण दिया जाता है जो औसतन 1 से डेढ़ साल का होता है. उसके बाद उनकी योग्यता और कौशल के हिसाब से उनको ट्रेड या स्ट्रीम दी जाती हैं. तकनीकी योग्यता रखने वाले युवाओं को उसके बाद अलग अलग ट्रेड में करीब 1 साल के विभिन्न प्रशिक्षण दिए जाते हैं. यह सब चरणबद्ध तरीके से होता है. ताकि युवा सेना के अत्याधुनिक हथियारों, सोफिस्टिकेटेड सिस्टम्स, बटालियन, ब्रिगेड या यूनिट्स की आवश्यकता के अनुरूप तमाम विभिन्न विषयों के साथ अपना तारतम्य बिठा सकें.

इस पैटर्न को पहले भी समय समय पर बदला जाता रहा है. जरूरत के मुताबिक ट्रेनिंग का समय, स्थान और अवधि बदल जाया करती थी या फिर कई चरणों में अलग अलग करवाई जाती थी. मगर कुल मिला कर एक पूर्ण प्रशिक्षित जवान जब सेवाओं के लिए फील्ड में पहुंचता था तो वह सैन्य तौर तरीकों और अपनी ड्यूटी को लेकर आश्वस्त रहता था. एक ही जवान आपको दिन में अत्याधुनिक विमानों, टैंकों, युद्धपोतों, हाई टेक मिसाइल और रडार आदि को मेंटेन करता, बड़े कठिन सर्किट डायग्राम्स के बीच एक इंजीनियर की भांति उलझा हुआ दिखाई देगा तो शाम को वही जवान परेड ग्राउंड में पैर पटकता, रात में हथियार ले कर अपनी यूनिट या बेस की हथियार बंद सुरक्षा करता दिख जायेगा.

संक्षेप में सेना अपने जवानों को इस तरह से मल्टीस्किल प्रदान करती है कि वह बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा काम चुटकियों में कर जाता है. इसमें समय समय पर उसको मिलने वाली ट्रेनिंग का बहुत बड़ा हाथ है.

सेना में अग्निवीर की उपयोगिता?

प्रथम दृष्टया अग्निवीर योजना सेना की इस मल्टीस्किल पद्धति के अनुरुप सही नही दिखती. कुल जमा 6 महीने की ट्रेनिंग दे कर सेना इन अग्निवीरों को सिर्फ और सिर्फ सपोर्ट स्टाफ या फिर सुरक्षा गार्ड के तौर पर ही नियुक्त कर पाएगी. इनका बेहतर उपयोग कैसे हो पाएगा यह नहीं बताया गया है.

सेना में पहले से नौकरी कर रहे जवान भी इससे असहज रहेंगे. क्योंकि उनका काम भी कम नहीं होने वाला. अपने ट्रेड जॉब के अलावा जो अन्य फौजी काम हैं वह उनके बजाय अग्निवीरों से लिए जाएं ऐसा तो संभव नहीं है. क्योंकि सेना में हमेशा यही सिखाया जाता है कि पहले आप सैनिक हो उसके बाद आपकी ट्रेड।

अंग्रेजों के समय की ‘बट मैन’ प्रणाली की वापसी?

जिस तरह से सेना के उच्च अधिकारियों का एक वर्ग अंग्रेजों के जमाने की ‘सहयोगी’ या ‘बटमैन’ प्रथा का प्रबल समर्थक रहा है, एक प्रबल आशंका है कि अग्निवीरों को बड़े साहबों के घरों की सुरक्षा और सहयोग के नाम पर उनके घरेलू कामों को करने में भी लगाया जा सकता है. वैसे यह अग्निवीरों के लिए फायदे का सौदा होगा.

खुद को 25 फीसदी वाले खेमे में ले जाने और सेना में स्थाई नियुक्ति पाने के लिए बड़े साहबान से नजदीकियां और उनकी कृपा पाना उस अग्निवीर के लिए बेहद आसान होगा जो साहब के घर पर काम करेगा, उनके कपड़े–जूते तैयार करेगा, मेमसाब को और उनके कुत्तों को घुमाएगा, बच्चो को स्कूल छोड़ने जायेगा आदि आदि. यह प्रथा थलसेना में भले ही लंबे समय तक चली हो पर वायुसेना और नौसेना ने काफी पहले ही त्याग दी थी परंतु क्या पता किसी नए रूप में यह बीमारी फिर से लग जाए।

सेना की सुरक्षा में सेंध?

एक बड़ी संख्या में सेना के अंदर आते और बाहर जाते इन युवाओं के अंदर सेना के प्रति नाम, नमक और निशान का जज्बा कितना अहमियत रखेगा यह कह पाना मुश्किल है. जब उसको पता है कि 75 प्रतिशत संभावना है कि वह 4 साल बाद इस संगठन से चला जायेगा तो वह उसकी सुरक्षा और गोपनीयता के लिए कितना संवेदनशील रहेगा? 

सैनिकों की पहुंच अतिसंवेदनशील प्रतिष्ठानों, जानकारियों और वस्तुओं तक भी रहती है जो देश की सुरक्षा के लिहाज से बेहद जरूरी होते हैं। एक अनमना सा सैनिक इस लिहाज से काफी खतरनाक साबित हो सकता है जिसको इन सबकी गंभीरता का अंदाजा न हो. दुश्मन देशों की तरफ से सोशल मीडिया आदि के माध्यम से अफसरों और जवानों को हनी ट्रैप करके उनसे संवेदनशील जानकारियां इकट्ठी करी जाती हैं. हाल ही में ऐसे केसों की बाढ़ सी आ गई है.

बड़े बड़े पदों पर बैठे अधिकारी और छोटे पदों पर आसीन जवान कब इनका शिकार बन जाते हैं वह जान ही नहीं पाते. हालांकि लंबा वक्त सेना के साथ बिता चुकने के बाद उनको इस विषय की गंभीरता का अंदाजा भी बेहतर होता है. अग्निवीर जिसको सेना से 4 सालों में ही निकल जाना है और जिसके हाथ में भविष्य में बड़े रिटायरमेंट बेनिफिट्स भी नही हैं वह विदेशी खुफिया विभाग के इन खेलों को कैसे परस्त कर पाएगा कहना मुश्किल है.

एक तथ्य यह भी है कि 24–25 साल की उम्र में सेना के कई हथियारों के चलाने के प्रशिक्षण प्राप्त युवा अपनी ऊर्जा और ताकत को रिटायरमेंट के बाद गलत रास्ते पर नही ले जायेंगे कोई गारंटी नहीं ले सकता. जिस तरह युवाओं में नशे, अंडरवर्ल्ड से संबंध, सुपारी किलिंग इत्यादि की प्रवृत्ति बढ़ रही है वह समाज के लिए घातक है. अब रिटायर्ड अग्निवीरों को समाज इस बीमारी से कैसे बचाएगा यह देखने वाली बात होगी क्योंकि अव्वल वह सैन्य रूप से कुशल तो होंगे ही, कुछ पैसा भी ले कर आयेंगे. उनकी शक्ति और पैसे का दुरुपयोग असामाजिक तत्व न कर पाएं इसके बारे में जरूर सोचना होगा.

विकल्प क्या है

देश में बेरोजगारों की बड़ी फौज सेना की तरफ बड़ी आस लगाए बैठी थी. अपने सुरक्षित और संपन्न भविष्य की गारंटी चाहती थी. अग्निपथ योजना ने उसे आंदोलित कर दिया है. यह कहना कि वह सरकार की मंशा को समझ नही पा रहे, मसले को कम करके आंकने वाली बात होगी.

अचानक से सेना की भर्ती पॉलिसी को बदल कर उसको सरप्राइज़ की तरह पेश करना ही इस योजना की सबसे बड़ी कमजोरी है. बेहतर होता कि कई स्तरों पर इस योजना के बारे में लगातार चर्चाएं होती रहतीं. संसद में चर्चाओं के माध्यम से, टीवी चैनलों पर, अखबारों के माध्यम से, समाज के सम्मुख इस योजना का प्रारूप समय समय पर आते रहता तो शायद युवा इसको अपनाने के लिए अब तक खुद को तैयार कर चुका होता. सरप्राइज़ दे कर सरकार ने सेना में जाने का सपना देख रहे युवाओं को रेल की पटरियों पर ला खड़ा किया. अब वह आग लगाए दे रहे हैं और अपने भविष्य को अधिक खराब कर रहे हैं.

बेहतर होता इस पूरी योजना को सेना के किसी एक अंग पर या किसी रेजिमेंट विशेष पर पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर लागू किया जाता. इससे होने वाले नफे और नुकसान को समझ कर आवश्यकता अनुसार बदलाव करके इसको लाया जाता. इससे सेना के अंदर और बाहर दोनों जगह इसकी अच्छाइयां और बुराइयां संवाद का विषय बनतीं और लोग इसे बेहतर ढंग से अपना पाते.

सरकार अब चर्चाएं करेंगी क्योंकि उसको भी युवाओं के आक्रोश का अंदाजा नहीं था. अगर यह चर्चा पहले होती तो इतना बवाल ही न होता. युवा भी यह समझे कि सेना में जाना एक गंभीर विषय है. आगजनी और तोड़फोड़ से कोई हल नहीं निकलने वाला. बल्कि यह उनके खुद के कैरियर को अंधे रास्ते पर ले जायेगा. सेना अनुशासन चाहती है और सेना में जाने के सपने को संजोने वाला युवा बेहतर होना ही चाहिए. 

बात बात पर सैन्य आधुनिकीकरण की आड़ ले कर सरकार यह जताती है कि सेना पर बहुत ज्यादा खर्च करना पड़ रहा है. अपने वित्तीय हित साधने के चक्कर में सरकार को यह भूलना नहीं चाहिए कि देश की सेना कोई प्राइवेट संस्था, या सार्वजनिक सरकारी उपक्रम नही है जो सिर्फ पैसे के चश्मे से देखा जाए. बड़े देशों की सेनाओं के तौर तरीकों को देखकर कुछ तो सीखा ही जा सकता है.

जे डब्लू ओ (रि.) अनुपम तिवारी वायुसेना से सेवानिवृत्त अधिकारी  हैं. मीडिया स्वराज सहित तमाम चैनलों पर रक्षा मामलों के जानकार के तौर पर अपनी राय रखते रहे हैं)

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